पुरुष, महिलाओं के अभिभावक हैं
इस दृष्टि से कि ईश्वर ने कुछ को कुछ अन्य पर वरीयता दी है और इस दृष्टि से कि पुरुष अपने माल में से महिलाओं का ख़र्च देते हैं। तो भली महिलाएं वही हैं जो पति का आज्ञापालन करने वाली तथा उसकी अनुपस्थिति में उसके रहस्यों की रक्षा करने वाली होती हैं कि ईश्वर रहस्यों की रक्षा करता है
और हे पुरुषो! तुम्हें जिन महिलाओं की अवज्ञा का भय हो उन्हें आरंभ में समझा दो, फिर उन्हें बिस्तर में अकेला छोड़ दो और यदि फिर भी उन पर प्रभाव न हो तो उन्हें मारो फिर यदि वे तुम्हारी बात मानने लगें तो उनके विरुद्ध ज़ियादती का कोई मार्ग मत खोजो। नि:संदेह ईश्वर अत्यंत महान और सबसे उच्च है। (4:34)
इस आयत से, जो पारिवारिक संबंधों और पति पत्नी के मामले में क़ुरआन की सबसे महत्वपूर्ण आयतों में से एक है, अज्ञानी धार्मिकों या अधर्मी शत्रुओं ने क़ुरआन मजीद की अनेक अन्य आयतों की भांति ग़लत लाभ उठाया है। कुछ अज्ञानी व धर्मांधी पुरुष क़ुरआन की इस आयत को उद्धरित करके स्वयं को मालिक और पत्नी को दासी के समान समझते हैं जिसे आंख बंद करके अपने पति का आज्ञा पालन करना चाहिये तथा उसकी कोई अपनी मर्ज़ी नहीं होनी चाहिये। मानो हर बात में पति का आदेश ईश्वरीय आदेश है और यदि पत्नी उसकी अवहेलना करती है तो अत्यंत कड़े दण्ड का पात्र बन जाती है।
यही ग़लत व अनुचित धारणा व व्यवहार इस बात का कारण बना है कि कुछ अज्ञानी शत्रु उपहास व तुच्छता का व्यवहार करते हुए क़ुरआन व इस्लाम पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दें तथा इस आयत को महिला अधिकारों की विरोधी बतायें जबकि उन लोगों ने इस आयत के अर्थ और व्याख्या पर ध्यान नहीं दिया है बल्कि अपनी समझ के हिसाब से इसका अर्थ निकाला है। इस आयत को पूर्ण रूप से स्पष्ट करने के लिए हम इसके दो भाग करके हर भाग के बारे में विस्तार से बतायेंगे।
आयत का पहला भाग पुरुषों को महिलाओं के मामलों की देख-भाल करने वाला बताता है। आजकल समाज शास्त्र में परिवार को समाज की सबसे पहली और मूल इकाई माना जाता है जिसका मूल महत्व होता है। हर परिवार एक स्त्री और पुरुष के बीच विवाह के समझौते से अस्तित्व में आता है और बच्चों के जन्म से उसमें विस्तार होता है। बहुत ही स्पष्ट सी बात है कि इस छोटी सी इकाई को अपने विभिन्न मामलों के संचालन के लिए एक अभिभावक की आवश्यकता है अन्यथा इसमें अराजकता फैल जायेगी। जैसा कि किसी छात्रावास में रहने वाले छात्र यदि अपने में से ही किसी को वार्डन न बना लें तो वहां की व्यवस्था भंग हो जायेगी।
इस आधार पर परिवार का काम चलाने के लिए अभिभावक के रूप में किसी का निर्धारण एक अपरिहार्य बात है और स्पष्ट सी बात है कि बच्चे अपने परिवार और माता-पिता के मामलों का संचालन नहीं कर सकते। क़ुरआन मजीद दो कारणों से पति और पत्नी के बीच पति को परिवार का अभिभावक घोषित करता है प्रथम तो यह कि पुरुष शारीरिक दृष्टि से महिलाओं से अधिक सशक्त होते हैं अत: उनमें काम काज की अधिक क्षमता होती है और दूसरे यह कि जीवन के सभी खर्चों की पूर्ति का दायित्व पुरुषों पर है जैसे आहार, वस्त्र, आवास आदि। जबकि इस्लाम की दृष्टि से महिलाओं पर जीवन के किसी ख़र्च की आपूर्ति का कोई दायित्व नहीं है। यहां तक कि यदि उसके पास कमाई का साधन हो तब भी।
दूसरे शब्दों में इस्लाम ने परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति और उसके आराम का ध्यान रखने के भारी दायित्व के बदले में परिवार के मामलों का अधिकार पुरुष को सौंपा है और इस संबंध में उसके पास उत्तरदायित्व है न कि शासन और ज़ोर ज़बरदस्ती का अधिकार और उसके उत्तरदायित्व की सीमा परिवार के मामलों के संचालन तक है न कि अपने काम कराने के लिए पत्नी को दासी बनाने और उस पर अत्याचार करने में। अत: जब भी पुरुष अपने दायित्वों का उल्लंघन करे और अपनी पत्नी का ख़र्चा न दे और पत्नी तथा बच्चों का जीना हराम कर दे तो पत्नी की इच्छा से धर्मगुरू इसमें हस्तक्षेप कर सकता है और आवश्यकता पड़ने पर वह पुरुष को अपने दायित्वों के निर्वाह के लिए प्रतिबद्ध कर सकता है। संक्षिप्त रूप से कहें कि इस बात पर ध्यान रखना चाहिये कि परिवार में पुरुष के संचालन का अधिकार कदापि पत्नी पर उसकी श्रेष्ठता के अर्थ में नहीं है बल्कि श्रेष्ठता का मानदण्ड ईमान और पवित्रता है।
आयत के दूसरे भाग में महिलाओं के दो गुटों की ओर संकेत किया गया है। प्रथम वह भलि महिलाएं जो पारिवारिक व्यवस्था के प्रति कटिबद्ध हैं और न केवल पति की उपस्थिति में बल्कि उसकी अनुपस्थिति में भी उसके व्यक्तित्व, रहस्यों और अधिकारों की रक्षा करती हैं। ऐसी महिलाएं सराहनीय हैं।
दूसरा गुट ऐसी महिलाओं का है जो दाम्पत्य जीवन के संबंध में पति का आज्ञापालन नहीं करतीं। इनके बारे में क़ुरआन कहता है कि यदि तुम्हें इनकी ओर से अवज्ञा का भय हो तो पहले उन्हें समझाओ, बुझाओ और यदि इसका प्रभाव न हो तो कुछ समय तक उनसे नाराज़ रहो और दाम्पत्य जीवन में उनकी अनदेखी और उपेक्षा करके अपनी नाराज़गी व्यक्त करो परंतु यदि पत्नी फिर भी अपने दाम्पत्य संबंधी दायित्वों का निर्वाह न करे और कड़ाई के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग न बचे तो पति को अनुमति दी गई है कि वह अपनी पत्नी को शारीरिक दंड दे। इस प्रकार से कि उसे अपनी ग़लती का आभास हो जाये।
ये तीनों चरण पत्नी द्वारा दाम्पत्य जीवन में पति के अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर है। कभी पत्नी द्वारा पति की इच्छा की अवज्ञा केवल बात की सीमा तक होती है कि ऐसे में उसे ज़बान से समझाना चाहिये। कभी पत्नी द्वारा पति की इच्छा का विरोध व्यवहारिक होता है ऐसे में पति को भी उसके साथ व्यवहारिक बर्ताव करना चाहिये तथा उसके साथ एक बिस्तर पर नहीं सोना चाहिये परंतु कभी-कभी पत्नी की अवज्ञा सीमा से बढ़ जाती है, ऐसी अवस्था में उसे शारीरिक दण्ड देना चाहिये।
