नज़र अंदाज़ करना
عظموا اقداركم بالتغافل عن الدني من الامور
बे अहमीयत चीज़ों से लापरवाही बरतते हुए उन्हे नज़र अंदाज़ करके अपनी शख़्सियत की हिफ़ाज़त करें।
क्यों नज़र अंदाज़ करना चाहिये?
समाजी ज़िन्दगी और घरेलू ज़िन्दगी में वाज़ेह फ़र्क़ होता है। घर के माहौल में घर के अफ़राद दो, तीन या कभी इससे ज़्यादा होते हैं। वाज़ेह है कि चार या पाँच लोगों का एक साथ ज़िन्दगी बसर करना बिला शुब्हा सहल और आसान है, लेकिन समाज में ज़िन्दगी बसर करना सख़्त है। क्योंकि समाज में मुख़तलिफ़ तबियतों, मुख़तलिफ़ सलीक़ों, मुख़तलिफ़ और मुख़तलिफ़ फ़िक्र व नज़र के लोग मौजूद होते हैं और यह बात वाज़ेह है कि फ़र्दी ज़िन्दगी मुख़तलिफ़ गिरोह व मुखतलिफ़ फ़िक्र व नज़र वाले अफ़राद के साथ बहुत सख़्त और दुशवार है। मिसाल के तौर पर जिस समाज में आलिम, जाहिल, उसूली, मंतिक़ी, लापरवाह, जज़बाती, बूढ़े, जवान व बच्चे सभी मौजूद हो ुसमें फ़र्दी ज़िन्दगी बसर करना आसान काम नही है। बल्कि वहाँ पर ऐसी क़ुदरत व ताक़त की ज़रूरत है जिससे इंसान सबको राज़ी रख सके और किसी भी गिरोह से टकराव न हो।
समाज में ज़िन्दगी बसर करना एक मुअल्लिम के पढ़ाने की तरह है जो एक ऐसी बड़ी क्लास को पढ़ा रहा हो जिसमें बच्चे, नौजवान और बुज़ुर्ग मुख़तलिफ़ सलाहियतों के लोग हों, ऐसी क्लास में पढ़ाना निहायत सख़्त व दुशवार काम है।
समाजी ज़िन्दगी की कामयाबी के लिये हमें अपना दिल बड़ा करने, सबका ऐहतेराम करने, के साथ कुछ जगहों पर चश्मपोशी व ग़फ़लत से काम लेना पड़ेगा ताकि मुख़तलिफ़ लोगों के साथ ज़िन्दगी बसर की जा सके। दूसरे लफ़्जों में हमारे पास इतना होंसला होना चाहिए कि हमसे बूढ़े मर्द व औरत नाराज़ न हों, हम बच्चों की ग़लतियों पर सब्र व ज़ब्त कर सकें ताकि वह भी राज़ी व ख़ुश रहें। अगर समाज मे सिर्फ़ ऐसे लोगों से मिलें जो सिर्फ़ एक गिरोह के साथ रह सकते हों तो यक़ीनन ऐसे लोग समाज के मुख़तलिफ़ तबक़ों के अफ़राद के साथ ज़िन्दगी बसर नही कर सकते हैं।s
मोमिन की एक ख़ूबी यह है कि वह जाहिल व नादान लोगों के साथ नेक बर्ताव करता है और उनके ग़ैर उसूली और नाज़ेबा सुलूक पर नाराज़ व ग़ुस्सा नही होता हैं बल्कि बुज़ुर्गवारी का सुबूत देता है।
अल्लाह तअला क़ुरआने मजीद में इरशाद फ़रमाता है:
وَعِبَادُ الرَّحْمَنِ الَّذِينَ يَمْشُونَ عَلَى الْأَرْضِ هَوْنًا وَإِذَا خَاطَبَهُمُ الْجَاهِلُونَ قَالُوا سَلَامًا
(सूरह फ़ुरक़ान आयत 64)
और अल्लाह के नेक बंदें वह हैं जो ज़मीन पर नर्म रफ़तारी से चलते हैं और जब कोई जाहिल उनके साथ ग़ैर मुनासिब सुलूक करता है तो वह करामत व बुज़ुर्गवारी से नज़र अंदाज़ करते हुए गुज़र जाते हैं।
और जो लोग तग़ाफ़ुल नही करते और हस्सास तबीयत के मालिक हैं वह समाजी ज़िन्दगी में अक्सर मुश्किलों से दोचार होते रहते हैं और अपनी शख़सियत व एहतेराम से हाथ धो बैठते है।
नज़र अंदाज़ करने का यह मतलब नही है कि इंसान अपने अतराफ़ से ग़ाफ़िल हो जाये और उसे यही मालूम न हो कि उसके चारों तरफ़ क्या हो रहा है, बल्कि मोमिन अपनी फ़िरासत व होशियारी से तमाम हालात से बख़ूबी ख़बरदार होता है और अपनी शख़्सियत व वक़ार की ख़ातिर ऐसा बरताव करता है कि लोग यह समझते है कि उसे कुछ ख़बर नही है। ऐसे काम को तग़ाफ़ुल व नज़र अंदाज़ करना कहते हैं।
