अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

ग़दीर पर रसूले इस्लाम (स.अ.) का विशेष ध्यान

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हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम को भी ग़दीर का उतना ही ख़्याल था जितना की अल्लाह को, और उस साल बहुत सारी क़ौमें और क़बीलें हज के सफ़र पर निकले थे।

1. रसूले इस्लाम (स.अ.) का ग़दीर के दिन उतरने वाली आयतों का प्रचार करना

हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम को भी ग़दीर का उतना ही ख़्याल था जितना की अल्लाह को, और उस साल बहुत सारी क़ौमें और क़बीलें हज के सफ़र पर निकले थे।

और वह सब गुट-गुट रसूले इस्लाम (स.अ.) के साथ होते जा रहे थे। रसूले इस्लाम को मालूम था कि इस सफ़र के अंत में उन्हें एक महान काम को अंजाम देना है जिस पर दीन की इमारत तय्यार होगी और उस इमारत के ख़म्भे उँचे होंगे कि जिससे आपकी उम्मत सारी उम्मतों की सरदार बनेगी, पूरब और पश्चिम में उसकी हुकूमत होगी मगर इसकी शर्त यह है कि वह सब अपने सुधरने के बारे में सोच-विचार करें और अपने हिदायत के रास्ते को देख लें, लेकिन अफ़सोस कि ऐसा नहीं हो सका।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) ऐलान के लिए उठ खड़े हुए जबकि अलग-अलग शहरों से लोगों के गुट गुट आपके पास जमा हो चुके थे जो आगे बढ़ गए थे उन्हें पीछे बुलाया, जो आ रहे थे उन्हें उसी जगह रोका गया, और सबको यहर बात बताई और याद कराई गई और यह कहा गया कि जो यहाँ हैं वह उन लोगों को बता देगें जो यहाँ नहीं हैं। ताकि यह सब के सब ग़दीर की हदीस के रावी (हदीस बयान करने वाले) हों जिनकी संख्या एक लाख से अधिक थी।

हाफ़िज़ अबू जाफ़र मोहम्मद इब्ने जुरैर तबरी “अलविलायतो फी तुरक़े हदीसे ग़दीर” नामक किताब में ज़ैद इब्ने अरक़मः से बयान करते हैं कि नबी-ए-अकरम ने अपने आख़री हज से वापसी पर कि जब आप ग़दीरे ख़ुम के स्थान पर पहुँचे हैं तो दोपहर का समय था, गर्मी बहुत तेज़ थी, आपके हुक्म से पेड़ों के नीचे की ज़मीनों को साफ़ किया गया, जमाअत से नमाज़ पढ़ने का ऐलान किया गया, हम सब जमा हुए तो रसूले इस्लाम (स.अ) ने एक ख़ुत्बे के बाद इरशाद फ़रमायाः ख़ुदा ने मुझ पर यह आयत उतारी है कि जो हुक्म आपको दिया गया है उसे लोगों तक पहुँचा दो अगर तुमने ऐसा नहीं किया तो रिसालत का कोई काम अंजाम नहीं दिया और अल्लाह आपको दुश्मनों से बचाएगा।

जिबरईल (अ.) अल्लाह की तरफ़ से यह हुक्म लाए हैं कि मैं इस स्थान पर रुक कर हर एक को यह बता दूँ कि अली इब्ने अबी तालिब (अ.) मेरे भाई और मेरे बाद मेरे जानशीन (उत्तराधिकारी) और इमाम हैं। मैंने जिबरईल से कहा कि अल्लाह से मेरे लिए बख़्शिश (माफ़ी) की गारंटी लें क्योंकि मुझे मालूम है कि अच्छे लोग बहुत कम हैं और तकलीफ़ पहुँचाने वाले बहुत ज़यादा हैं। और ऐसे बहुत से लोग हैं जो अली (अ.) के साथ रहने के कारण मुझे बुरा भला कहते हैं यहाँ तक कि उन्होंने मुझे “ उज़ुन ” (यानी कान के कच्चे) तक कह दिया।

अल्लाह तआला क़ुर्आन में इरशाद फ़रमाता हैः उनमें से कुछ लोग नबी को तकलीफ़ पहुँचाते हैं और कहते हैं कि वह कान के कच्चे हैं, उनसे कह दीजिए मैं उनका नाम और निशानियाँ बता सकता था लेकिन मैंने उस पर पर्दा डाल दिया है इसलिए अली (अ.) के बारे में जो हुक्म अल्लाह ने दिया है उसको पहुँचाए बिना अल्लाह राज़ी नहीं होगा।

