सूर –ए- आराफ़ की तफसीर 1
सूरए आराफ़ पवित्र क़ुरआन का सातंवा सूरा है। यह सूरा मक्का में उतरा। यह सूरा जिस समय उतरा उस समय तक पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने मदीना पलायन नहीं किया था। इस सूरे में 206 आयते हैं।
सूरे आराफ़ की आरंभिक आयतों में कुछ आस्था संबंधी विषयों का उल्लेख किया गया है। कुछ आयतों में हज़रत आदम के पैदा किए जाने की घटना का उल्लेख है। कुछ आयतों में इंसान को चेतावनी दी गयी है और कुछ आयतों में उन वचनों का गिनवाया गया है जो ईश्वर ने मनुष्य से उसके मार्गदर्शन के संबंध में लिए हैं। इस सूरे में एकेश्वरवाद व सत्यता के मार्ग से हटने वाली जातियों की विफलता और सच्चे मोमिनों की सफलता को दर्शाने के लिए पहले की कुछ जातियों और ईश्वरीय दूतों की जीवन की घटनाओं का वर्णन किया गया है। सूरे के अंत में भी कुछ आस्था संबंधी बातों का उल्लेख किया गया है। बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम। अलिफ़ लाम मीम साद। किताबुन उन्ज़िला इलैका फ़ला यकुन फ़ी सदरिका हरजुम मिन्हु लेतुन्ज़िरा बिहि व ज़िकरा लिल मोमेनीन। अर्थात सूरे आराफ़ की पहली और दूसरी आयत में ईश्वर कह रहा है, यह एक किताब है जो तुम्हारी ओर उतारी गयी है अतः इससे तुम्हारे सीने में कोई तंगी न हो ताकि तुम इसके द्वारा सचेत करो और यह ईमान वालों के लिए एक प्रबोधन है।
यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम को सांत्वना देती है कि चूंकि आयत ईश्वर की ओर से उतारी गयी है इसलिए किसी बात की चिंता न करें। न तो ईश्वरीय दायित्व के भारी बोझ के संबंध में और न ही हठधर्म व सख़्त दुश्मनों की प्रतिक्रिया की ओर से चिंतित हों जो शत्रु क़ुरआन की वास्तविकताओं के मुक़ाबले में व्यक्त करेंगे। सूरे आराफ़ की आयत संख्या 11 में ईश्वर कह रहा है, हमने तुम्हें पैदा करने का निश्चित किया, फिर तुम्हारा रूप बनाया। फिर हमने फ़रिश्तों से कहा आदम का सजदा करो तो उन्होंने सजदा किया सिवाए इब्लीस के। वह सजदा करने वालों में से न हुआ।
सूरे बक़रह सहित कई दूसरों सूरों में हज़रत आदम की घटना का उल्लेख किया गया है किन्तु सूरे आराफ़ में आयत संख्या 11-27 में इस कड़ी को पूरा किया गया है। इन आयतों में ईश्वर ने इस बात का उल्लेख किया है कि उसने हज़रत आदम को पैदा और उनके उच्च स्थान को बताने के लिए फ़रिश्तों को हज़रत आदम का सजदा करने का आदेश दिया। अलबत्ता हज़रत आदम के सामने फ़रिश्तों के सजदा करने का अर्थ उनकी पूजा कराना न था क्योंकि पूरा व उपासना सिर्फ़ ईश्वर की की जाती है। यहां पर सजदे का अर्थ विनम्रता प्रकट करना है अर्थात फ़रिश्तों ने हज़रत आदम की महानता के सामने विनम्रता दर्शायी। सबने सजदा किया सिवाए इब्लीस के। ईश्वर ने इब्लीस को उसकी उद्दंडता के कारण फटकार लगाते हुए पूछाः किस चीज़ ने तुझे आदम का सजदा करने से रोका और मेरे आदेश की अनदेखी करने दी? उसने जवाब दिया, मैं उससे बेहतर हूं क्योंकि मुझे तूने आग से पैदा किया और आदम को गीली मिट्टी से। ईश्वर ने कहा अपने उच्च स्थान से नीचे उतर आ तुझे इस स्थान पर रह कर घमंड करने का अधिकार नहीं है। निकल जा कि तू घटिया लोगों से है। सूरे आराफ़ आयत संख्या 12 और 13 में यह उल्लेख है।