स्पष्ट है कि यदि पति भी अपने दायित्वों का निर्वाह न करे तो धर्मगुरू या न्यायाधीश उस पर मुक़द्दमा चलाएगा और आवश्यक होने पर उसे दंडित भी करेगा क्योंकि पत्नी का ख़र्चा न देना एक अदालती व दीवानी मामला है और इसे न्यायालय में प्रस्तुत किया जा सकता है परंतु चूंकि पति और पत्नी के निकट संबंध गोपनीय तथा पारिवारिक हैं अत: इस्लाम इस बात को प्राथमिकता देता है कि यथासंभव उनका मामला घर में सुलझ जाये और बात घर से बाहर न जाने पाये। इसी कारण इस मामले में शिकायत रखने वाला पति आवश्यक क़दम उठा सकता है ताकि परिवार की इज़्ज़त बची रहे। अलबत्ता शारीरिक दंड, जैसाकि हमने बताया, बहुत कड़ा नहीं होना चाहिये जिससे शरीर का कोई भाग टूट-फूट जाये कि ऐसी स्थिति में पुरुष को उसका तावान देना होगा।
यदि इस्लाम के इस क़ानून पर गहन विचार करें तो हमें पता चलेगा कि इस्लाम बड़े ही अच्छे और सूक्ष्म ढंग से तथा क्रमश: परिवार को बर्बादी तथा विघटन के ख़तरे से मुक्ति दिलाता है।
इस आयत से हमने सीखा कि दो लोगों के एक समूह में भी एक व्यक्ति का उत्तरदायी के रूप में चयन होना चाहिये तथा जीवन के ख़र्चों की पूर्ति करना जिस व्यक्ति के ज़िम्मे हो उसे इसमें प्राथमिकता प्राप्त है।
पत्नी द्वारा पति का आज्ञापालन कमज़ोरी की निशानी नहीं है बल्कि यह परिवार के सम्मान और उसकी सुरक्षा के लिए है।
सूरए निसा; आयतें 35-39 (कार्यक्रम 128)
आइये सबसे पहले सूरए निसा की 35वीं आयत की तिलावत सुनें।
وَإِنْ خِفْتُمْ شِقَاقَ بَيْنِهِمَا فَابْعَثُوا حَكَمًا مِنْ أَهْلِهِ وَحَكَمًا مِنْ أَهْلِهَا إِنْ يُرِيدَا إِصْلَاحًا يُوَفِّقِ اللَّهُ بَيْنَهُمَا إِنَّ اللَّهَ كَانَ عَلِيمًا خَبِيرًا (35)
और यदि पति-पत्नी के बीच मनमुटाव के कारण तुम्हें उनके अलग होने का भय हो तो दोनों के परिजनों में से एक पंच बनाओ ताकि वे उनके मतभेदों को दूर कर सकें और जान लो कि यदि ये दोनों सुधार चाहेंगे तो ईश्वर दोनों के बीच सहमति और अनुकूलता उत्पन्न कर देगा। नि:संदेह ईश्वर जानने वाला और अवगत है। (4:35)
यह आयत पति-पत्नी के बीच उत्पन्न होने वाले मतभेदों के समाधान के लिए एक पारिवारिक न्यायालय के गठन का प्रस्ताव देते हुए कहती है। यदि पति और पत्नी के बीच मनमुटाव बढ़ जाये तो दोनों के परिवार वालों को उनके मतभेद समाप्त कराने के लिए क़दम उठाना चाहिये और तलाक़ की नौबत नहीं आने देना चाहिये तथा दोनों पक्षों के अधिकारों की रक्षा के लिए पति और पत्नी के परिवारों से एक-एक पंच को दोनों के बीच सुधार और सहमति उत्पन्न करने के लिए बैठक करनी चाहिये। दोनों पंचों को पति और पत्नी के बीच मतभेदों को दूर करने के लिए पंच के रूप में काम करना चाहिये जो कि सहमति का मार्ग है न कि वे न्यायधीश की भांति दोनों में से एक को आरोपित करें। इस्लाम के इस प्रस्ताव की कई विशेषताएं हैं।
प्रथम तो यह कि पारिवारिक समस्या का दूसरों को पता नहीं चलेगा और घर की इज़्ज़त सुरक्षित रहेगी और इसके कारण केवल दोनों पक्षों के परिजनों को ही समस्या का पता चलेगा जो सहानुभूति के साथ उनके मामले को देखेंगे।
दूसरे यह कि चूंकि दोनों पक्षों को स्वयं पति-पत्नी ने चुना है अत: वे सरलता से उनके निर्णय को स्वीकार कर लेंगे। आजकल के न्यायालयों के विपरीत जिनमें सदा एक पक्ष शिकायत करता है।
तीसरे यह कि न्यायालय सच या झूठ का निर्धारण करने या पति अथवा पत्नी में से किसी एक दंडित करने के लिए नहीं है जिससे दोनों के बीच अधिक दूरी की आशंका है बल्कि यह न्यायालय एक ऐसा मार्ग खोजने के प्रयास में रहता है जिससे दोनों के बीच सहमति उत्पन्न हो और मतभेद समाप्त हों।
इस आयत से हमने सीखा कि घर में उत्पन्न होने वाले मतभेदों और कटु घटनाओं के प्रति परिवार वाले और समाज उत्तरदायी हैं और उन्हें इसमें लापरवाही नहीं बरतना चाहिये।
परिवार में कोई कटु घटना उत्पन्न होने से पूर्व ही उससे बचने का मार्ग खोजने के लिए कार्यवाही करनी चाहिये।
पंच के चयन में पति और पत्नी के बीच कोई अंतर नहीं है। दोनों का यह अधिकार है कि वे अपने लिए पंच का चयन करें।
यदि काम में सदभावना और सुधार की मंशा हो तो ईश्वरीय सहायता भी प्राप्त होती है।
आइये अब सूरए निसा की 36वीं आयत की तिलावत सुनें।
وَاعْبُدُوا اللَّهَ وَلَا تُشْرِكُوا بِهِ شَيْئًا وَبِالْوَالِدَيْنِ إِحْسَانًا وَبِذِي الْقُرْبَى وَالْيَتَامَى وَالْمَسَاكِينِ وَالْجَارِ ذِي الْقُرْبَى وَالْجَارِ الْجُنُبِ وَالصَّاحِبِ بِالْجَنْبِ وَابْنِ السَّبِيلِ وَمَا مَلَكَتْ أَيْمَانُكُمْ إِنَّ اللَّهَ لَا يُحِبُّ مَنْ كَانَ مُخْتَالًا فَخُورًا (36)
और ईश्वर की उपासना करो और किसी को उसका शरीक न ठहराओ और माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करो और इसी प्रकार निकट परिजनों, अनाथों, मुहताजों, निकट और दूर के पड़ोसी, साथ रहने वाले, राह में रह जाने वाले यात्री और अपने दास-दासियों सबके साथ भला व्यवहार करो। नि:संदेह ईश्वर इतराने वाले और घमंडी लोगों को पसंद नहीं करता। (4:36)
पिछली आयतों में घर और परिवार के संबंध में एक ईमान वाले व्यक्ति के दायित्वों का उल्लेख करने के पश्चात ईश्वर इस और बाद की आयतों में समाज के प्रति ईमान वाले व्यक्ति की ज़िम्मेदारियों का उल्लेख करता है ताकि यह न सोच लिया जाए कि मनुष्य केवल अपनी पत्नी और बच्चों के प्रति उत्तरदायी है। एक ईमान वाले व्यक्ति को ईश्वर पर आस्था रखने और उसकी उपासना करने के अतिरिक्त अपने माता-पिता, परिजनों और इसी प्रकार मित्रों, पड़ोसियों, मातहतों और सबसे बढ़ के समाज के अनाथों और मुहताजों के प्रति दायित्व का आभास करना चाहिये और उनके साथ किसी भी प्रकार की भलाई से हिचकिचाना नहीं चाहिये।
खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज के अनेक युवा अपना दाम्पत्य जीवन आरंभ करने के पश्चात माता-पिता को भूल जाते हैं और परिवार तथा परिजनों से संबंध नहीं रखते। इस आयत में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें मनुष्य के दायित्व को एहसान अर्थात नेकी या भलाई कहा गया है जिसका अर्थ आर्थिक सहायता से कहीं व्यापक है। आर्थिक सहायता का शब्द, जिसे अरबी भाषा में इन्फ़ाक़ कहते हैं, साधारणत: ग़रीबी व दरिद्रता के लिए प्रयोग किया जाता है परंतु भलाई के लिए दरिद्रता की शर्त नहीं है बल्कि मनुष्य द्वारा किसी के लिए और किसी के भी साथ किया गया अच्छा काम भलाई कहलाता है। अत: माता-पिता से प्रेम करना, उनके साथ सबसे बड़ी भलाई है जैसा कि आयत के अंतिम भाग में माता-पिता, मित्रों और पड़ोसियों के साथ भलाई न करने वाले को घमंडी और इतराने वाला व्यक्ति कहा गया है।