ऐ लोगो! इस संदेश को सुन लो, निःसंदेह अल्लाह ने अली (अ.) को तुम्हारे ऊपर वली और इमाम बनाया है। और उनकी इताअत (आज्ञापालन करना) सभी इंसानों पर वाजिब की है उनका हुक्म जारी है उनका विरोध करने वाले पर लानत और धिक्कार और जो उनको माने उस पर रहमत, यह सुन लो और इताअत करो।

निःसंदेह अली (अ.) तुम लोगों के इमाम और मौला हैं उनके बाद इमामत मेरे बेटों में उन्हीं की नस्ल से होगी, हलाल वही है जिसको अल्लाह और उसके रसूल ने हलाल कर दिया, और हराम वही है जिसको अल्लाह और उसके रसूल ने हराम कर दिया। कोई ऐसा इल्म नहीं जिसको ख़ुदा ने मुझे नहीं दिया हो और मैंने अली तक न पहुँचाया हो, इसलिए अली का साथ न छोड़ना। वही हैं जो हक़ की तरफ़ हिदायत (मार्गदर्शन) करते हैं और ख़ुद भी उस पर अमल करते हैं, जो उसका इंकार करे ख़ुदा कदापि उसकी तौबा क़बूल नहीं करेगा और उसको माफ़ नहीं करेगा। अल्लाह को चाहिए कि वो ऐसा ही करे और ऐसे इंसान को अज़ाब का मज़ा चखाए। जब तक ज़मीन पर लोग ज़िन्दा हैं अली मेरे बाद सब लोगों से अफ़ज़ल (सर्वश्रेष्ठ) हैं। जो उनका विरोध करे उस पर लानत होगी, और मैं जो कुछ भी कह रहा हूँ वो सब जिबरईल, अल्लाह की तरफ़ से लेकर आए हैं। हर इंसान यह देख लेगा कि उसने आगे क्या भेजा है।

क़ुर्आन को समझो और अंजान की इताअत ना करो, तुम्हारे लिए क़ुर्आन की तफ़सीर वही करेगा जिसका हाथ मैं पकड़ने वाला हूँ उसे बुलंद करके मैं तुम्हारे सामने ऐलान करने वाला हूँ कि जिसका मैं मौला हूँ उसके यह अली भी मौला हैं। और अली की विलायत का यह ऐलान अल्लाह की तरफ़ से है जिसको उसने मुझ पर उतारा है।

ख़बरदार हो जाओ! मैंने अदा कर दिया।

ख़बरदार हो जाओ! मैंने पहुँचा दिया।

ख़बरदार हो जाओ! मैंने सुना दिया।

ख़बरदार हो जाओ! मैंने विस्तार से बयान कर दिया।

मेरे बाद अली के सिवा कोई भी मोमिनों का मालिक नहीं है, फ़िर आपने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को इतना उठाया कि मौला के पैर रसूले इस्लाम (स.अ.) के घुटनों तक पहुँच गए और फिर फ़रमायाः

ऐ लोगो ! यह मेरा भाई, मेरा जानशीन (उत्तराधिकारी), मेरे इल्म का वारिस, और जिसका मुझ पर और अल्लाह की किताब की तफ़सीर पर ईमान है उसके लिए यह अली मेरे बाद मेरा जानशीन (उत्तराधिकारी) है।

ऐ अल्लाह! तू उसको दोस्त रखना जो अली को दोस्त रखे और उसे दुश्मन रखना जो उसको दुश्मन रखे और उस इंसान पर लानत कर जो उसको ना माने, और उस पर अज़ाब करना जो अली के हक़ का इन्कार करे।

ऐ अल्लाह ! इस बात में कोई शंका नहीं है कि तू ने अली की ख़िलाफ़त के ऐलान के बाद यह आयत नाज़िल कीः

आज मैंने दीन को अली की इमामत के माध्यम से मुकम्मल (पूरा) कर दिया।

अब जो लोग अली और उनकी नस्ल से पैदा होने वाले मेरे बेटों को क़यामत तक इमाम न माने तो यही वह लोग होंगे जिनके सारे नेक आमाल बेकार हो जाएँगे और वो हमेशा जहन्नम में रहेंगे।

