अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

वुज़ू के अहकाम

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अगर कोई इंसान वुज़ू के अफ़ाल व शर्तों में जैसे पानी के पाक या ग़सबी होने के बारे में बहुत ज़्यादा शक करता हो तो उसे चाहिए कि अपने शक की परवाह न करे।


अगर कोई इंसान यह शक करे कि उसका वुज़ू बातिल हुआ है या नही तो उसे यह समझना चाहिए कि उसका वुज़ू अभी बाक़ी है। लेकिन अगर उसने पेशाब करने के बाद इस्तबरा किये बग़ैर वुज़ू कर लिया हो और वुज़ू के बाद पेशाब के रास्ते से कोई ऐसी रतूबत निकले जो जिसके बारे में वह यह न जानता हो कि यह पेशाब है या कोई दूसरी चीज़ तो उसका वुज़ू बातिल है।


अगर किसी इंसान को शक हो कि उसने वुज़ू किया है या नही तो तो उसके लिए ज़रूरी है कि वुज़ू करे.


जो इंसान यह जानता हो कि उसने वुज़ू किया है और यह भी जानता हो कि उसने पेशाब भी किया है लेकिन यह न जानता हो कि कौनसा काम पहले किया है तो अगर यह हालत नमाज़ से पहले पेश आये तो उसे चाहिए कि वुज़ू करे और अगर नमाज़ के दरमियान पेश आये तो नमाज़ तोड़ कर वुज़ू करना चाहिए और अगर नमाज़ के बाद पेश आये तो जो नमाज़ पढ़ चुका है वह सही है लेकिन दूसरी नमाज़ों के लिए नया वुज़ू करना ज़रूरी है।


अगर किसी इंसान के वुज़ू के बाद या वुज़ू करते वक़्त यक़ीन हो जाये कि उसने किसी हिस्से को नही धोया है या मसाह नही किया है और जिन हिस्सों को पहले धोया था या मसाह किया था ज़्यादा वक़्त गुज़रने की वजह से वह उनकी तरी ख़ुश्क हो गई हो तो उसे चाहिए कि दोबारा वुज़ू करे, लेकिन अगर पहले धोये हुए या मसाह किये हुए हिस्सों की तरी ख़ुश्क न हुई हो या हवा की गर्मी या किसी और वजह से खुश्क हो गई हो तो ज़रूरी है कि जिस हिस्से को धोना भूल गया हो उसको धोये और उसके बाद वाले हिस्सों को भी धोये या अगर मसाह करना हो तो मसाह करे। लेकगिन अहर वुज़ू करते वक़्त किसी हिस्से को धोने या किसी हिस्से के मसाह करने कते बारे में शक करे तो तब भी इसी हुक्म पर अमल करना ज़रूरी है।


अगर किसी इंसान के नमाज़ पढ़ने के बाद शक हो कि उसने वुज़ू किया था या नही तो उसकी वह नमाज़ सही है लेकिन दूसरी नमाज़ों के लिए वुज़ू करना ज़रूरी है।


अगर किसी इंसान को नमाज़ पढ़ते वक़्त शक हो कि उसने वुज़ू किया था या नही तो उसकी वह नमाज़ बातिल है। उसके लिए ज़रूरी है कि वुज़ू करे और दोबारा नमाज़ पढ़े।


 अगर कोई इंसान नमाज़ के बाद यह समझे कि उसका वुज़ू बातिल हो गया था लेकिन शक करे कि नमाज़ से पहले बातिल हुआ था या नमाज़ के बाद तो जो नमाज़ पढ़ चुका है वह सही है।


अगर किसी इंसान को ऐसा मरज़ हो कि उसके पेशाब के क़तरे टपकते रहते हों या पाख़ाना रोकने पर क़ादिर न हो तो, अगर उसे यक़ीन हो कि नमाज़ के अव्वले वक़्त से आख़िरे वक़्त तक उसे ऐसा मौक़ा मिल जायेगा कि वुज़ू कर के नमाज़ पढ़ सके, तो ज़रूरी है कि वह उसी मौक़े पर नमाज़ पढ़े और अगर उसे सिर्फ़ इतनी मोहलत मिले जो नमाज़ के वाजिबात पूरे करने के लिए काफ़ी हो तो उसके लिए नमाज़ के वाजिब हिस्सों को अदा करना और मुस्तहब हिस्सों को छोड़ना (जैसे अज़ान इक़ामत क़नूत वग़ैरह) ज़रूरी है।