इस आयत से हमने सीखा कि इस आयत में ईश्वर के अधिकार का भी वर्णन है कि जो उसकी उपासना है और ईश्वर के बंदो के भी अधिकार का उल्लेख है जो नेकी और भलाई है तथा यह इस्लाम की व्यापकता और व्यापक दृष्टि की निशानी है।
केवल नमाज़ और उपासना पर्याप्त नहीं है जीवन के मामलों में भी ईश्वर को दृष्टिगत रखना चाहिये और उसे प्रसन्न रखने के प्रयास में रहना चाहिये अन्यथा हम ईश्वर के बंदों को उसका शरीक व भागीदार बनाने के दोषी बन जायेंगे।
हमारी सृष्टि में ईश्वर के पश्चात माता-पिता की मूल भूमिका है। अत: अपने दायित्वों के निर्वाह में हमें भी ईश्वर के पश्चात उनकी मर्ज़ी प्राप्त करने और उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करना चाहिये।
मनुष्य पर उसके मित्रों, पड़ोसियों तथा मातहतों के भी अधिकार होते हैं जिनकी पूर्ति आवश्यक है।
आइये अब सूरए निसा की 37वीं आयत की तिलावत सुनें।
الَّذِينَ يَبْخَلُونَ وَيَأْمُرُونَ النَّاسَ بِالْبُخْلِ وَيَكْتُمُونَ مَا آَتَاهُمُ اللَّهُ مِنْ فَضْلِهِ وَأَعْتَدْنَا لِلْكَافِرِينَ عَذَابًا مُهِينًا (37)
घमंडी वे लोग हैं जो स्वयं भी कंजूसी करते हैं और दूसरों को भी कंजूसी का आदेश देते हैं और जो कुछ ईश्वर ने अपनी कृपा से उन्हें दिया है उसे छिपाते हैं परंतु वे जान लें कि हमने काफ़िरों के लिए अपमानजनक दंड तैयार कर रखा है। (4:37)
यह आयत कहती है कि कुछ लोग धनवान होने के बावजूद न केवल यह कि स्वयं दूसरों की आर्थिक सहायता नहीं करते बल्कि उन्हें यह भी पसंद नहीं होता कि अन्य लोग भी दरिद्रों की सहायता करें। संकीर्ण दृष्टि और कंजूसी की भावना उनमें इतनी प्रबल हो चुकी होती है कि वे स्वयं भी जीवन की संभावनाओं का सही ढंग से प्रयोग नहीं करते। उन्हें इस बात का भय होता है कि कहीं उनका अच्छा घर और साज-सज्जा देखकर वंचित लोग उनसे कुछ मांग न बैठें। यही कारण है कि वे अपना धन दूसरों से छिपाते रहते हैं। क़ुरआने मजीद इस कंजूसी को ईमान के प्रतिकूल बताते हुए ऐसे लोगों को उन काफ़िरों में बताता है जिन्हें अपमानजनक दंड भोगना होगा।
इस आयत से हमने सीखा कि कंजूसी जैसी कुछ आत्मिक बीमारियां कुछ शारीरिक रोगों की भांति संक्रामक होती हैं। कंजूस व्यक्ति दूसरों के दान दक्षिणा में भी रुकावट बनता है।
ईश्वरीय अनुकंपाओं पर कृतज्ञता जताने का एक मार्ग उन्हें प्रकट करना और उनका उपयोग करना है क्योंकि अनुकंपा को छिपाना एक प्रकार से उसके प्रति अकृतज्ञता है।
अनुकंपाओं को ईश्वरीय दया और कृपा समझना चाहिये न कि अपने प्रयासों का फल ताकि हम कन्जूसी और स्वार्थ का शिकार न हों।
आइये अब सूरए निसा की 38वीं और 39वीं आयतों की तिलावत सुनें।
وَالَّذِينَ يُنْفِقُونَ أَمْوَالَهُمْ رِئَاءَ النَّاسِ وَلَا يُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَلَا بِالْيَوْمِ الْآَخِرِ وَمَنْ يَكُنِ الشَّيْطَانُ لَهُ قَرِينًا فَسَاءَ قَرِينًا (38) وَمَاذَا عَلَيْهِمْ لَوْ آَمَنُوا بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآَخِرِ وَأَنْفَقُوا مِمَّا رَزَقَهُمُ اللَّهُ وَكَانَ اللَّهُ بِهِمْ عَلِيمًا (39)
और स्वार्थी वे लोग हैं जो या तो किसी की आर्थिक सहायता नहीं करते और यदि करते भी हैं तो दिखावे के लिए और वास्तव में ईश्वर तथा प्रलय पर ईमान नहीं रखते और जिस किसी का साथी शैतान हुआ तो वह कितना बुरा साथी है। (4:38) और क्या हो जाता यदि वे ईश्वर और प्रलय पर ईमान ले आते और जो कुछ ईश्वर ने उन्हें रोज़ी दी है उसमें से उसके मार्ग में ख़र्च करते? क्या वे नहीं जानते कि ईश्वर उनसे और उनके कामों से अवगत है। (4:39)
पिछली आयतों की पूर्ति करते हुए ये दोनों आयतें कहती हैं कि कंजूसी के कारण मनुष्य ईश्वर और प्रलय पर ईमान से हाथ धो बैठता है क्योंकि ईमान के लिए ज़कात इत्यादि देना आवश्यक है और जो भी इन अनिवार्य कार्यों को न करे वास्तव में उसने ईश्वर के आदेश को स्वीकार नहीं किया और धन को ईश्वर पर प्राथमिकता दी है। स्वाभाविक है कि ऐसे लोग दान दक्षिणा और आर्थिक सहायता नहीं करते पंरतु कभी-कभी अपने सम्मान और सामाजिक स्थिति की रक्षा के लिए सार्वजनिक लाभ के काम कर देते हैं जैसे अस्पताल का निर्माण इत्यादि परंतु चूंकि उनका लक्ष्य ईश्वर नहीं बल्कि आत्म सम्मान था अत: प्रलय में उसका कोई लाभ नहीं होगा और इससे बढ़कर क्या घाटा हो सकता है कि मनुष्य अपना माल भी दे और उसे इसका कोई फल भी न मिले और शैतान की चालें हैं जो लोगों में घुसा रहता है और क़ुरआन के शब्दों में शैतान उनका हर समय का साथी है।
इन आयतों से हमने सीखा कि दिखावे के लिए की गई आर्थिक सहायता और कंजूसी में कोई अंतर नहीं है। यद्यपि दिखावे के लिए उसके खाते में पाप भी लिखा जायेगा।
दिखावा वास्तविक ईमान के न होने की निशानी है क्योंकि दिखावा करने वाला ईश्वरीय पारितोषिक की आशा के स्थान पर लोगो की कृतज्ञता और लोगों के बदले की आशा रखता है। आर्थिक सहायता का लक्ष्य केवल भूखों का पेट भरना नहीं है क्योंकि यह लक्ष्य दिखावे से भी पूरा हो सकता है बल्कि आर्थिक सहायता का वास्तविक लक्ष्य सहायता करने वाले की आत्मिक व आध्यात्मिक प्रगति और ईश्वर से उसका सामीप्य है।
सहायता केवल धन और सम्पत्ति से नहीं होती बल्कि ईश्वर ने जो कुछ मनुष्य को दिया है चाहे वह ज्ञान हो, पद हो या सम्मान, उसे वंचितों की सहायता के मार्ग में प्रयोग करना चाहिये। {jcomments on}
सूरए निसा; आयतें 40-43 (कार्यक्रम 129)
आइये सूरए निसा की 40वीं आयत की तिलावत सुनें।
إِنَّ اللَّهَ لَا يَظْلِمُ مِثْقَالَ ذَرَّةٍ وَإِنْ تَكُ حَسَنَةً يُضَاعِفْهَا وَيُؤْتِ مِنْ لَدُنْهُ أَجْرًا عَظِيمًا (40)
निसंदेह ईश्वर कण बराबर भी अत्याचार नहीं करता और यदि अच्छा कर्म हो तो उसका बदला दो गुना कर देता है और अपनी ओर से भी बड़ा बदला देता है। (4:40)
पिछली आयतों में हमने पढ़ा कि जो कोई भी वंचितों की सहायता करने में कंजूसी करेगा और ईश्वरीय अनुकम्पाओं की अकृतज्ञता करेगा तो उसे कड़ा दंड भुगतना पड़ेगा। यह आयत कहती है कि ईश्वरीय दंड लोगों पर ईश्वर का अत्याचार नहीं है बल्कि उन्हीं के कर्मों का परिणाम है। क्योंकि अत्याचार का आधार या अज्ञानता है या मनोवैज्ञानिक समस्याएं या फिर लोभ और सत्तालोलुपता जबकि ईश्वर इस प्रकार के सभी अवगुणों से पवित्र है और अपनी रचनाओं और कृतियों पर उसके अत्याचार का कोई तर्क नहीं है। यह स्वयं मनुष्य ही है जो अपने बुरे कर्मों द्वारा अपने आप पर अत्याचार करता है।