इब्लीस ने जनाबे आदम को ईर्ष्या के कारण जन्नत से निकलवा दिया, इस लिए तुम लोग ईर्ष्या से बचो वरना तुम्हारे आमाल बरबाद हो जाएँगे और तुम्हारे क़दम लड़खड़ा जाएँगे, क़ुर्आन में सूरए वलअस्र अली ही की शान में उतरा है।

ऐ लोगो ! ख़ुदा, उसके रसूल और वो नूर जो नबी के साथ उतरा उस पर ईमान ले आओ इस से पहले कि तुम्हारे चेहरे बिगाड़ दिए जाएँ, या उन्हें पीठ की तरफ़ मोड़ दिया जाए, या तुम पर हम ऐसी लानत करें जैसी असहाबे सब्त पर लानत की थी। ख़ुदा का नूर मुझ में है फिर अली की नस्ल में इमाम मेहदी तक।

ऐ लोगो ! बहुत जल्दी ऐसे इमाम पैदा होंगे जो तुम को जहन्नम की तरफ़ बुलाएँगे। लेकिन क़यामत के दिन उनकी कोई मदद नहीं की जाएगी, अल्लाह और मैं दोनो उनसे नफ़रत करते हैं, वह और उनके साथी जहन्नम के सबसे नीचे वाले भाग में होंगे। जल्दी ही यह लोग ख़िलाफ़त को छीन कर उसे अपना बना लेंगे, उस समय ऐ गिरोहे इंसान और जिन्नात तुम पर मुसीबत आएगी, और तुम पर आग बरसाई जाएगी और तुम्हारी पुकार सुनने वाला कोई नहीं होगा।

 2. ग़दीर का दिन “ ईद ” का दिन

एक चीज़ जिससे ग़दीर की हदीस मशहूर और हमेशा बाक़ी रही वह है ग़दीर का दिन ईद का दिन, और इस दिन को जिसको पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) ने ईद का दिन बनाया। जिसमें जश्न मनाया जाता है। रात इबादत में बिताई जाती है। मोमेनीन ख़ुम्स और ज़कात निकालते हैं। ग़रीब लोगों की मदद करते हैं। अपने लिए और अपने घर वालों के लिए नयी-नयी चीज़ें ख़रीदते हैं, और नऐ-नऐ कपड़े पहनते हैं।

इसलिए जब मोमिनों की एक बड़ी संख्या उस दिन जश्न और ख़ुशियाँ मनाएगी तो यह बात यक़ीनी है कि इंसान उस घटना के कारणों और उसके रावियों को ढ़ूंढ़ता है या वह घटना जिसकी विशेषता ऐसी हो वह रावियों और शायरों (कवियों) के बारे में पता देता है और यह चीज़ कारण होती है कि उसके लिए और नयी नस्लों के लिए हर साल इस घटना की याद ताज़ा हो जाती है और फ़िर कड़ी, कड़ी से मिल जाती है, इस घटना को पढ़ा जाता है और उसकी ख़बरों को दोहराया जाता है।

सत्य (हक़) की खोज करने वालों को दो चीज़ें आकर्षित करती हैं।

पहली चीज़ः यह ईद केवल शियों से विशेष नहीं है, यह और बात है कि शियों को इस से एक ख़ास लगाव है, बल्कि मुसलमानों के दूसरे फ़िर्क़े (समुदाय) भी इस दिन शियों के साथ मिल कर ईद मनाते हैं।

इसी लिए बैरूनी ने “ अल-आसारुल बाक़िया अन क़ोरूनिल ख़ालिया” नामक किताब में ग़दीर के दिन को मुसलमानों की ईदों में से एक ईद बताया है।

और इब्ने तलहा शाफ़ेई की किताब मुतालेबुस्सवाल में हैः

ग़दीर के दिन उसने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपनी पंक्तियों में बयान किया है कि यह दिन ईद, और ख़ुशी का दिन है, इस लिए की उसी दिन रसूले इस्लाम (स.अ.) ने उन्हें यह महान पद दिया जो किसी और के लिए नहीं था। यह भी लिखा है कि मौला शब्द का जो अर्थ रसूले इस्लाम (स.अ.) के लिए है वही अर्थ हज़रत अली अलैहिस्सलाम के लिए भी है और हुज़ूर ने उसी अर्थ में हज़रत अली अलैहिस्सलाम को भी मौला बनाया है यह महान पद केवल हज़रत अली अलैहिस्सलाम से मख़सूस है किसी और से नहीं। इसी लिए आप के चाहने वालों के लिए वह दिन ईद का दिन कहा गया है।