अक़्लमंद शौहर व बीवी को यह कोशिश करनी चाहिये कि अपनी मुशतरक ज़िन्दगी में एक दूसरे की कमियों और ख़ामियों को नज़र अंदाज़ करते हुए आपस में इज़्ज़त व एहतेराम को बानाये रखें। वाज़ेह है कि अगर ऐसा नही करेगें तो उनके दरमियान तू तू मैं मैं शुरू हो जायेगी जिससे दोनों का एहतेराम जाता रहेगा।
हर इंसान को चाहिए कि वह अपनी समाजी ज़िन्दगी में भी इस तरह की रफ़तार की रिआयत करे ताकि वह अपनी ईज़्ज़त को भी बचा सके और समाजी ज़िन्दगी को अपना सके।
ज़िमनन इस बात पर भी तवज्जो देनी चाहिये कि यह लापरवाई बरतना व नज़र अंदाज करना ग़ैरे मुस्तक़ीम तरबियत की एक क़िस्म है। मिसाल के तौर पर ्गर कोई शागिर्द अपने उस्ताद से झूट बोलता है तो असली उस्ताद वही है जो अपने शागिर्द के झूट को ज़ाहिर न करे बल्कि उसे इस तरह से समझाये कि जैसे उसने झूट न बोला हो। उस्ताद ऐसा करके अपने शागिर्द को बेईज़्ज़ती से बचा सकता है और उसकी शख़्सियत के एहतेराम को हिफ़्ज़ करके उसे यह समझा सकता है कि एक शख़्सियत रखने वाला इंसान झूटा नही हो सकता।
वेक्टर होगो ने अपनी सबसे बेहतरीन कहानी यानी "बेसहारा लोग" में इस तरबियती तरीक़े की तरफ़ इशारा करता है और उसने ईसाई पादरी के नज़र अंदाज करने के तरीक़े को बहुत अच्छे पैराये में बयान किया है।
वह इस काम को अंजाम देकर जान वान जान के दिल पर तरबियती की इतनी गहरी छाप छोड़ता है कि वह बदबख़्त व बदक़िस्मत इँसान जो बीस साल जेल में पड़ा था एक दम बदल जाता है। यह इंसान की ग़लतियों को नज़र अंदाज़ करने का नतीजा है।
हदीसों और रिवायतों का दिक़्क़त से मुतालआ करने से यह बात समझ में आती है कि ख़ुदा वंदे आलम ने भी अपने बंदों की ग़लतियों और गुनाहों के सिलसिले में यही तरीक़ा अपनाया है। वह उनके गुनाहों को नज़र अंदाज़ करते हुए माफ़ कर देता है। और यह चश्म पोशी इस हद तक है कि इंसान यह गुमान करते है कि गोया उन्होने कोई गुनाह ही अंजाम नही दिया है।
ज़ाहिर है कि अफ़ व ग़लतियों को नज़र अन्दाज़ करने के इस जज़्बे को घर के तरबीयती माहौल में भी जगह देनी चाहिए। माँ बाप को अमली तौर पर अपने बच्चों के साथ ऐसा सुलूक करना चाहिये कि बच्चे ुनसे यह आदत सीखें यानी वह यह महसूस करें कि बुज़र्ग उनकी ग़लतियों को नज़र अंदाज़ करके अपनी बुज़ुर्गी का सुबूत देते हुए टाल जाते हैं। यह बात रोज़े रौशन की तरह आशकार है कि जब बच्चे घर के माहौल में इस तरह के रवय्ये को देखेगें तो वह मुस्तक़बिल में दूसरों के साथ ऐसा ही बर्ताव रवा रखने की कोशिश करेंगे।
यह बात भी वाज़ेह है कि माँ बाप अपने बच्चों के साथ जो सुलूक करते हैं उनके बच्चे उसे महसूस करते हैं और उसे क़बूल कर के अपनी अख़लाक़ी आदतों का हिस्सा बना लेते हैं।
हमें यह नही भूलना चाहिये कि हमारे बच्चों के लिए ज़रूरी है कि वह तरबियत के उसूल व क़वानीन को घर व मदरसे के माहौल में ही देखें और सीख़ें। ज़ाहिर है कि वह यह सब देखने और समझने के बाद उसे क़बूल करके अपनी आदतों का हिस्सा बना लेगें। हज़रत अली (अ) नहजुल बलाग़ा में एक दूसरी जगह पर इस तरह फ़रमाते हैं: العقل نصفه احتمال و نصفه تغافل
यानी अक़्लमंद इंसान वह है जो अपने आधे वुजूद से लोगों की बुराीयों व मुशकिलों को बर्दाश्त करे और दूसरे आधे वुजूद से अतराफ़ में होने वाले कामों को नज़र अंदाज़ कर दे।
ख़ुलास ए कलाम यह है कि समाजी ज़िन्दगी तग़ाफ़ुल व चश्मपोशी चाहती है। लिहाज़ा हमें यह कोशिश करनी चाहिये कि हम जज़बाती होने व लड़ाई झगड़े करने के बजाए सुल्ह व सफ़ाई और मेल जोल वाली आदत अपनायें।