नेक शौहर और बीवी
मैंने बुक स्टोर से “अच्छा शौहर, अच्छी बीवी” नामी किताब उठाई और लॉन की तरफ़ ख़ुलने वाली ख़िड़की के पास चेयर डाल कर बैठ गई। अभी-अभी बहुत मुश्किलों से बच्चे को सुलाया था। पता नहीं आज क्यों इतना तंग कर रहा था। उसके रोने के अंदाज़ से तो लगता था कि उसे बुख़ार होने वाला है। मैंने चेयर पर टेक लगाए किताब को उलटना-पलटना शुरु किया। यह किताब कल मेरे शौहर अहमद ने मुझे दी थी और ताक़ीद कर दी थी कि इसे ज़रूर पढ़ना और फिर इसको आपस में बैठ कर डिस्कस भी करेंगे। मैं समझ रही थी कि डिस्कस तो सिर्फ़ एक बहाना है अस्ल में वह यह चाह रहे थे कि मैं यह किताब पूरी तरह पढ़ लूँ। आज से पहले जितनी भी किताबें उन्हों ने मुझे दी थीं, उनमें से एक भी मैं पूरी तरह से नहीं पढ़ सकी थी।
लेकिन आज मेंने अहमद से वादा किया था कि इस किताब को ज़रूर आख़िर तक पढ़ूँगी और उस पर अमल भी करूँगी। बहरहाल मैंने पन्ने उलटने शुरु किये। एक…….दो…..तीन उफ़ ख़ुदाया! यह तो दो सौ चाल पन्नों की किताब है, मैं इसे कैसे पढ़ सकूँगी? आख़िर इतने सारे पन्ने पढ़ने के बाद मुझे पता चलेगा कि शौहर के साथ किस तरह रहा जाता है। मुझ में पूरी किताब पढ़ने की हिम्मत बिल्कुल नहीं थी लेकिन क्या करूँ मियाँ साहब ने बहुत ताकीद की थी। यह मर्द आख़िर सोचते क्यों नहीं कि यह किताबे पढ़ना हमारा काम नहीं है।
अगर कहानियों और अफ़सानों की कोई किताब हो तो मैं पढ़ भी लेती या कोई नाविल होता तो भी चल जाता लेकिन शादी शुदा ज़िन्दगी के बारे में यह किताबें, आख़िर इनका फ़ायदा क्या है? क्या मैं इसके बिना एक अच्छी बीवी नहीं हूँ? थोड़ी-बहुत कहा सुनी तो हर घर में होती है। भला बताओ! मैं घर के ढेर सारे कामों और छोटे बच्चे के साथ यह किताब कैसे पढ़ सकती हूँ? मैंने घर पर एक नज़र डाली, अभी-अभी पूरे घर की सफ़ाई की थी, साफ़-सुथरा किचन कैसा चमक रहा था। मैंने दिल में ख़ुद को दाद दी।
मुड़कर देखा तो नक़ी सो रहा था। मैंने आसमान की तरफ़ देखकर दुआ की कि कहीं वह उठ न जाए वरना मैं अपना वादा कैसे पूरा करूंगी। जब नक़ी रोता था तो अहमद कहते थे कि मुझे लगता है कि यह लड़का माइक्रोफ़ोन खा गया है। मैंने दोबारा किताब पर नज़र डाली। पढ़ने का बिल्कुल मूंड नहीं था। दिल पर जब्र करके इंडेक्स वाला पेज खोलकर देखा तो एक टॉपिक पर नज़र पड़ी। लिखा था, “शौहर की थकन दूर करने का तरीक़ा।” इस टॉपिक के साथ लिखे हुए पेज को निकाला और बेदिली से पढ़ना शुरु किया। लिखा था, “जिस वक़्त शौहर दिन भर का भूका, थका-माँदा घर वापस आता है तो अगर औरत घर के माहौल को मोहब्बत भरा बना दे और मुस्कुरा कर उसका इस्तेक़बाल करे तो उसकी सारी थकावट फ़ौरन ख़त्म हो जाती है।