सारे मुसलमान हज़रत अली अलैहिस्सलाम के चाहने वाले हैं, कुछ लोग पहला ख़लीफ़ा मानते हैं और कुछ चौथा मगर मानते सब हैं और मुसलमानों में कोई ऐसा नहीं है जो उनसे दुश्मनी रखता हो, कुछ गिने-चुने ख़वारिज (ख़वारिज वह लोग हैं जिन्होंने जंगे सिफ़्फ़ीन में हज़रत अली अलैहिस्सलाम का साथ छोड़ दिया) के अलावा, जो दीने इस्लाम से मुँह मोड़ चुके हैं, और गुमराह हैं।

इतिहास की किताबों से हमें इस ईद के बारे में पूरब और पश्चिम के सारे मुसलमानों का एक होना, मिस्रियों, मुग़लों, और इराक़ियों के इतिहास में इस ईद के बारे में एक विशेष ईद का पता चलता है, उस दिन उनके यहाँ जमाअत से नमाज़, महफ़िलें (जश्न) और दुआओं का प्रोग्राम होता है, जिनको दुआवों की किताबों में विस्तार से बयान किया गया है।

इब्ने ख़लकान की किताबों में कई जगह मिलता है कि इस दिन ईद मनाने पर दुनिया के सारे मुसलमान सहमत हैं, इसी लिए इब्ने मुसतंसिर के हालात में यह लिखा है कि ग़दीरे ख़ुम की ईद के दिन ही उसकी बैयत की गई और वह 18 ज़िलहिज्जा 487 हिजरी का दिन था।

मुसतंसिर बिल्लाह उबैदी के बारे मिलता है कि जब वह इस दुनिया से गया तो वह 487 हिजरी में जब 12 रातें बाक़ी रह गयी थीं जुमेरात की रात थी। वही रात ईदे ग़दीर की रात थी यानी ज़िलहिज्जा की अठ्ठराहवीं रात और वह ग़दीरे ख़ुम है। मैंने देखा कि बहुत से लोग उस रात के बारे में पूछा करते थे कि ज़िलहिज्जा की वह रात कब आएगी, यह स्थान मक्का और मदीना के बीच में है, जिसमें पानी का एक स्रोत (चशमा) है जिसके बारे में कहा जाता है कि वहाँ ज़मीन दलदल है।

जिस साल नबी-ए-अकरम (स.अ.) आख़री हज करके मक्के से वापस चले और ख़ुम के स्थान पर पहुँचे, हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपना भाई बनाया और फ़रमायाः

अली मेरे लिए ऐसे ही हैं जैसे हारून मूसा के लिए थे। ऐ ख़ुदा उसे दोस्त रख जो अली को दोस्त रखे, और उसे दुश्मन रख जो अली को दुश्मन रखे, मदद कर उसकी जो अली की मदद करे और छोड़ दे उसको जो अली को छोड़ दे।

शियों को इससे बड़ा लगाव है। हाज़मी लिखते हैः

ग़दीर मक्का और मदीना के बीच जोहफ़ा नाम की जगह के नज़दीक एक वादी है जहाँ नबी ने ख़ुतबा इरशाद फ़रमाया था यह जगह तेज़ गर्मी और ऊबड़-खाबड़ इलाक़े से मशहूर है।

वह चीज़ जिसके बारे में इब्ने ख़लकान कहते है कि शियों को इससे बड़ा लगाव है। उसके बारे में मसऊदी हदीसे ग़दीर को बयान करने के बाद कहते हैः

हज़रत अली अलैहिस्सलाम की संतान और उनके शिया उस दिन का बहुत सम्मान करते हैं।

इसी तरह सालबी भी ग़दीर की रात को उम्मत के प्रति मशहूर और मुबारक रातों में से जानते हुए लिखते हैः

यही वह रात है जिसकी सुबह को रसूले इस्लाम (स.अ.) ने ग़दीरे ख़ुम में ऊँटों के कजावों पर खड़े होकर ख़ुत्बा दिया और इरशाद फ़रमायाः