इस प्रकार ईश्वर ने इब्लीस को घमंड करने के कारण अपने सामिप्य जेसे उच्च स्थान से हटा दिया।
ये आयतें बताती हैं कि शैतान के पतन का कारण उसका घमंड था। इब्लीस श्रेष्ठ समझने की भावना के कारण स्वयं को उस स्थान पर समझ बैठा जिसका वह योग्य न था। इसलिए वह अकेला था जिसने न सिर्फ़ यह कि हज़रत आदम का सजदा न किया बल्कि ईश्वर के ज्ञान व तत्वदर्शिता का भी इंकार किया और ईश्वर की अवज्ञा का दुस्साहस किया और इस प्रकार वह अपने उच्च स्थान से नीचे गिर पड़ा।
इब्लीस ने ईश्वर से प्रलय के दिन तक मोहलत का अनुरोध किया जिसे ईश्वर ने मान लिया। इब्लीस ने क़सम खायी कि मानव जाति को तेरे मार्ग से बहकाउंगा। इस प्रकार उसे लोगों को बहकाने का अवसर मिल गया।
यहां पर यह बिन्दु महत्वपूर्ण है कि मनुष्य शैतान के मुक़ाबले में असहाय नहीं है। मनुष्य को ईश्वर ने वह क्षमता दी है जिसके दवारा वह शैतान के छल से स्वयं को बचाकर मुक्ति का मार्ग तय कर सकता है। मनुष्य बुद्धि व विवेक द्वारा शैतान के प्रलोभन के विरुद्ध मज़बूत क़िला बना सकता है। मनुष्य की पवित्र प्रवृत्ति और परिपूर्णतः तक पहुंचने की उसमें चाह, वे तत्व हैं जिनका उसके कल्याण में महत्वपूर्ण योगदान है। इसी प्रकार ईश्वरीय दूत और फ़रिश्ते भी मनुष्य की सहायता करते हैं ताकि वह शैतान के उकसावे में न आए।
सूरे आराफ़ की 19 वीं आयत से हज़रत आदम की कहानी यूं शुरु होती है, ईश्वर ने आदम और उनकी बीवी हज़रत हव्वा को आदेश दिया कि स्वर्ग में रहें। इस दौरान ईश्वर ने हज़रत आदम और हज़रत हव्वा के लिए कुछ दायित्व निर्धारित करते हुए कहा, हे आदम! तुम और तुम्हारी बीवी स्वर्ग में रहो। जहां से जो चाहो खाओ मगर इस वृक्ष के पास भी न जाना वरना अत्याचारियों में हो जाओगे।
यहां पर ईश्वर के दरबार से भगाये गए शैतान ने बदला लेने के लिए हज़रत आदम और हज़रत हव्वा को बहकाने की ठान ली और उन्हें बहकाने के लिए ना ना प्रकार की चालें चलीं। उसने हज़रत आदम और हज़रत हव्वा से कहा कि ईश्वर ने इसलिए तुम्हें इस पेड़ के पास जाने से रोका है कि इसके फल खाने से तुम फ़रिश्ता बन जाओगे और स्वर्ग में अमर जीवन व्यतीत करोगे। शैतान ने उन्हें बहाने के लिए सौगंध खायी कि मैं तुम्हारा शुभचिन्तक हूं। अंततः हज़रत आदम व हव्वा उसके बहकावे में आ गए। उन्होंने वर्जित फल खा लिया और इस प्रकार वे बंदगी के स्थान से हट गए और उन्हें स्वर्ग से निकाल दिया गया।
हज़रत आदम की कहानी में इस संसार में मनुष्य के जीवन की ओर भी संकेत मौजूद हैं। इस संसार के कोलाहलपूर्ण जीवन में मनुष्य बुद्धि और इच्छाओं के बीच संघर्ष में हर बार किसी न किसी ओर झुक जाता है। झूठे दावेदार निरंतर धोखे व बहकावे से उसकी बुद्धि पर पर्दा डालने तथा उसे सही मार्ग से हटाने का प्रयास करते हैं। बहकाने वालों के धोखे में आने के परिणाम में इंसान के मन से ईश्वरीय भय निकल जाता है और वह भौतिक जीवन की पीड़ाओं में ग्रस्त हो जाता है। सूरे आराफ़ में इन आयतों से लेकर बाद की कुछ आयतों तक ईश्वर हज़रत आदम की संतान अर्थात हम इन्सानों के लिए सार्थक कार्यक्रम बयान करता है और मनुष्य को शैतान के धोखे में न आने की नसीहत करता है। सूरे आराफ़ में कई स्थानों पर ईश्वर ने हे आदम की संतान कह कर संबोधित किया है। जैसा कि सूरे आराफ़ की आयत संख्या 26 में ईश्वर कह रहा है, हे आदम की संतान तुम्हारे लिए ऐसा वस्त्र भेजा जो तुम्हारे शरीर को ढांकता है और तुम्हें वैभव प्रदान करता है और सदाचारिता का वस्त्र बेहतर है। ये सब ईश्वर की निशानियां हैं शायद उन्हें याद करो।
