इस्लाम में मुतआ और चार शादियों का स्थान
कुछ लोग ज्ञान की कमी के कारण वहाबी लोगों की बातों को दोहराते हैं और कहते हैं कि मुतआ मर्दों की शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति और अलग अलग महिला की चाहत के लिए हलाल किया गया है और यह एक प्रकार की अशलीलता है।
हम को यह याद रखना चाहिए कि इस्लाम ने इन्सानी समाज को एक आदर्श स्थिति दी है और वह चाहता है कि किसी भी सूरत में इन्सानी समाज की व्यवस्था भंग न होने पाए, और इसके लिए आवश्यक है कि समाज के हर व्यक्ति की हर आवश्यकता को पूरा किया जाए।
इस्लाम यह चाहता है कि समाज में कोई एक भी स्त्री अविवाहित न रह जाए इसीलिए इस्लाम ने कई शादियों और मुतआ के बारे में फ़रमाया है।
लोग यह समझते हैं कि यह मुतआ केवल मर्द को ध्यान में रखते हुए और उसकी इच्छाओं की पूर्ति के लिए रखा गया है लेकिन अगर घ्यान से देखा जाए तो यह मुतआ और कई शादियों का समअला महिलाओं के हक़ में है और उनके इससे अधिक लाभ है।
क्योंकि यह एक वास्तविक्ता है कि इस समाज की हम महिला की तीन आवश्यकताएं होती हैं
1. शारीरिक आवश्यकता
2. आत्मिक आवश्यकता
3. आर्थिक आवश्यकता
और इन आवश्यकताओं की पूर्ति का सबसे बेहतरीन रास्ता शादि या मुतआ है, क्योंकि अगर कोई महिला शादी ता मुतआ करती है तो उसकी शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति सही और हलाल तरीक़े से हो जाती है लेकिन अगर कोई महिला शादी या मुतआ न करे तो वह अपनी इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए या तो बहुत मुत्तक़ी हो जाए जो कि बहुत ही कठिन है या फिर ग़लत रास्ते पर चल पड़े जिससे स्वंय उसको भी हानि होगी और उस समाज को भी।
दूसरी आत्मिक आवश्यकता है जब कोई महिला किसी रिश्ते में होती है तो वह रिश्ता उसकी आत्मिक आवश्यकताओं को भी पूरा करता है लेकिन अगर महिला शादी न करे तो वह डिप्रेस्ड हो जाएगी और अनःता उसको हास्पिटल जाना पड़ेगा।
तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता आर्थिक है, और इसका भी हल शादी से हो जाता है कि जब कोई महिला शादी करती है तो इसके भरण पोषण का ख़र्चा उसके पति पर वाजिब होता है, लेकिन अगर इस्लाम के इस क़ानून को स्वीकार न किया जाए तो उस महिला को नौकरी आदि करनी होगी जिसकी अनपी समस्याएं है जिनको उनके स्थान पर बयान किया जाएगा।
यह बता सदैव ध्यान रखना चाहिए कि इस्लाम इस समाज की किसी भी महिला को अविवाहित नहीं देखना चाहता है और मुतआ एवं कई शादियों की बात केवल वहीं पर व्यवहारिक है जब किसी समाज में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक हो अगर किसी समाज में पुरुष 1000 और महिलाएं उससे 1200 हों तो अंत में 200 महिलाएं अविवाहित रह जाएंगी और अगर हम कई शादियों या मुतआ को हराम कर दें तो इन 200 महिलाओं की ऊपर बताई गई तीनों आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला कोई नहीं होगा, और पूर्ती न होने की सूरत में ऊपर बताए गए नुक़साना को उठाना पड़ेगा, इसलिए आवश्यक है कि हम कई शादियों या मुतआ को हलाल मानें।