आगे चलकर आयत कहती है ईश्वर ने तुम्हें अच्छे कर्मों और लोगों के साथ भलाई का आदेश दिया है जो कोई भी इसे स्वीकार करेगा उसे लोक-परलोक में ईश्वर भला बदला देगा और वह भी कई गुना अधिक कि जो मनुष्य को ईश्वर की विशेष कृपा की छाया में ले आयेगा। जैसाकि दूसरी आयतों में नि: स्वार्थता के साथ की गई आर्थिक सहायता या दान का बदला सात सौ गुना अधिक तक बताया गया है।
इस आयत से हमने सीखा कि सांसारिक मुसीबतों और आपदाओं को ईश्वर का अत्याचार नहीं अपुति अपनी कंजूसी और कुफ़्र का फल समझना चाहिये। हम जो बोएंगे वही काटेंगे।
बुरे कर्मों का दंड उन्हीं के समान है और ईश्वर उसमें कण भर भी वृद्धि नहीं करेगा पंरतु भले कर्मों का बदला मूल कार्य से बहुत अधिक है और ईश्वर उसमें कई गुना अधिक की वृद्धि कर देता है।
आइये अब सूरए निसा की 41वीं और 42वीं आयतों की तिलावत सुनें।
فَكَيْفَ إِذَا جِئْنَا مِنْ كُلِّ أُمَّةٍ بِشَهِيدٍ وَجِئْنَا بِكَ عَلَى هَؤُلَاءِ شَهِيدًا (41) يَوْمَئِذٍ يَوَدُّ الَّذِينَ كَفَرُوا وَعَصَوُا الرَّسُولَ لَوْ تُسَوَّى بِهِمُ الْأَرْضُ وَلَا يَكْتُمُونَ اللَّهَ حَدِيثًا (42)
(हे पैग़म्बर!) तो उन लोगों का क्या हाल होगा जिस दिन हम हर समुदाय के लिए उन्हीं में से साक्षी लाएंगे और तुम्हें उन पर साक्षी बनायेंगे। (4:41) उस दिन संसार में कुफ़्र अपनाने वाले और पैग़म्बर की अवज्ञा करने वाले कामना करेंगे कि काश वे मिट्टी में मिल जाते और उनकी कोई निशानी बाक़ी न रहती और उस दिन ईश्वर से कोई बात छिपी नहीं रहेगी। (4:42)
इस बात का उत्तम तर्क कि ईश्वर किसी पर अत्याचार नहीं करता, प्रलय के न्यायालय में अनेक गवाहों की उपस्थिति है। मनुष्य के अंगों और फरिश्तों की गवाही के अतिरिक्त हर पैग़म्बर भी अपने समुदाय के कर्मों का गवाह है तथा पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम भी अपने समुदाय के कर्मों के साक्षी हैं। अलबत्ता चूंकि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ईश्वर के सबसे बड़े पैग़म्बर हैं अत: वे अपने समुदाय के साक्षी होने के साथ-साथ अपने से पहले वाले पैग़म्बरों के भी गवाह हैं और उनकी उपस्थिति सभी कर्मों का मानदण्ड है।
प्रलय में पैग़म्बर की इसी गवाही के कारण उनका इंकार और विरोध करने वाले आशा करेंगे कि काश वे पैदा ही न हुए होते और मिट्टी ही रहते या मृत्यु के पश्चात धरती के भीतर ही रहते और उन्हें पुन: उठाया न जाता परंतु इससे क्या लाभ होगा क्योंकि प्रलय आशाओं का स्थान नहीं है। समय और अवसर बीत चुका होगा और जीवन में हमने जो कुछ बोया होगा उसके काटने का समय होगा। इतने सारे गवाहों की उपस्थिति में हमें अपने बुरे कर्मों को छिपाने का कोई मार्ग नहीं मिलेगा। अलबत्ता हमारा कोई भी काम बल्कि कोई भी बात व विचार ईश्वर से छिपा हुआ नहीं है।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वरीय पैग़म्बर लोगों के समक्ष ईश्वर का तर्क और लोगों के कर्मों के गवाह हैं। प्रलय में ईश्वर हर जाति व समुदाय के कर्मों को उसके पैग़म्बर के आदेशों की कसौटी पर परखेगा और फैसला करेगा।
ईश्वर को किसी भी गवाह की आवश्यकता नहीं है मनुष्य यदि यह जान ले कि ईश्वर के अतिरिक्त भी कुछ लोग उसे देख रहे हैं और प्रलय में उसके विरुद्ध गवाही देंगे तो यह बात स्वयं उसके नियंत्रण में प्रभावी है।
पैग़म्बर के आदेशों का उल्लंघन तथा उनकी परम्पराओं व चरित्र का अनुसरण करना ईश्वर के इंकार के समान है।
प्रलय का दिन पछतावे, अफ़सोस और काश कहने का दिन है, काश मैं मिट्टी होता और धरती से न उठाया जाता।
आइये अब सूरए निसा की 43वीं आयत की तिलावत सुनें।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا لَا تَقْرَبُوا الصَّلَاةَ وَأَنْتُمْ سُكَارَى حَتَّى تَعْلَمُوا مَا تَقُولُونَ وَلَا جُنُبًا إِلَّا عَابِرِي سَبِيلٍ حَتَّى تَغْتَسِلُوا وَإِنْ كُنْتُمْ مَرْضَى أَوْ عَلَى سَفَرٍ أَوْ جَاءَ أَحَدٌ مِنْكُمْ مِنَ الْغَائِطِ أَوْ لَامَسْتُمُ النِّسَاءَ فَلَمْ تَجِدُوا مَاءً فَتَيَمَّمُوا صَعِيدًا طَيِّبًا فَامْسَحُوا بِوُجُوهِكُمْ وَأَيْدِيكُمْ إِنَّ اللَّهَ كَانَ عَفُوًّا غَفُورًا (43)
हे ईमान वालो! नशे और मस्ती की हालत में नमाज़ के निकट न जाओ यहां तक कि तुम्हें पता रहे कि तुम क्या बोल रहे हो और नापाक व अपवित्र स्थिति में हो तो मस्जिद में न जाओ जब तक कि स्नान न कर लो सिवाए इसके कि गुज़र जाना इच्छित हो और यदि तुम बीमार हो या यात्रा में हो या तुम में से कोई शौच करके आये या तुम स्त्रियों के पास गये हो और तुम्हें पानी न मिला हो ताकि तुम स्नान या वुज़ू कर सको तो पवित्र मिट्टी पर तयम्मुम करो इस प्रकार से कि अपने चेहरे और हाथों को उससे स्पर्श करो। नि:संदेह ईश्वर अत्यंत क्षमाशील व दयावान है। (4:43)
इस आयत में, जिसमें नमाज़ के कुछ धार्मिक आदेशों का वर्णन है, आरंभ में नमाज़ की आत्मा व जान अर्थात ईश्वर पर ध्यान की बात कही गई है और फिर स्नान और तयम्मुम के आदेशों का उल्लेख किया गया है।
मूल रूप से नमाज़ और अन्य उपासनाओं का लक्ष्य मनुष्य द्वारा सदैव अपने रचयिता की ओर ध्यान रखना और उस पर भरोसा करना है। जो मनुष्य ईश्वर से दिल लगा लेता है वह संसार के सारे बंधनों से मुक्त हो जाता है और यह उसी स्थिति में संभव है जब उपासना ईश्वर की सही पहचान के साथ हो। इसी कारण हर उस बात और वस्तु को छोड़ देना चाहिये जो नमाज़ की स्थिति में मनुष्य का ध्यान बंटाती है। इस आयत में नशे और मस्ती के कारक के रूप में शराब से रोका गया है जबकि दूसरी आयतों में निंदासी अवस्था में या सुस्ती के साथ नमाज़ पढ़ने से रोका गया है।
प्रत्येक दशा में नमाज़ पढ़ते समय मनुष्य को यह ज्ञात होना चाहिये कि वह किसके समक्ष खड़ा है, क्या बोल रहा है और क्या मांग रहा है परंतु नमाज़ में मनुष्य की आत्मा के पूर्णरूप से ईश्वर पर ध्यान दिये जाने के अतिरिक्त मनुष्य का शरीर भी हर प्रकार की गंदगी से पवित्र होना चाहिये। इसी कारण जो भी व्यक्ति संभोग के कारण एक प्रकार की गंदगी में ग्रस्त हो जाता है उसे न केवल नमाज़ के निकट जाने का अधिकार नहीं है बल्कि वह नमाज़ के स्थान अर्थात मस्जिद में जाने और वहां रुकने का भी अधिकार नहीं रखता बल्कि वह केवल मस्जिद के एक द्वार से प्रवेश करके दूसरे द्वार से बाहर निकल सकता है।