जिसका मैं मौला हूँ उसके यह अली भी मौला हैं ऐ अल्लाह जो अली को दोस्त रखे तू उसे दोस्त रख और जो अली को दुश्मन रखे तू उसे दुश्मन रख, जो अली की मदद करे तू उसकी मदद करना और जो अली को छोड़ दे तू उसे छोड़ दे। शिया इस रात का बहुत सम्मान करते हैं और उसे इबादत में गुज़ारते हैं।

और शियों के विश्वास से यही नस (नस कहते हैं उस आयत या रिवायत को जिसमें किसी तरह का कोई शक न है और वह यक़ीनी हो।) है जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ख़िलाफ़त के बारे में है, जो ग़दीर के दिन नाज़िल हुई इस अक़ीदे में अगरचे वह दूसरों से अलग है लेकिन हमेशा से इसी उम्मत का हिस्सा हैं, ग़दीर की रात केवल इसी महान काम के लिए मशहूर है जिसकी सुबह में हज़रत अली अलैहिस्सलाम को मौला बनाया गया और जिसको अल्लाह तआला ने ईद का दिन कहा है। इसी लिए ग़दीर के दिन और रात दोनों को हुस्न (यानी सुन्दरता) कहा जाता है।

तमीम बिन मअज़ अपने एक क़सीदे में कहते हैः

ग़दीर का दिन ईद का दिन है इसकी दलील यह है कि उमर, अबू बकर, और रसूले इस्लाम (स.अ.) के साथियों ने, रसूले इस्लाम (स.) के हुक्म से हज़रत अली अलैहिस्सलाम को मुबारक बाद दी। और मुबारक बाद केवल ईद और ख़ुशियों के समय ही दी जाती है।

यह ईद रसूले इस्लाम (स.अ.) के समय से चली आ रही है यानी उसको उस समय से मनाया जा रहा है। जो रसूल के आख़री हज के समय शुरू हुई। जब रसूले इस्लाम ने अपने नबी होने का ऐलान किया और सारे मुसलमानों पर उनकी महानता उजागर हो गयी तो आपने दीन के महत्वपूर्ण कामों की चार दीवारी बना दी, इस्लाम धर्म से प्यार करने वाले सारे मुसलमान बहुत ही ख़ुश थे इस लिए कि रसूले इस्लाम (स.अ.) ने शरीयत के सारे मामलों को विस्तार से बता दिया था बिल्कुल ऐसे ही जैसे सूरज दिन में प्रकट होता है ताकि फ़िर कोई इस्लाम धर्म को बदल न सके, जाहिल और अनपढ़, इस्लाम धर्म को अंधेरे में न ढ़केल सकें, इसलिए क्या इस महान दिन से बढ़ कर कोई और दिन हो सकता है? जब्कि इस दिन इस्लाम का सीधा और रौशन रास्ता ज़ाहिर हो गया, दीन और नेमतें मुकम्मल (पूर्ण) हो गयीं, और उसकी ख़ुशख़बरी क़ुर्आन ने दी, जिस दिन कोई बादशाह तख़्त पर बैठा हो उसकी याद में अगर ख़ुशियाँ मनाई जाएं, जश्न किया जाए, महफ़िल की जाए, दीप जलाए जाएँ, दावतें की जाएँ, जैसा की हर धर्म और क़ौम में होता चला आ रहा है, तो वह दिन जिस दिन इस्लाम की बादशाहत और दीन की महान विलायत का ऐलैन हुआ हो, जिसके बारे में उस इंसान ने बयान किया हो जिसने अल्लाह तआला के हुक्म के बिना कभी कोई बात ही नहीं की हो, तो उस दिन को ईद की तरह मनाना सबसे ज़्यादा अच्छा होगा, और चूँकि यह दिन, दीने इस्लाम की ईद का दिन है इसलिए इस दिन ऐसे कामों को अंजाम देना ज़रूरी है जो बन्दों को ख़ुदा से नज़दीक कर दें, जैसे नमाज़ पढ़ना, रोज़ा रखना, दुआएँ करना, इत्यादि.......