कुछ मामले जिनकी आम लोग अनदेखी करते हैं वह इस सांसारिक जीवन का अंत और मौत है। न केवल यह कि हर मनुष्य को मरना है बल्कि मानव जातियां और सभ्यताएं भी मिटने वाली हैं। इतिहास में ऐसी कितनी संभ्यताएं प्रकट हुयीं किन्तु कुछ समय बाद अत्याचार व भ्रष्टाचार के कारण उनका पतन हो गया। धनाढ्य व सत्ताधारी वर्ग प्रायः यह सोचते हैं कि यह सब चीज़ें उनके पास सदैव रहेंगी किन्तु ईश्वर कह रहा है, हर जाति के लिए एक नियत समय है तो जब उसका नियत समय आ पहुंचा तो उसमें एक क्षण की भी देरी नहीं हो सकती और न ही वह अग्रिम हो सकता है।
सूरे आराफ़ की आयत 44 से 50 तक नरकवासियों के साथ स्वर्गवासियों की बातचीत और आराफ़ नामक उस स्थान का उल्लेख है जो स्वर्ग और नरक के बीच में स्थित है। सूरे आराफ़ की आयत संख्या 44 में ईश्वर कह रहा है, स्वर्गवाले नरकवालों से कहेंगे कि जिन चीज़ों का हमारे पालनहार ने हमसे वादा किया था हमने उन सब चीज़ों को सही पाया क्या तुमने उन चीज़ों को सही पाया जिसका तुम्हारे पालनहार ने तुमसे वादा किया था।
आराफ़ शब्द पवित्र क़ुरआन में दो बार प्रयोग हुआ है और शब्दकोश में इसका अर्थ है उच्च स्थान। यह ऊंचा स्थान स्वर्ग और नरक के बीच में है और दोनों के बीच एक प्रकार की रुकावट की भांति है। इस स्थान की स्थिति ऐसी है कि स्वर्गवासी व नरकवासी एक दूसरे को नहीं देख पाएंगे किन्तु एक दूसरे की आवाज़ सुन सकेंगे। जो लोग आराफ़ नामक स्थान पर होंगे उनके संबंध में कुछ बिन्दुओं का उल्लेख ज़रूरी है। आराफ़ वाले स्वर्गवासियों और नरकवासियों दोनों को देख और पहचान सकेंगे। आराफ़ वाले कुछ कारणों से स्वर्ग में नहीं जा सकेंगे किन्तु स्वर्ग में जाने की इच्छा रखते होंगे। जब वे स्वर्गवासियों को देखेंगे तो ईश्वर से उन पर कृपा भेजने की और उनके साथ रहने की कामना करेंगे। जब वे नरकवासियों को देखेंगे तो उनका अंजाम देखकर भयभीत होंगे और ईश्वर की शरण चाहेंगे। इस संदर्भ में सूरे आराफ़ की आयत 46 और 47 में आया है कि उन दोनों के बीच में एक रुकावट है। और आराफ़ मे वे लोग हैं कि उनमें से हर एक स्वर्गवासियों व नरकवासियों को उनके चेहरे से पहचानते हैं और स्वर्गवासियों से कहते हैं कि ईश्वर की तुम पर कृपा हो। आराफ़ वाले स्वर्ग में नहीं पहुंचे हैं किन्तु स्वर्ग में जाने की आशा रखते हैं किन्तु जब वे नरकवासियों को देखते हैं तो कहते हैं प्रभुवर! हमें अत्याचारियों की टोली में मत क़रार दे। उस समय आराफ़ वाले नरकवासियों के एक समूह को आवाज़ देंगे और कहेंगे कि तुम लोगों ने देखा कि संसार में धन-दौलत का इकट्ठा करने, दूसरे से नफ़रत करने, घमंड करने का तुम्हें कोई लाभ नहीं पहुंचा। घमन्ड व आत्ममुग्धता से तुम्हें क्या मिला? और इस प्रकार वे नरकवासियों की भर्त्सना करेंगे।