चूंकि स्नान के लिए पवित्र व स्वच्छ जल की आवश्यकता होती है और संभवत: यात्रा में पानी न मिले या मनुष्य बीमार हो और उसके लिए स्नान करना हानिकारक हो अत: ईश्वर ने मिट्टी को पानी विकल्प बनाया है ताकि मनुष्य उस पर अपने हाथों और चेहरे का स्पर्श करके नमाज़ पढ़ सके। अलबत्ता यह मिट्टी पवित्र होनी चाहिये न अपवित्र।
इस आयत से हमने सीखा कि नमाज़ केवल शब्दों और शरीर के हिलने का नाम नहीं है। नमाज़ केवल कुछ शब्दों को दोहराने और बैठने को नहीं कहते। नमाज़ की आत्मा, ईश्वर पर ध्यान रखना है जिसके लिए चेतना की आवश्यकता होती है।
मस्जिद और उपासना स्थल पवित्र स्थान हैं अत: अपवित्र हालत में उसमें नहीं जाना चाहिये।
शरीर तथा आत्मा की पवित्रता, ईश्वर के समक्ष जाने और उससे बात की भूमिका है। यात्रा अथवा बीमारी में नमाज़ का आदेश समाप्त नहीं होता हां स्थितियों के परिवर्तन के दृष्टिगत उसके आदेशों में कुछ छूट अवश्य दी गई है। {jcomments on}
सूरए निसा; आयतें 44-47 (कार्यक्रम 130)
आइये पहले सूरए निसा की 44वीं और 45वीं आयतों की तिलावत सुनें।
أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ أُوتُوا نَصِيبًا مِنَ الْكِتَابِ يَشْتَرُونَ الضَّلَالَةَ وَيُرِيدُونَ أَنْ تَضِلُّوا السَّبِيلَ (44) وَاللَّهُ أَعْلَمُ بِأَعْدَائِكُمْ وَكَفَى بِاللَّهِ وَلِيًّا وَكَفَى بِاللَّهِ نَصِيرًا (45)
क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिन्हें ईश्वरीय किताब का कुछ भाग दिया गया है, वे भथभ्रष्ठता मोल लेना चाहते हैं और तुम्हें भी पथभ्रष्ठ करना चाहते हैं। (4:44) (परंतु) जान लो कि ईश्वर तुम्हारे शत्रुओं को भली-भांति जानता है तथा ईश्वर की अभिभावकता और उसकी सहायता तुम्हारे लिए पर्याप्त है। (4:45)
ये आयतें यहूदी जाति के विद्वानों के बारे में हैं जो इस्लाम के उदय के समय मदीने में थे परंतु उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम व क़ुरआन पर सबसे पहले ईमान लाने के स्थान पर आरंभ से ही विरोध और शत्रुता का मार्ग अपनाया और मक्के के अनेकिश्वरवादियों तक से सांठ गांठ कर ली। ये आयतें याद दिलाती हैं कि ईश्वरीय किताब के ज्ञानी यद्यपि ईश्वर के कथनों से परिचित थे पंरतु उन्होंने उन कथनों को अपने और अन्य लोगों के मार्गदर्शन तथा कल्याण का साधन नहीं बनाया बल्कि दूसरों को पथभ्रष्ठ करने और उनके ईमान में बाधा डालने का प्रयास करने लगे। इसके पश्चात ईश्वर मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहता है कि तुम लोग उनकी शत्रुता से मत डरो क्योंकि वे ईश्वर की शक्ति और उसके शासन से बाहर नहीं हैं और तुम्हें भी ईश्वरीय सहायता प्राप्त है।
इन आयतों से हमने सीखा कि केवल ईश्वरीय किताब और ईश्वरीय आदेशों की पहचान कल्याण का साधन नहीं है। ऐसे कितने धार्मिक विद्वान हैं जो स्वयं भी पथभ्रष्ठ हैं और दूसरों को पथभ्रष्ठ करते हैं। कल्याण के लिए पवित्र आत्मा और सत्य की खोज में रहने की भावना की आवश्यकता होती है।
इस्लामी समाज के वास्तविक शत्रु धर्म और जनता के विचारों के शत्रु हैं चाहे वह भीतर हों या बाहर।
उन्हीं लोगों को ईश्वरीय सहायता प्राप्त होती है जो ईश्वर की शक्ति में आस्था रखते हैं अपनी व दूसरों की सांसारिक शक्ति पर भरोसा करने वालों को ईश्वरीय सहायता नहीं मिलती।
आइये अब सूरए निसा की 46वीं आयत की तिलावत सुनें।
مِنَ الَّذِينَ هَادُوا يُحَرِّفُونَ الْكَلِمَ عَنْ مَوَاضِعِهِ وَيَقُولُونَ سَمِعْنَا وَعَصَيْنَا وَاسْمَعْ غَيْرَ مُسْمَعٍ وَرَاعِنَا لَيًّا بِأَلْسِنَتِهِمْ وَطَعْنًا فِي الدِّينِ وَلَوْ أَنَّهُمْ قَالُوا سَمِعْنَا وَأَطَعْنَا وَاسْمَعْ وَانْظُرْنَا لَكَانَ خَيْرًا لَهُمْ وَأَقْوَمَ وَلَكِنْ لَعَنَهُمُ اللَّهُ بِكُفْرِهِمْ فَلَا يُؤْمِنُونَ إِلَّا قَلِيلًا (46)
यहूदियों में वे लोग भी हैं जो ईश्वरीय कथनों में फेर-बदल कर देते हैं और हमने सुना तथा अनुसरण किया कहने के स्थान पर कहते हैं हमने सुना और अवज्ञा की। वे अनादर के साथ पैग़म्बर से कहते हैं सुनो कि तुम्हारी बात कदापि न सुनी जाये और हमारी ओर ध्यान दो। ये सब ज़बान तोड़-मरोड़ कर ईश्वर के धर्म पर चोट करते हुए कहते हैं और यदि वे कहते कि हमने सुना और अनुसरण किया तथा आप भी सुनिये और हमें भी समय दीजिये ताकि हम वास्तविकताओं को बेहतर ढंग से समझ सकें तो यह उनके लिए बेहतर और सही बात के समीप होता परंतु ईश्वर ने उनके कुफ़्र के कारण उन पर लानत की है तो वे ईमान नहीं लाएंगे सिवाए थोड़े से लोगों के। (4:46)
इस्लाम के विरोधियों की एक बुरी पद्धति उपहास व हीन समझने की थी। इस आयत में उनमें से कुछ की ओर संकेत किया गया है। स्पष्ट है कि जो लोग इन पद्धतियों का प्रयोग करते हैं उनमें इस्लाम के तर्क का मुक़ाबला करने की क्षमता नहीं है और वे केवल अपने द्वेष को प्रकट करना चाहते हैं जैसाकि इस आयत में कहा गया है कि कुछ यहूदी अनुचित शब्दों का प्रयोग करके तथा तान देते हुए पैग़म्बरे इस्लाम से कहते थे। आप कहते रहिये परंतु हम नहीं सुनेंगे। हम कहते रहें आप भी न सुनें क्योंकि जो कुछ आप कहते हैं वह हमें मूर्ख बनाने के लिए है अत: हम उसे नहीं मानेंगे।
वे बहुअर्थीय शब्दों का भी प्रयोग करते थे। जब कभी पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम लोगों को ईश्वरीय कथन सुनाते थे तो वे कहते थे हे पैग़म्बर राएना अर्थात हमें थोड़ा समय दीजिये ताकि हम आपकी बातों को भली-भांति सुनकर याद रख सकें परंतु यहूदी यह शब्द पैग़म्बर के लिए प्रयोग करते थे जिसका दूसरा अर्थ मूर्ख या चरवाहा है।
इसी कारण ईश्वर उन्हें और अन्य मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहता है हे पैग़म्बर राएना के स्थान पर उन्ज़ुरना शब्द का प्रयोग करो जिसका अर्थ समय देना है तथा इसका कोई दूसरा बुरा अर्थ भी नहीं है।