इन्हीं सब बातों के कारण हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने अपनी उम्मत के तमाम लोगों को जो वहाँ मौजूद थे जैसे अबू बकर, उमर, क़ुरैश के सरदार, अंसार के बड़े-बड़े लोग, और इसी तरह अपनी अज़वाज (पत्नियों) को हुक्म दिया कि वह सब अली अलैहिस्सलाम को दीन की बागडोर मिल जाने पर मुबारक बाद दें।

 मुबारकबाद की हदीस

इमाम मोहम्मद इब्ने जुरैर तबरी ने एक हदीस अपनी किताब “अलविलाया” में ज़ैद इब्ने अरक़म से बयान की है (जिसका अधिकतर हिस्सा हम बयान कर चुके हैं) उसी के आख़िर में है कि हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने फ़रमायाः

ऐ लोगो ! कहो कि हम दिल से आप को वचन देते हैं, ज़बानों से वादा करते हैं, और हाथों से बैयत (बैयत कहते हैं किसी के हाथ पर हाथ रख कर उसका साथ देने का वचन देना।) करते हैं कि हम इस वचन को अपनी आने वाली नस्लों तक पहुँचाएगे, और उसकी जगह किसी और को नहीं देगें, आप भी हम पर गवाह हैं और अल्लाह भी गवाही के लिए काफ़ी है, जो कुछ मैंने कहा है वह तुम सब भी कहो और अली को अमीरुल मोमनीन कह कर सलाम करो, और कहो ख़ुदा का शुक्र है कि उसने इस काम में हमें रास्ता दिखाया, और अगर वह हमारी हिदायत न करता तो हम कभी हिदायत न पाते इस लिए कि ख़ुदा हर आवाज़ और हर दिल की ख़ियानत (विश्वासघात) को जानता है बस इसके बाद जो भी अपना वचन तोड़ेगा वह ख़ुद घाटे में रहेगा और जो अल्लाह से किये हुए वचन को निभाएगा तो अल्लाह उसे अज्र (सवाब और इनाम) देगा, वह बात कहो जिससे ख़ुदा तुम से राज़ी और प्रसन्न हो और अगर तुम इंकार करोगे तो ख़ुदा तुम्हारा मोहताज नहीं है।

ज़ैद इब्ने अरक़म कहते हैं यह सुनने के बाद लोग यह कहते हुए आगे बढ़ेः

हमने सुना और अल्लाह और उसके रसूल का आज्ञापालन करेंगे, और सबसे पहले रसूले ख़ुदा और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के हाथों पर बैयत करने वाले अबू बकर, उमर, उस्मान, तलहा और ज़ुबैर थे। उनके बाद मुहाजेरीन और अंसार और फ़िर दूसरे लोगों ने बैयत की, यहाँ रसूले ख़ुदा ने ज़ुहर और अस्र की नमाज़ें एक साथ पढ़ीं (यानी इतने ज़्यादा लोग थे की बैयत करने में बहुत देर हो गयी) बैयत का सिलसिला जारी रहा और मग़रिब और इशा की नमाज़े भी एक साथ पढ़ी गयीं और इसी तरह तीन दिन तक बैयत होती रही।

और इस हदीस को अहमद इब्ने मुहम्मद तबरी ने जो ख़लील के नाम से मशहूर हैं अपनी किताब “मनाक़िबे अली इबने अबी तालिब” में जो 411 हिजरी में क़ाहेरा में लिखी गई थी, अपने उस्ताद मोहम्मद इब्ने अबी बक्र इब्ने अबदुर्रहमान से रिवायत की है जिसमें मिलता हैः लोग यह कहते हुए आपकी बैयत के लिए चलेः

हमने सुन लिया और ख़ुदा और उसके रसूल ने जो हमें हुक्म दिया है हम उसकी अपने दिल, अपनी जान, अपनी ज़बान, और अपने अंग अंग से पालन (इताअत) करते हैं, फिर सब लोग हाथ आगे बढ़ा कर हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के सामने आए, सबसे पहले अबू बकर, उमर, तलहा और ज़ुबैर ने हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम और हज़रत अली अलैहिस्सलाम की बैयत की, फिर मुहाजरीन ने और फिर दूसरे लोगों ने बैयत की यहाँ तक कि ज़ोहर और अस्र फिर मग़रिब और इशा की नमाजें पढ़ी गयीं और बैयत का यह सिलसिला तीन दिन तक जारी रहा, एक गुट के बाद जब दूसरा गुट बैयत करता था तो हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम फ़रमाते थेः

