इस्लाम का मक़सद अल्लामा इक़बाल के कलम से
इक फ़क़्र सिखाता है सय्याद को नख़्चीरी
इक फ़क़्र से खुलते हैं असरार-ए-जहाँगीरी
इक फ़क़्र से क़ौमों में मिस्कीनी-ओ-दिलगीरी
इक फ़क़्र से मिटटी में खासीयत-ए-अक्सीरी
इक फ़क़्र है शब्बीरी इस फ़क़्र में है मीरी
मीरास-ए-मुसलमानी सरमाया-ए-शब्बीरी।
___________
व्याख्या:
अल्लामा इक़बाल ने अपनी शायरी में जिन शब्दों पर सबसे अधिक ज़ोर दिया है उनमे ख़ुदी, शाहीन, फ़क़्र, मर्दे कामिल जैसे शब्द बहुतायत से मिलते हैं। इस नज़्म का शीर्षक फ़क़्र अर्थात दरिद्रता और ग़रीबी है। अल्लामा इक़बाल के अनुसार फ़क़्र दो प्रकार का होता है। एक वह जो किसी मोमिन और मर्द-ए-कामिल (Perfect Man) में पाया जाता है; और दूसरा वह जो ग़ैर-मोमिन में पाया जाता है। इस बात को अल्लामा ने अपनी मसनवी “पस चे बायद करद” में भलीभाँति स्पष्ट किया है:
फ़क़्र-ए-काफ़िर ख़िलवत-ए-दश्त-ओ-दर अस्त
फ़क़्र-ए-मोमिन लरज़ा-ए-बेहर-ओ-बर अस्त।
अर्थात काफ़िर जब फ़क़्र का जीवन व्यतीत करता है तो वह दुनियादारी छोड़कर किसी जंगल अथवा एकांत स्थान पर चला जाता है लेकिन जब कोई मोमिन फ़क़्र को अपने जीवन में अपनाता है तो वह हर सूक्ष्म और स्थूल (Micro and Macro), हर ख़ुश्क और तर (Dry and Wet) अर्थात सारी दुनिया में हंगामा बरपा कर देता है।
तुलनात्मक वर्णन करते हुए अल्लामा कहते हैं कि एक फ़क़्र तो वो है जो मनुष्य को छल-कपट और फ़रेब सिखाता है। जिसकी बदौलत कोई व्यक्ति शिकारी बनकर नख़्चीरी (शिकार) का बुरा पेश अपना लेता है। लेकिन एक फ़क़्र ऐसा भी है जो मनुष्य के भीतर ऐसा जज़्बा पैदा करता है कि पूरा संसार उसका लोहा मानता है, पूरी दुनिया पर उसका वर्चस्व हो जाता है और वो दुनिया भर में जन-सामान्य को हर तरह की ग़ुलामी से मुक्त कराता है और न्याय का साम्राज्य स्थापित करता है।
एक फ़क़्र वह है जिसकी वजह से उम्मतें दूसरों की ग़ुलाम बन जाती हैं और जीवन भर मुफ़लिस, शोकाकुल, ग़मज़दा और अभावग्रस्त रहती हैं। परन्तु दूसरा फ़क़्र वो है जिसकी वजह से मिटटी भी सोना बन जाती है अर्थात पस्त क़ौमें भी सरबुलन्द होकर ज़िन्दगी बसर करती हैं। यही फ़क़्र है जो इंसान को अपने ज़मीर का सौदा नहीं करने देता जिसकी ज़िन्दा मिसाल हज़रत मुहम्मद सल. के नाती (नवासे) हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने करबला के मैदान में दी।
यही शब्बीरी फ़क़्र अर्थात हुसैनी फ़क़्र है जिसकी प्राप्ति के बाद मनुष्य “मीरी” अर्थात सरदारी के मर्तबे पर शोभायमान हो जाता है। मज़हबे इस्लाम मुसलमानों को इसी “सरमाया-ए-शब्बीरी” का वारिस बनाना चाहता है। इस्लाम का मक़सद इसके सिवा और कुछ नहीं कि मुसलमान जनाबे शब्बीर (अर्थात हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ) के नक़्शे क़दम पर चलकर दुनिया में हक़ और सदाक़त के अलम्बरदार बन जाएँ। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की ज़िंदगी क़ुरआन मजीद का ज़िन्दा नमूना है जैसा कि इक़बाल ने कहा:
रम्ज़-ए-क़ुरआँ अज़ हुसैन आमोख्तीम
ज़ आतिश ऊ शोला हा अफ़रोख्तीम।
__________
शब्दार्थः
फ़क़्र: दरिद्रता, ग़रीबी; सय्याद: शिकारी; नख़्चीरी: शिकार करना असरार: रहस्य; जहाँगीरी: विश्व-वर्चस्व मिस्कीनी: अभावग्रस्त होना; दिलगीरी: ग़मज़दा अथवा शोकाकुल होना; अक्सीरी: ज़िन्दा करने की शक्ति शब्बीर: हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का लक़ब। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के बड़े भाई हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम का लक़ब “शब्बर” है। इस तरह आपको एक साथ हसन-हुसैन, हसनैन करीमैन अथवा शब्बीरो शब्बर भी कहते हैं। सरमाया: खज़ाना