इस आयत से हमने सीखा कि अपने विरोधियों के साथ व्यवहार में भी न्याय करना चाहिये। यह आयत सभी यहूदियों को बुरा भला नहीं कहती बल्कि कहती है कुछ यहूदी ऐसा करते हैं। इसलिए कुछ लोगों के पाप को सभी के सिर नहीं मढ़ा जा सकता।
धार्मिक पवित्रताओं का अनादर ठीक नहीं है चाहे वह धर्मगुरूओं का अनादर हो या धार्मिक आदेश का।
मनुष्य की भलाई और उसका कल्याण, पैग़म्बरों के निमंत्रण को स्वीकार करने और धार्मिक आदेशों के पालन में है।
आइये अब सूरए निसा की 47वीं आयत की तिलावत सुनें।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ آَمِنُوا بِمَا نَزَّلْنَا مُصَدِّقًا لِمَا مَعَكُمْ مِنْ قَبْلِ أَنْ نَطْمِسَ وُجُوهًا فَنَرُدَّهَا عَلَى أَدْبَارِهَا أَوْ نَلْعَنَهُمْ كَمَا لَعَنَّا أَصْحَابَ السَّبْتِ وَكَانَ أَمْرُ اللَّهِ مَفْعُولًا (47)
हे आसमानी किताब दिये जाने वाले लोगो! उस चीज़ पर ईमान ले आओ जिसे हमने (पैग़म्बरे इस्लाम पर) उतारा है और जो तुम्हारी किताबों की भी पुष्टि करने वाला है इससे पूर्व कि हम चेहरों को बिगाड़ कर उन्हें पीछे की ओर फेर दें या उन पर इस प्रकार लानत भेजें जिस प्रकार हमने असहाबे सब्त अर्थात शनिवार वालों पर लानत भेजी है और ईश्वर का आदेश तो होकर ही रहेगा। (4:47)
पिछली आयतों में आसमानी किताब वालों विशेषकर यहूदियों को संबोधित करने के पश्चात ईश्वर इस आयत में उनसे कहता है तुम लोग जो आसमानी किताब से अवगत हो, इस्लाम स्वीकार करने के लिए अधिक उपयुक्त हो और वह भी ऐसा इस्लाम जिसकी किताब तुम्हारी किताब से समन्वित और ईश्वर की ओर से है। इसके पश्चात ईश्वर एक महत्वपूर्ण सिद्धांत की ओर संकेत करते हुए कहता है जब तुम हठ और द्वेष के चलते वास्तविकता का इंकार करते हो और उसका मज़ाक उड़ाते हो तो तुम उसकी प्रवृत्ति तथा अपने विचारों को बदल देते हो और धीरे-2 तुम्हारा मानवीय चेहरा मिट जाता है।
चूंकि मनुष्य की इंद्रियां और उसके अधिकतर संवेदनशील अंग उसके चेहरे तथा सिर में होते हैं, इसी कारण क़ुरआने मजीद ने वास्तविकताओं को समझने और उन्हें प्राप्त करने से मनुष्य की वंचितता को उसका चेहरा बिगड़ने और मिटने के समान बताया है कि जो पथभ्रष्ठता और पतन की ओर पलटने के अर्थ में है। जी हां जब ज़बान धर्म की वास्तविकता को मानने से इंकार कर दे तो आंख, कान और मस्तिष्क भी पथभ्रष्ठ होकर वास्तविकता को उल्टा देखने लगते हैं ठीक उस आंख की भांति जो काले चश्मे के पीछे से दिन को भी अंधकारमय देखती है।
यह आयत इसी प्रकार कुछ यहूदियों द्वारा शनिवार को मछली का शिकार न करने के ईश्वरीय आदेश के उल्लंघन की ओर संकेत करते हुए कहती है" जिस प्रकार वे लोग ईश्वरीय आदेश का उपहास करने के कारण सांसारिक दंड में ग्रस्त और रूप तथा चरित्र में बंदर समान हो गये उसी प्रकार तुम लोग भी क़ुरआन की आयतों की उपहास के कारण अपमानित और तबाह हो जाओगे।
इस आयत से हमने सीखा कि दूसरों को इस्लाम का निमंत्रण देते समय हमें उनकी भलाइयों और विशेषताओं को भी स्वीकार करना चाहिये तथा उनकी पुष्टि करनी चाहिये।
सभी धर्मों के मूल सिद्धांत तथा पैग़म्बरों की शिक्षाएं और कार्यक्रम समन्वित व एक दिशा में हैं।
इस्लाम अन्य एकेश्वरवादी धर्मों के अनुयाइयों को ईमान में प्रगति और इस्लाम स्वीकार करने का निमंत्रण देता है।
संसार में ईश्वरीय कोप का एक कारण धार्मिक वास्तविकताओं का परिहास करना है।
सूरए निसा; आयतें 48-52 (कार्यक्रम 131)
आइये पहले सूरए निसा की 48वीं आयत की तिलावत सुनें।
إِنَّ اللَّهَ لَا يَغْفِرُ أَنْ يُشْرَكَ بِهِ وَيَغْفِرُ مَا دُونَ ذَلِكَ لِمَنْ يَشَاءُ وَمَنْ يُشْرِكْ بِاللَّهِ فَقَدِ افْتَرَى إِثْمًا عَظِيمًا (48)
नि:संदेह ईश्वर अपने साथ किसी को समकक्ष या शरीक ठहराये जाने को क्षमा नहीं करेगा पंरतु इसके अतिरिक्त जो पाप होगा उसे जिसे वह चाहेगा उसके लिए क्षमा कर देगा और जिसने भी किसी को ईश्वर का भागीदार ठहराया निश्चित रूप से उसने बहुत बड़ा पाप किया। (4:48)
पिछली आयतों में यहूदियों और ईसाइयों जैसे आसमानी किताब वालों को संबोधित करने के पश्चात इस आयत में ईश्वर उन्हें और इसी प्रकार मुसलमानों को हर प्रकार के ऐसे विचार और कर्म से रोकता है जिसका परिणाम किसी को ईश्वर का शरीक ठहराना और एकेश्वरवाद से दूरी हो।
आयत कहती है कि यद्यपि ईश्वर अत्यंत क्षमाशील और दयावान है पंरतु किसी को उसके समकक्ष ठहराने का पाप क्षमा योग्य नहीं है क्योंकि यह ईमान के आधार को ढ़ा देता है।
अलबत्ता इस आयत में ईश्वरीय क्षमा का तात्पर्य बिना तौबा के पापों को क्षमा करना है। अर्थात ईश्वर जिस किसी को उपयुक्त समझेगा उसके अन्य पापों को क्षमा कर देगा चाहे उसने तौबा न की हो परंतु ईश्वर के समकक्ष ठहराने का पाप ऐसा नहीं है और जब तक इसका पापी तौबा न कर सके और ईमान न लाए उसे ईश्वरीय क्षमा प्राप्त नहीं हो सकती। पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों के कथनों में आया है कि यह आयत ईमान वालों के लिए क़ुरआन की सबसे आशादायी आयत है क्योंकि इसके कारण पापी लोग चाहे उनका पाप कितना ही बड़ा क्यों न हो ईश्वरीय दया की ओर से निराश नहीं होते बल्कि इस आयत से उन्हें ईश्वरीय क्षमा की आशा मिलती है।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर के समकक्ष ठहराने का पाप ईश्वरीय दया में बाधा बनता है और उसका पापी स्वयं को ईश्वरीय दया से वंचित कर लेता है।
सबसे बड़ा झूठ किसी भी रूप में किसी को ईश्वर का समकक्ष ठहराना है।
आइये अब सूरए निसा 49वीं और 50वीं आयतों की तिलावत सुनें।
أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ يُزَكُّونَ أَنْفُسَهُمْ بَلِ اللَّهُ يُزَكِّي مَنْ يَشَاءُ وَلَا يُظْلَمُونَ فَتِيلًا (49) انْظُرْ كَيْفَ يَفْتَرُونَ عَلَى اللَّهِ الْكَذِبَ وَكَفَى بِهِ إِثْمًا مُبِينًا (50)
क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जो अपनी पवित्रता का दम भरते हैं बल्कि ईश्वर ही जिसे चाहता है पवित्रता प्रदान करता है और उन पर बाल बराबर भी अत्याचार नहीं होगा। (4:49) देखो कि वे लोग किस प्रकार ईश्वर पर झूठ बांधते हैं और यही उनके खुले पाप के लिए काफ़ी है। (4:50)
यह आयत भी ईश्वरीय किताब रखने वालों तथा मुसलमानों को हर प्रकार की विशिष्टता और श्रेष्ठता प्राप्ति से रोकते हुए कहती है क्यों तुम दूसरे को दोषी और स्वयं को पवित्र व भला कहते हो?