उस ख़ुदा का शुक्र जिसने हमें सारी दुनिया पर फ़ज़ीलत (वरीयता) दी।

उन दिन से बैयत सुन्नत (सुन्नतः वह काम जो नबी ने किया हो, या करने का हुक्म दिया हो, या नबी के सामने किया गया हो और नबी ने उस काम को करते हुए देखा हो और मना न किया हो।) और रस्म बन गई, और फिर ऐसे लोगों ने भी अपनी बैयत ली जो उसके लाएक़ भी नहीं थे।

और इसी तरह मिलता है किः

लोग यह कहते हुए आगे बढ़े, हाँ! हाँ! हम ने सुन लिया और ख़ुदा और उसके रसूल के हुक्म को दिल और जान से मान लिया, और दिल से उस पर ईमान ले आए हैं।

उसके बाद लोगो ने रसूल ख़ुदा (स.अ.) और हज़रत अली (अ.) के हाथों पर बैयत की, यहाँ तक कि ज़ोहर और अस्र की नमाज़ें एक साथ पढ़ी गयीं, फिर दिन के बाक़ी बचे हुए समय में भी बैयत होती रही और मग़रिब और इशा की नमाज़ें भी एक साथ पढ़ी गयीं, जब कोइ गुट रसूले ख़ुदा की बैयत के लिए आता तो आप अल्लाह से दुआ करतेः

उस ख़ुदा का शुक्र है जिसने हमें सारी दुनिया पर फ़ज़ीलत दी है।

और मौलाना वलीउल्लाह लखनवी अपनी किताब “ मेराअतुल मोमनीन ” में लिखते हैं

उसके बाद जनाब उमर ने हज़रत से मुलाक़ात की और कहाः

मुबारक हो आपको ऐ अबू तालिब के बेटे, आप मेरे और तमाम मोमिन मर्द और मोमिन औरतों के मौला हो गए।

और हर सहाबी हज़रत अली अलैहिस्सलाम से मुलाक़ात के समय आपको मुबारक बाद देता था।

इब्ने ख़ावन्द शाह हदीसे ग़दीर के बारे में लिखते हुए कहते हैं

फिर रसूले ख़ुदा (स.) अपने ख़ैमे में गये और हज़रत अली अलैहिस्सलाम को हुक्म दिया कि वह दूसरे ख़ैमे में जाएँ और तमाम लोगों को हुक्म दिया कि वह दूसरे ख़ैमे में जा कर अली को मुबारक बाद दें, जब लोग मुबारक बाद दे चुके तो रसूले ख़ुदा (स.) ने अपनी बीवियों को हुक्म दिया कि वह हज़रत अली अलैहिस्सलाम के ख़ैमे में जाएँ और अली को मुबारक बाद दें, उन लोगों ने आज्ञापालन किया, रसूले ख़ुदा (स.) के सहाबियों में सबसे पहले मुबारक बाद देने वाले जनाब उमर थे, जिनके शब्द यह थेः

मुबारक हो आप को ऐ अबू तालिब के बेटे! आप मेरे और सारे मोमिनीन और मोमिनात (यानीः मोमिन मर्द और औरतें) के मौला हो गए।

ग़ियासुद्दीन अपनी किताब हबीबुस्सैर में यूँ लिखते हैं

उसके बाद नबी के हुक्म से हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने ख़ैमे में चले गये लोग आपकी ज़ियारत के लिए आते हैं और आपको मुबारक बाद देते हैं जिन में उमर भी थे और उनके शब्द यह थेः

मुबारक हो, मुबारक हो आपको ऐ अबू तालिब के बेटे! आप मेरे और सारे मोमिनीन और मोमिनात के मौला हो गए। फिर रसूले ख़ुदा (स.अ.) ने अपनी अज़वाज (बीवियों) को हुक्म दिया कि वह हज़रत अली अलैहिस्सलाम के ख़ैमे में जाएँ और अली (अ.) को मुबारक बाद दें।

ख़ास कर जनाब अबू बकर और उमर की मुबारक बाद को इस घटना को लिखने वालों ने, मुफ़स्सेरीन, और हदीस लिखने वालों ने बयान किया है कि जिसे अंदेखा नहीं किया जा सकता है इनमें से कुछ लोगों ने उसको यक़ीनी माना है, और कुछ लोगों ने विश्वसनीय लोगों से रिवायत की है जिनका सिलसिला सहाबियों तक पहुँचता है जैसे इब्ने अब्बास, अबू हुरैरा, बर्रा इब्ने आज़िब और ज़ैद इब्ने अरक़म।

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