और एक बात यह भी है कि बहुत संभव है कि यह 200 महिलाएं जो पुरुषों से अधिक हैं उनमें से कुछ की आयु उस सीमा को पहुंच चुकी हो कि जब कोई आदमी उनसे शादी न करना चाहे या उनकी सूरत शकल ऐसी हो कि शादी के लिए कोई उनको न मिले, लेकिन उनकी तीनों आवश्यकताएं अपने स्थान पर बाक़ी हैं, इसलिए अगर हम मुतआ को हलाल मान लें जिसको इस्लाम ने बताया है तो बहुत संभव है कि इस प्रकार की महिलाओं को भी उनका कोई साथी मिल जाए, और इस प्रकार उनकी आवश्यकताएं पूरी हो जाएं।
मुतआ क़ुरआन में
مَا اسْتَمْتَعْتُم بِهِ مِنْهُنَّ فَآتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ فَرِيضَةً ۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيمَا تَرَاضَيْتُم بِهِ مِن بَعْدِ الْفَرِيضَةِ ۚ إِنَّ اللَّـهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمًا
फिर उनसे दाम्पत्य जीवन का आनन्द लो तो उसके बदले उनका निश्चित किया हुए हक़ (मह्रि) अदा करो और यदि हक़ निश्चित हो जाने के पश्चात तुम आपम में अपनी प्रसन्नता से कोई समझौता कर लो, तो इसमें तुम्हारे लिए कोई दोष नहीं। निस्संदेह अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, तत्वदर्शी है (सूरा निसा आयत 24 अनुवाद फ़ारूक़ खान एवं अहमद)
मुतआ इस्लामी इतिहास में
इस्लामी समाज की हर सम्प्रदाय इस बात को मानता है कि मुतआ पैग़म्बर के युग में हलाल था और उनके सहाबी इस कार्य को अंजाम दिया करते थे, और यह मुतआ पैग़म्बर के पहले ख़लीफ़ा अबूबक्र के काल में भी हलाल था, लेकिन जब दूसरे ख़लीफ़ा उमर ने गद्दी संभाली तो कुछ कारणों से इस मुतआ को जिसको अल्लाह और उसके रसूल ने हलाल किया था हराम कर दिया और कहा कि दो मुतअे पैग़म्बर के युग में हलाल थे और आज में उनको हराम कर रहा हूँ और जो भी उसको करेगा उसको सज़ा दूंगा।
दूसरी तरफ़ हर मुसलमान सम्प्रदाय इस बात को भू स्वीकार करता है कि पैग़म्बर के अतिरिक्त किसी दूसरे को यह हक़ हासिल नहीं है कि वह दीन में कुछ दाख़िल करे या दीन से कुछ बाहर कर दे और इस्लाम में कुछ ज़्यादा या कम करना बिदअत है (जैसा कि स्वंय उमर ने किया है)
इसीलिए इमाम अली (अ) ने फ़रमाया है कि अगर मुतआ हराम न किया जाता तो कोई भी व्यक्ति ज़िना नहीं करता मगर यह कि वह शक़ी होता।
लेकिन इस सबके बावजूद वह चीज़ जो पैगम़्बर के युग में हलाल थी वह हराम कर दी गई, जब्कि इसको अगर देखा जाए तो यह हराम करने वाला यह कहना चाहता है कि जो कुछ मुझे समझ में आ रहा है वह अल्लाह और उसके रसूल को समझ में नहीं आया।
और इसका नतीजा यह हुआ कि जिन लोगों ने मुतआ को हराम किया और वही वहाबी लोग सेक्स जिहाद, लवात, समलैगिग्ता आदि को हलाल बता रहे हैं!!!!
इस्लाम में बालिग़ होने से पहले भी शादी की जा सकती है बालिग़ होने के बाद एक मुस्तहेब कार्य है जिसकी बहुत ताकीद की गई है, लेकिन जैसे ही शादी न होने के कारण कोई पहला पाप होता है तो इस्लाम में शादी वाजिब हो जाती है। इस्लाम यह नहीं चाहता है कि इन्सान अपने जीवन के किसी भी समय में ईश्वर से दूर हो और पाप करे इसीलिए उसको रोकने के लिए कभी एक शादी कभी कई शादियाँ और कभी मुतआ जैसे रास्ते बताएं हैं।
मेरा मानना यह है कि जो लोग मुतआ को नहीं मानते हैं या कई शादियों को हराम समझते हैं वह एक आइडियल समाज बनाने के लिए कोई और रास्ता नही दिखा सकते हैं सिवाये इसके कि उस समाज में या तो वेश्ववृति हो या फिर शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए सेक्स ट्वायज़ का सहारा लिया जाये जैसा कि पश्चिम में हो रहा है।