क्यों तुम सदैव अपने आपकी सराहना करते हो और स्वयं को हर बुराई से पवित्र मानते हो? जबकि यह तो ईश्वर है जो तुम्हारे अंदर की बातों को जानता है और उसे पता है कि तुम में से कौन सराहना के योग्य है। वही तो लोगों के कर्मो के आधार पर उन्हें बुराइयों से पवित्र करता है। दूसरे शब्दों में वास्तविक श्रेष्ठता वह है जिसे ईश्वर श्रेष्ठता माने न वह कि जिसे घमंडी और स्वार्थी लोग अपनी उत्कृष्टता का कारण मानते हैं। यहां तक कि वे इसे ईश्वर से संबंधित कर देते हैं कि जो स्वयं बहुत बड़ा झूठ है।
उपासना के कारण धर्म का पालन करने वाले कुछ लोगों में जो घमंड पैदा हो जाता है वह ईश्वरीय धर्म वालों के लिए एक बड़ा ख़तरा है क्योंकि अन्य धर्मों से इस्लाम के श्रेष्ठ होने का अर्थ हर मुसलमान का अन्य लोगों से श्रेष्ठ होना नहीं है। इसी कारण इस आयत और कई अन्य आयतों में धार्मिक अंह या घमंड की बात करते हुए ईमान वालों को सचेत किया गया है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने एक भाषण में कहते हैं ईश्वर से सच्चे अर्थों में भय रखने वाले वे लोग हैं कि जब कभी उनकी सराहना की जाती है तो वे भयभीत हो जाते हैं। वे न केवल यह कि स्वयं अपनी सराहना नहीं करते बल्कि यदि दूसरे उनको सराहते हैं तो वे घमंड में फंसने से भयभीत हो जाते हैं।
इन आयतों से हमने सीखा कि मज़ा तो इसमें है कि मनुष्य ईश्वर की सराहना करे न यह कि मनुष्य अपने मुंह मियां मिट्ठू बने।
अपनी सराहना की भावना घमंडी और अहंकारी आत्मा की भावना है और यह ईश्वर की बंदगी की भावना से मेल नहीं खाती।
ईश्वर से स्वयं के सामीप्य का दावा ईश्वर पर सबसे बड़ा झूठ है और इसका कड़ा दंड होगा।
आइये अब सूरए निसा की 51वीं और 52वीं आयतों की तिलावत सुनें।
أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ أُوتُوا نَصِيبًا مِنَ الْكِتَابِ يُؤْمِنُونَ بِالْجِبْتِ وَالطَّاغُوتِ وَيَقُولُونَ لِلَّذِينَ كَفَرُوا هَؤُلَاءِ أَهْدَى مِنَ الَّذِينَ آَمَنُوا سَبِيلًا (51) أُولَئِكَ الَّذِينَ لَعَنَهُمُ اللَّهُ وَمَنْ يَلْعَنِ اللَّهُ فَلَنْ تَجِدَ لَهُ نَصِيرًا (52)
क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जिन्हें ईश्वरीय किताब के ज्ञान का कुछ भाग दिया गया था, कि किस प्रकार वे मूर्तियों और मूर्तिपूजा करने वालों पर ईमान लाये और काफ़िरों के बारे में कहने लगे कि ये लोग इस्लाम लाने वालों से अधिक मार्गदर्शित हैं। (4:51) यही वे लोग हैं जिन पर इस्लाम ने लानत (धिक्कार) की है और जिस पर भी ईश्वर लानत करे उसके लिए तुम्हें कदापि कोई सहायक नहीं मिलेगा। (4:52)
जैसा कि इस्लामी इतिहास में वर्णित है कि ओहोद के युद्ध के पश्चात मदीने के यहूदियों का एक गुट मक्के के अनेकेश्वरवादियों के पास गया ताकि मुसलमानों के विरुद्ध उनसे सहयोग करे। उस गुट ने अनेकेश्वरवादियों को प्रसन्न करने के लिए उनकी मूर्तियों के समक्ष सज्दा किया और कहा कि तुम्हारी मूर्तिपूजा मुसलमानों के ईमान से बेहतर है।
यद्यपि यहूदियों ने पैग़म्बरे इस्लाम से समझौता किया था कि वे मुसलमानों के विरुद्ध कोई षड्यंत्र नहीं करेंगे परंतु उन्होंने अपने इस समझौते को तोड़ दिया और मुसलमानों के विरुद्ध क़ुरैश के सरदारों के साथ हो गये। यह बात अपने ग़लत उद्देश्यों की पूर्ति के लिए यहूदियों की षड्यंत्रकारी प्रवृत्ति को दर्शाती है। यद्यपि उन्हें आसमानी किताब का ज्ञान था परंतु उन्होंने अनेकेश्वरवादियों के भ्रष्ठ विश्वासों को इस्लाम पर वरीयता दी, यहां तक कि वे अनेकेश्वरवादियों की सहायता करके इस्लाम के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भी तैयार हो गये। यही बड़ा पाप ईश्वर द्वारा उन पर लानत व धिक्कार और उनके ईश्वरीय दया से दूर होने का कारण बना।
इन आयतों से हमने सीखा कि यहूदी इस्लाम का मुक़ाबला करने के लिए अधर्मी काफ़िरों से भी समझौता कर सकते हैं। अत: हमें उनके प्रति सचेत रहना चाहिये।
द्वेष व शत्रुता की भावना मनुष्य की आंख, कान और ज़बान को सत्य देखने, सुनने और कहने से रोकती है। जो लोग इस्लाम का विरोध करते हैं वह इस कारण नहीं है कि इस्लाम बुरा है नहीं बल्कि इस कारण है कि इस्लाम उनके सांसारिक हितों की पूर्ति में बाधा है।
मनुष्य का वास्तविक सहायक, ईश्वर है और जो कोई अपने कर्मों द्वारा ईश्वरीय दया को स्वयं से दूर कर लेता है, वह वास्तव में अपने सहायक को दूर कर लेता है। {jcomments on}
सूरए निसा; आयतें 53-57 (कार्यक्रम 132)
आइये पहले सूरए निसा की 53वीं, 54वीं और 55वीं आयतों की तिलावतों की सुनें।
أَمْ لَهُمْ نَصِيبٌ مِنَ الْمُلْكِ فَإِذًا لَا يُؤْتُونَ النَّاسَ نَقِيرًا (53) أَمْ يَحْسُدُونَ النَّاسَ عَلَى مَا آَتَاهُمُ اللَّهُ مِنْ فَضْلِهِ فَقَدْ آَتَيْنَا آَلَ إِبْرَاهِيمَ الْكِتَابَ وَالْحِكْمَةَ وَآَتَيْنَاهُمْ مُلْكًا عَظِيمًا (54) فَمِنْهُمْ مَنْ آَمَنَ بِهِ وَمِنْهُمْ مَنْ صَدَّ عَنْهُ وَكَفَى بِجَهَنَّمَ سَعِيرًا (55)
क्या यहूदियों का यह विचार है कि उन्हें सत्ता में भाग प्राप्त हो जायेगा कि यदि ऐसा हुआ तो वे किसी को थोड़ा सा भी नहीं देंगे। (4:53) या यह कि वे मुसलमानों से जो कुछ ईश्वर ने उन्हें अपनी कृपा से दिया है, उसके कारण ईर्ष्या करते हैं। नि:संदेह हमने इब्राहिम के परिवार को किताब व तत्वदर्शिता दी है और उन्हें महान सत्ता प्रदान की है। (4:54) तो उनमें से कुछ ऐसे थे जो ईमान लाये और कुछ अन्य न केवल यह कि ईमान नहीं लाए बल्कि दूसरों के ईमान लाने में बाधा बने और उनके दंड के लिए नरक की धधकती हुई ज्वालाएं काफ़ी हैं। (4:55)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि यहूदियों ने मदीने के मुसलमानों पर विजय प्राप्त करने के लिए मक्के के अनेकेश्वरवादियों से सहायता चाही और उनके साथ सांठ गांठ के लिए तैयार हो गये। ये आयतें उन्हें संबोधित करते हुए कहती हैं क्या तुम लोग सत्ता और शासन प्राप्त करने की आशा में यह काम कर रहे हो जबकि तुम में इस पद और स्थान की योग्यता नहीं है क्योंकि विशिष्टता, प्रेम और सत्तालोलुपता की भावना तुममें इतनी अधिक है कि यदि तुम्हें सत्ता और शासन प्राप्त हो जाये तो तुम किसी को कोई अधिकार नहीं दोगे और सारी विशिष्टताएं केवल अपने लिए रखोगे।
इसके अतिरिक्त तुम मुसलमानों के शासन को क्यों सहन नहीं कर सकते और उनसे ईर्ष्या करते हो? क्या ईश्वर ने इससे पहले के पैग़म्बरों को, जो हज़रत इब्राहिम के वंश से थे, शासन नहीं दिया है जो यह तुम्हारे लिए अचरज की बात है? क्या ईश्वर हज़रत मूसा, सुलैमान और दावूद को आसमानी किताब और शासन नहीं दे चुका है जो तुम आज पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और मुसलमानों को आसमानी किताब और शासन मिलने के कारण उनसे ईर्ष्या करते हो? यहां तक कि ग़लत फ़ैसला करके अनेकेश्वरवादियों को मुसलमानों से बेहतर बताते हो?