सब बीवियाँ इस बात का ख़याल रखें कि शौहर के घर में आते ही शिकायतों के दफ़तर खोल के न बैठ जाएं। ख़ास तौर पर चीख़-चीख़ कर शिकायत बिल्कुल न की जाए। क्यों कि आप के शौहर दिन भर में बीसियों लोगों से मुलाक़ात करते हैं, हो सकता है कि आज उन्हें काम के दौरान कोई नुक़सान हुआ हो, या हो सकता है कि आज बॉस से डांट पड़ी हो, यह भी हो सकता है कि आज ऑफ़िस वक़्त पर न पहुँच सके हों।
कभी कभार बस में ड्राइवर या कन्डेक्टर से झगड़ा हो जाता है और इसी तरह बहुत सी बातें घर से बाहर शौहर को पेश आ सकती हैं। घर सुकून की जगह है। अगर आप को किसी से कोई शिकायत है भी तो घर में आने दीजिए, कुछ देर आराम करने के बाद खाने के दौरान या बाद में धीरे से, आराम से अपनी शिकायत बयान कर दीजिए।”
मुझे बहुत मज़ा आया और मैं पढ़ती चली गई। मेरा दिल चाहा कि मैं भी ऐसी ही एक बेहतरीन बीवी बन जाऊँ।
“अस्सलामु अलैकुम मोहतरमा! कैसी हैं आप?” अहमद का ख़ास जुमला सुनाई दिया।
“वाअलैकुमस्सलाम! हम तो ठीक ही हैं। आप बाहर से आ रहे हैं, आप बताइए कैसी तबीयत है आपकी? लाइए! यह बैग मुझे दे दीजिए और जल्दी से मुँह हाथ धो लीजिए। आज मैंने आपके लिए कोफ़्ते बनाए हैं।”
“भई! आज सूरज कहाँ से निकला है।” अहमद मज़ाहिया अंदाज़ में ऊपर की तरफ़ देख कर बोले। “क्यों भई! क्या मैं आपकी ख़ैरियत नहीं मालूम कर सकती? मैंने आर्टिफ़िशल तौर पर मुँह बिसोरते हुए कहा।
“अरे! आज नहीं बल्कि आप रोज़ाना हमारी ख़ैरियत मालूम कर सकती हैं बल्कि मालूम करनी चाहिए लेकिन यह तौ बताईए कि यह तबदीली कैसे आ गई?” अहमद अभी तक हैरान थे और मैं उनकी हैरानी से लुत्फ़अंदोज़ हो रही थी।
“वह आज मैंने आपकी दी हुई किताब पढ़ी थी ना तो उसमें लिखा हुआ था कि शौहर जब बाहर से घर में आए तो उसका अच्छी तरह इस्तेक़बाल करना चाहिए ताकि उसकी थकन दूर हो जाए।” मैंने आख़िर में उनकी हैरत दूर कर दी।
“अगर यह बात है तो आइए! एक ख़ुशख़बरी और सुन लीजिए, और वह यह है कि……”
उसी वक़्त नक़ी के रोने की आवाज़ आई तो मैं चौंक पड़ी। जल्दी से बाहर जाकर उसको थपका तो वह फिर करवट बदल कर सो गया और मैं ठंडी साँस लेकर सोचने लगी कि कुछ ख़्वाब कितने ख़ूबसूरत होते हैं, दिल चाहता है कि कभी इंसान ख़यालात से बाहर ही न निकले। मैं भी किन ख़यालों में खो गई थी……।
अरे………अचानक मुझे याद आया कि अहमद ने आज कोफ़्तों की फ़रमाइश की थी। मैंने दीवार पर लगी घड़ी की तरफ़ देखा तो मेरे पैरों तले ज़मीन निकल गई। साढ़े बारह बच चुके थे और अहमद ठीक एक बजे घर आ जाते हैं। उफ़ ख़ुदाया! यह मैंने क्या किया, आज तो मैंने उन से कोफ़्ते बनाने का वादा किया था लेकिन आधे घंटे में तो यह हरगिज़ मुमकिन नहीं।