अगर किसी इंसान को बीमारी की वजह से नमाज़ का कुछ ही हिस्सा वुज़ू के साथ पढ़ने की मोहलत मिलती हो और नमाज़ के बीच एक बार या चन्द बार उसका पेशाब या पाख़ाना निकल जाता हो तो एहतियाते लाज़िम यह है कि कि इस मोहलत के वक़्त वुज़ू करके नमाज़ पढ़े और अगर नमाज़ पढ़ते वक़्त पेशाब या पाख़ाना निकल जाये तो दोबारा वुज़ू करना लाज़िम नही है। लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि पानी का बर्तन अपने पास रखे और जब भी पेशाब या पखाना निकले वुज़ू करके नमाज़ का बक़ी हिस्सा पूरा करे। यह एहतियात इस हालत में है जबकि पेशाब या पाखाना निकलने का वक़्त ज़्यादा न हो या वुज़ू करने की वजह से अरकाने नमाज़ के बीच ज़्यादा फ़ासला न हो, इस सूरत के अलावा एहतियात का कोई फ़ायदा नही है।


अगर किसी इंसान को पेशाब या पाख़ाना इस तरह बार बार आता हो कि उसे वुज़ू करके नमाज़ का कुछ हिस्सा भी पढ़ने की मोहलत न मिलती हो तो उस के लिए हर नमाज़ के लिए एक वुज़ू काफ़ी है बल्कि ज़ाहिर तो यह है कि अगर उसका वुज़ू इस बीमारी के अलावा और किसी दूसरी वजह से बातिल न हो तो वह एक वुज़ू से कई नमाज़े भी पढ़ सकता है। लेकिन बेहतर यह है कि हर नमाज़ के लिए एक बार वुज़ू करे। लेकिन कज़ा सजदे, कज़ा तशहुद और नमाज़े एहतियात के लिए दूसरा वुज़ू ज़रूरी नही है।


अगर किसी इंसान को पेशाब पाख़ाना बार बार आता हो तो उसके लिए ज़रूरी नही है कि वुज़ू के बाद फ़ौरन नमाज़ पढ़े, अगरचे बेहतर यही है कि नमाज़ पढ़ने में जल्दी करे।


अगर किसी इंसान को पेशाब पाख़ाना बार बार आता हो तो वुज़ू करने के बाद अगर वह नमाज़ की हालत में नही है, तब भी उसके लिए कुरआने मजीद के अलफ़ाज़ को छूना जायज़ है।


अगर किसी इंसान को क़तरा क़तरा पेशाब आता रहता हो तो उसे चाहिए कि नमाज़ के लिए एक ऐसी थैली इस्तेमाल करे जिस में रूई या ऐसी ही कोई और चीज़ रखी हो जो पेशाब को दूसरी जगहों तक जाने से पहुँचे। एहतियाते वाजिब यह है कि नमाज़ से पहले नजिस हुई पेशाब की जगह को धो ले। इसके अलावा जो इंसान पाख़ाना रोकने पर क़ादिर न हो उसे चाहिए कि जहाँ तक मुमकिन हो नमाज़ पढ़ते वक़्त पाख़ाने को दूसरी जगहों तक फैलने से रोके और एहतियाते वाजिब यह है कि अगर ज़हमत न हो तो हर नमाज़ से पहले मक़द (पाख़ाने निकलने का सुराख़) को धोये।


जो इंसान पेशाब या पाख़ाने को रोकने पर क़ुदरत न रखता हो तो जहाँ तक मुमकिन हो नमाज़ में पेशाब या पाख़ाने को रोके चाहे इसके लिए कुछ ख़र्च ही क्योँ न करना पड़े। अगर यह मरज़ आसानी से दूर हो सकता हो तो ऐसे इंसान को चाहिए कि अपना इलाज कराये।


अगर एक इंसान पेशाब या पाख़ाना रोकने पर क़ादिर न हो और वह बीमारी की हालत में अपने वज़ीफ़े के मुताबिक़ नमाज़ पढ़ता रहे तो सही होने पर बीमारी के दौरान पढ़ी हुई नमाज़ों की क़ज़ा ज़रूरी नही है। लेकिन एहतियाते लाज़िम यह है कि अगर उसका मरज़ नमाज़ पढ़ते वक़्त सही हो जाये तो फ़क़त उसी नमाज़ को दोबारा पढ़े।


अगर कोई इंसान रियाह(पाख़ाने के रास्ते पेट से निकलने वाली गैस) रोकने पर क़ादिर न हो तो तो उसे उन लोगों की तरह अमल करना चाहिए जो पेशाब या पाख़ाना रोकने पर क़दिर नही हैं।

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