इसके पश्चात क़ुरआन मजीद मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहता है। यह बात दृष्टिगत रहे कि उस समय के लोगों में भी कुछ ईमान लाये और कुछ ने विरोध किया। तो तुम भी इस बात से निराश मत हो कि यहूदी इस्लाम नहीं लाते और ईर्ष्या करते हैं और जान लो कि अतीत में भी ऐसा होता रहा है।
इन आयतों से हमने सीखा कि हमें अपने शत्रु को पहचानना और अपनी धार्मिक स्थिति को सुदृढ़ व सुरक्षित रखना चाहिये। यदि वे सत्ता में आ गये तो हमें अनदेखा कर देंगे।
कंजूसी, संकीर्ण दृष्टि और अन्यायपूर्ण फ़ैसले, भौतिकवाद और सत्तालोलुपता की निशानियां हैं।
दूसरों के पास जो कुछ है वह ईश्वर की कृपा से है और जो कोई ईर्ष्या करता है वो वास्तव में ईश्वर की इच्छा पर आपत्ति करता है दूसरों की अनुकम्पाओं की समाप्ति की कामना करने के बजाये ईश्वर की दया व कृपा की आशा रखनी चाहिये।
सभी लोगों द्वारा ईमान लाने की आशा एक ग़लत आशा है। ईश्वर ने लोगों को मार्ग के चयन में स्वतंत्र रखा है।
आइये अब सूरए निसा की 56वीं आयत की तिलावत सुनें।
إِنَّ الَّذِينَ كَفَرُوا بِآَيَاتِنَا سَوْفَ نُصْلِيهِمْ نَارًا كُلَّمَا نَضِجَتْ جُلُودُهُمْ بَدَّلْنَاهُمْ جُلُودًا غَيْرَهَا لِيَذُوقُوا الْعَذَابَ إِنَّ اللَّهَ كَانَ عَزِيزًا حَكِيمًا (56)
निसंदेह जिन लोगों ने हमारी निशानियों का इंकार किया हम शीघ्र ही उन्हें नरक में डाल देंगे जहां उनकी जितनी खाल जलेगी उसके स्थान पर हम दूसरी खाल ले आयेंगे ताकि वे कड़े दंड का स्वाद चख सकें। निसंदेह ईश्वर प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है। (4:56)
पिछली आयतों के पश्चात कि जो पैग़म्बरों और उनकी ईश्वरीय शिक्षाओं के प्रति कुछ लोगों के द्वेष व हठ को स्पष्ट करती थीं यह आयत प्रलय में उनको मिलने वाले कड़े दंड की ओर संकेत करती है जो उनके कर्मो के अनुकूल होंगे क्योंकि जो कोई जीवन भर सच के सामने डटा रहा और हर क्षण अपने द्वेष व शत्रुता में वृद्धि करता रहा वह स्थाई दंड पाने के योग्य है। इसी कारण यह आयत कहती है कि अवज्ञाकारी और पथभ्रष्ठ यह न सोचें कि प्रलय में एक बार दंडित किये जाने के पश्चात उन्हें दंड नहीं दिया जायेगा, नहीं बल्कि उन्हें निरंतर दंड दिया जाता रहेगा और उनकी जली हुई खाल नई खाल में परिवर्तित हो जायेगी और उन्हें नया दर्द तथा नया दंड मिलता रहेगा।
इस आयत से हमने सीखा कि प्रलय में दण्ड की निरंतरता उसकी पीड़ा में कमी का कारण नहीं बनेगी।
प्रलय आत्मिक नहीं शारीरिक होगा अर्थात केवल लोगों की आत्मा नहीं बल्कि उनके शरीर व खाल पर दंड दिया जायेगा।
ईश्वरीय दंड हमारे कर्मों के आधार पर हैं न यह कि ईश्वर अपने बंदों पर अत्याचार करता है क्योंकि वह तत्वदर्शी है और तत्वदर्शिता के आधार पर अपने बंदों के साथ व्यवहार करता है।
आइये अब सूरए निसा 57वीं आयत की तिलावत सुनें।
وَالَّذِينَ آَمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ سَنُدْخِلُهُمْ جَنَّاتٍ تَجْرِي مِنْ تَحْتِهَا الْأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا أَبَدًا لَهُمْ فِيهَا أَزْوَاجٌ مُطَهَّرَةٌ وَنُدْخِلُهُمْ ظِلًّا ظَلِيلًا (57)
और जो लोग ईमान लाए और भले कर्म करते रहे हम शीघ्र ही उन्हें ऐसे बाग़ों में प्रविष्ट कर देंगे जिनके नीचे से नहरें बह रही होंगी, जहां वे सदैव रहेंगे वहां उनके लिए पवित्र पत्नियां होंगी और हम उन्हें स्थायी छाया वाले स्वर्ग में प्रविष्ट कर देंगे। (4:57)
प्रलय में काफ़िरों को मिलने वाले कड़े दंड का उल्लेख करने के पश्चात इस आयत में ईश्वर ईमान वालों को मिलने वाले महान पारितोषिक की ओर संकेत करते हुए कहता है कि यदि ईश्वर पर ईमान और आस्था के साथ ही भले कर्म किये गये तो प्रलय मंए ऐसे लोगों को बहुत अच्छा स्थान प्राप्त होगा और ईश्वर ने उनके लिए घने पड़ों वाले स्वर्ग को तैयार कर रखा है जिनकी छाया स्थायी होगी।
वे प्रलय में अकेले नहीं होंगे बल्कि पवित्र पत्नियां उनके साथ होंगी ताकि वे पूर्ण रूप से प्रसन्न रह सकें। ये ऐसे लोग होंगे जिन्होंने संसार में अनेक आनंदों को छोड़ दिया होगा और अपवित्र वस्तुओं तथा बातों को स्वयं के लिए वर्जित कर दिया होगा।
इस आयत से हमने सीखा कि यद्यपि मनुष्य मार्ग के चयन में स्वतंत्र है परंतु कर्मों के परिणाम स्वाभाविक हैं न कि चयनित। कुफ़्र का परिणाम दंड होगा तथा ईमान का परिणाम शांति व सुरक्षा।
पवित्रता हर स्त्री व पुरुष के लिए एक मान्यता है। इसी कारण ईश्वर ने स्वर्ग की पत्नियों के वर्णन में उनके लिए सुन्दरता के स्थान पर पवित्रता पर बल दिया है।