मैं भाग कर फ़ौरन किचन में गई ताकि कुछ तो पका के रख दूँ लेकिन समझ में नहीं आ रहा था कि इतने कम वक़्त में क्या पक सकता है। दस मिनट तो सोचने में ही लग गए और आख़िर में तान अंडों पर आकर टूटी।
भागम-भाग फ्रिज में से चार अंडे निकाले जिनमें से एक हाथ से गिर कर टूट गया, प्याज़ काटी और ऑमलेट बनने के लिए रख दिया। एक बजने में सिर्फ़ पाँच मिनट रह गए थे। मैं ख़िड़की के पास आकर अहमद का इंतेज़ार करने लगी। रोटी तो अहमद हमेशा ताज़ी ही खाते हैं। ख़ुदा का शुक्र है कि आटा गुंधा हुआ था जिसे मैंने फ़्रिज से निकाल कर किचन में रख दिया था ताकि नर्म पड़ जाए। तवा भी हल्की आँच पर रखा हुआ था। दोबारा घड़ी पर नज़र डाली तो एक बज कर पाँच मिनट हो चुके थे। मैंने चूल्हे की आँच हल्की कर दी ताकि अंडे गर्म रहें और फिर मैं डाइनिंग टेबल तैयार करने लगी। डाइनिंग टेबल भी तैयार हो गई तो मैंने फिर एक बार घड़ी पर नज़र डाली तो वह सवा एक बजा रही थी। मैं थोड़ी सी परेशान हुई क्योंकि उन्हें कभी देर हो जाती थी तो वह फ़ोन ज़रूर कर दिया करते थे।
मैंने बाहर गली में जाकर देखा और वापस आकर नमाज़ पढ़ने लगी ताकि ख़ुदा से दुआ भी करूँ और इस तरह से अहमद की एक और शिकायत दूर हो जाएगी कि तुम हमेशा आख़िरी वक़्त में नमाज़ पढ़ती हो। घड़ी डेढ़ बजा रही थी और अहमद का दूर-दूर तक कोई पता नहीं था। मेरी परेशानी बढ़ती चली जा रही थी। एक बार फिर गली में जाकर दोनों तरफ़ नज़र डाली लेकिन दूर-दूर तक कोई नज़र नहीं आया। वापस आकर वक़्त गुज़ारी के लिए किताब उठाकर बैठ गई। लेकिन अब पढ़ने में दिल नहीं लग रहा था।
अब परेशानी के साथ मुझे ग़ुस्सा भी आने लगा था। अहमद अच्छी तरह जानते थे कि अगर वह लेट हो जाएं तो मैं कितनी परेशान हो जाती हूँ। लेकिन उन्हें इस बात का ज़रा भी एहसास नहीं है। हमें तो ज़िम्मेदार बीवी बनने के लिए किताबें पढ़ने का आर्डर देते हैं और ख़ुद एक फोन नहीं कर सकते। आ जाएं आज तो मैं देख लूँगी उनको भी।
मैं परेशानी के आलम में टहल रही थी। कभी तो मुझे ग़ुस्सा आ जाता और कभी दुआएं मांगने लगती। इसी परेशानी में दो बज गए और मेरी हालत और भी ज़्यादा ख़राब होने लगी। अब तो घबराहट में पैर भी कपकपाने लगे थे कि अचानक ख़ास अंदाज़ में बेल बजी तो मैं भागती हुई दरवाज़े की तरफ़ गई। मैंने तेज़ी से दरवाज़ा खोला, सामने ही अहमद का हंसता मुस्कुराता हुआ चेहरा दिखाई दिया। “अस्सलामु अलैकुम मोहतरमा! कैसी हैं आप?” मामूल के मुताबिक़ उन्होंने मुझे देखते ही सलाम किया।
उन्हें मुस्कुराता हुआ देखकर मेरा ख़ून खौल चुका था क्योंकि बेचारा ख़ून पहले ही एक घंटे से लगातार गर्म हो रहा था।
“आप मुस्कुरा रहे हैं और मुझे से पूछिए कि मेरी क्या हालत हो रही है परेशानी की वजह से।” “क्या तुम नमाज़ पढ़ने खड़ी हो रही थीं?” उन्होंने अंजान बन कर सवाल किया।
“मैं क़रीब एक घंटे से आपका इंतेज़ार कर रही हूँ और नमाज़ भी मैं क़रीब आधा पौन घंटे पहले पढ़ चुकी हूँ।” उन्हें जानबूझ कर अंजान बनता देख कर मेरा ग़ुस्सा और भी बढ़ चुका था। “आख़िर आपको आज देर से घर आना था तो फ़ोन तो कर दिया होता।” मैंने आग उगलती निगाहों से उनकी तरफ़ देखते हुए कहा।
“देर! क्या कहा? एक बजा है। ज़रा दिखाईए मुझे घड़ी।” मुझे यक़ीन नहीं आया तो मैंने उनका हाथ खींच कर घड़ी देखी। सच में एक बज कर दो मिनट हुए थे।
“लल…लेकिन घड़ी में तो दो से भी ऊपर का वक़्त है।” मैंने बड़बड़ाते हुए दीवार की तरफ़ देखकर कहा।
अहमद सारी बात समझ चुके थे और अब हंसते-हंसते लोट-पोट हुए जा रहे थे। बड़ी मुश्किलों से उन्होंने अपनी हंसी रोकी और कहने लगे, “तुम कहाँ खोई रहती हो?” “मैंने रात ही तुम्हें बताया तो था कि यह घड़ी ख़राब हो गई है और एक घंटा आगे चलने लगी है।”
अचानक अहमद ने नाक चिढ़ाई और ऐसा लगा जैसे वह कुछ सूँघने की कोशिश कर रहे हों। फिर भागते हुए किचन में पहुँचे। मैं घबरा गई थी क्यों कि जलने की बू पूरे घर में फैली हुई थी और किचन में धुआँ भर गया था।
अहमद ने आगे बढ़ कर चूल्हा बंद किया और किचन की ख़िड़कियों को खोल दिया ताकि धुआँ बाहर निकल जाए। जब वह किचन से निकले तो उनके चेहरे से नज़र आ रहा था कि वह सख़्त ग़ुस्से में हैं क्योंकि वह तो आज कोफ़्तों की उम्मीद लेकर घर आए थे। अहमद ने अपने ग़ुस्से को पीते हुए ठंडी साँस भर कर सिर्फ़ इतना कहा, “लीजिए बैग़म साहेबा! कोफ़्ते तैयार हैं। निकाल कर ले आइए! भूख के मारे दम निकला जा रहा है।”
मेरी आँखों से टप-टप आँसू जारी थे। बेचारे अहमद जिस तरह आए थे उल्टे पैरों वापस चले गए और होटल से नहारी रोटी ख़रीद लाए। मैंने जल्दी-जल्दी नहारी डिश में निकाली। इतनी देर में उन्होंने हाथ-मुँह धोया। फिर हम दोनों डाइनिंग टेबल के गिर्द मौजूद कुर्सियों पर डट गए। मेरा सर अब तक शर्म से झुका हुआ था और निवाले हलक़ में अटक रहे थे और वह यही सोच रही थी कि वाक़ई अगर इस वक़्त अहमद की जगह कोई और शौहर होता तो मेरी क्या हालत बना देता। हक़ीक़त यही है कि वह एक बेहतरीन शौहर हैं और वह मुझे भी अच्छी बीवी की शक्ल में देखना चाहते हैं।
मैंने झुके हुए सर के साथ मिनमिनाते हुए सॉरी कहा और उन्होंने हमेशा कि तरह मुस्कुराते हुए मुझे माफ़ कर दिया। फिर मुझे पूरे ध्यान के साथ किताब पढ़ने की ताकीद की। मैंने भी पक्का इरादा कर लिया कि इस किताब को न सिर्फ़ पढ़ूँगी बल्कि इस पर पूरा-पूरा अमल भी करूँगी और आइंदा अपने शौहर से बदगुमानी भी नहीं करूँगी।