सूर - ए - बक़रा की तफसीर 3
पवित्र क़ुरआन का सबसे बड़ा सूरा सूरए बक़रह है जिसमें 286 आयते हैं। इस सूरे के उतरने से नवस्थापित इस्लामी समाज से संबंधित ज़रूरी मामले स्पष्ट हुए और मुसलमानों को ज्ञात हुआ कि किस प्रकार वे आपस में और विदेशियों के साथ संबंध स्थापित करें। जैसा कि हमने यह कहा कि इस सूरे में धर्मशास्त्र से संबंधित नियमों, नागरिक व सामाजिक क़ानूनों, विवाह, तलाक़ सहित पारिवारिक विषयों, क़र्ज़, ब्याज पर रोक सहित व्यापारिक निमयों पर चर्चा की गयी है।
सर्वश्रेष्ठ रचना हज़रत आदम और उनके सामने नत्मस्तक होने से इब्लीस के इंकार की घटना, इस सूरे में पाठ लेने योग्य विषय हैं। शायद सूरे बक़रह की व्यापक शिक्षाओं के दृष्टिगत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने इस सूरे को सूरों का सरदार कहा और इसे पढ़ने वाले को विभूतियों की शुभसूचना दी है।
सूरे बक़रह में सृष्टि की कुछ घटनाओं और एकेश्वरवाद के महत्व का उल्लेख किया गया है और कुछ मिसालों से प्रलय तथा प्रलय के दिन मनुष्य के पुनः उठाए जाने को स्पष्ट किया गया है। इन मिसालों में हज़रत इब्राहीम द्वारा कुछ पक्षियों को मार कर उन्हें जीवित करने तथा हज़रत उज़ैर की कहानी की ओर इशारा किया जा सकता है।
पवित्र क़ुरआन में ईश्वरीय दूत उज़ैर की कहानी बहुत रोचक है। कहानी कुछ इस प्रकार है कि एक हज़रत उज़ैर अपनी सवारी पर सवार कही जा रहे थे और उनके साथ खाने-पीने की कुछ चीज़ें थीं। वह जब एक बस्ती के पास से गुज़र रहे थे तो वहां के मृत निवासियों की सड़ी गली हड्डियां दिखायीं दी। यह दृष्य इतना भयावह था कि हज़रत उज़ैर ने बड़े आश्चर्य से कहा, ईश्वर किस प्रकार इन मृत लोगों को जीवित करेगा? उसी समय ईश्वर ने इस रहस्य को स्पष्ट करने के लिए कि किस प्रकार वह मृतकों को प्रलय के दिन जीवित करेगा, हज़रत उज़ैर को मौत की नींद सुला दिया। 100 वर्ष बाद ईश्वर ने उन्हें फिर से जीवित किया और उनसे पूछा कि इस स्थान पर कितने समय तक रहे? उन्होंने कहा कि एक दिन या उससे कम। ईश्वर ने उनसे कहा कि ऐसा नहीं है बल्कि तुम सौ वर्ष तक यहां रहे। अब अपने खाने-पीने की वस्तुओं को देखो कि इतने लंबे समय तक उनमें कोई ख़राबी नहीं आयी किन्तु यह समझने के लिए कि तुम सौ वर्ष तक मृत रहे अब अपने गधे को देखो कि मौत ने गधे के शरीर के हर अंग की क्या हालत की है। हमनें तुम्हें लोगों के लिए पाठ बनाया। हब देखो कि हम किस प्रकार बिखरे हुए अंगों व हड्डियों को फिर से जोड़ेंगे और उन पर मांस चढ़ाएंगे। उन्होंने स्वयं के साथ घटने वाली आश्चर्यजनक घटना पर चिंतन करने के बाद ईश्वर से प्रशंसा की और उसकी अथाह शक्ति को मानते हुए उनसे कहा, मैं जानता हूं कि ईश्वर हर कार्य में सक्षम है। यह घटना सूरे बक़रह की आयत क्रमांक 259 में बयान की गयी है।
सूरे बक़रह की कुछ आयतों में बनी इस्राईल जाति और यहूदी धर्म के अनुयाइयों के दृष्टिकोणों व क्रियाकलापों का उल्लेख करती है। इसी प्रकार ईश्वरीय दूत हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के साथ बनी इस्राईल जाति के दुर्व्यवहार का उल्लेख किया गया है। आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि आज भी चरमपंथी यहूदी ज़ायोनियों के नाम से जाने जाते हैं और संधि का उल्लंघन, वर्चस्व जमाने तथा अतिग्रहण करने जैसी विशेषताएं उनमें पायी जाती हैं जो हज़रत मूसा के काल के यहूदियों के एक गुट में मौजूद थी। इसी प्रकार इस सूरे में बनी इस्राईल की स्वाभाविक व मानसिक विशेषताओं तथा उनके विचारों व व्यवहारिक शैली का बहुत अच्छे ढंग से चित्रण किया गया है।
इस बात में शक नहीं कि पैग़म्बरे इस्लाम पर उतरने वाला क़ुरआन परालौकिक वास्तविक पर आधारित है। सूरे बक़रह में ईश्वर ने क़ुरआन की महानता का उल्लेख किया है और इसकी आयतों को नकारने वालों को इस जैसा एक सूरा लाने की चुनौती दी गयी है। यद्यपि पूरे इतिहास में कुछ प्रसिद्ध विद्वानों व साहित्यकारों ने पवित्र क़ुरआन के एक या कई सूरों का जवाब लाने की कोशिश की किन्तु वे इस काम में सफल नहीं हो सके। पैग़म्बरे इस्लाम के स्वर्गवास के शताब्दियों बाद यह आसमानी दस्तावेज़ बिना किसी फेर बदल के अपने उसी रूप में मनुष्य के पास मौजूद है और उसी प्रकार आज भी ताज़ा है और इसी प्रकार रहेगी।
पवित्र क़ुरआन की तत्वदर्शी शिक्षाओं में इस महत्वपूर्ण बिन्दु की ओर संकेत किया गया है कि मनुष्य के कर्म का प्रभाव चाहे अच्छा हो या बुरा, स्वयं उसी की ओर पलटता है। इसके अतिरिक्त इस किताब में कृपालु ईश्वर ने जो आदेश दिए हैं उसमें मानवजाति की भलाई निहित है और मनुष्य उससे लाभान्वित होगा। जैसा कि सूरे बक़रह की आयत क्रमांक 183 में रोज़ा रखने का आदेश आया है कि जिसका मनुष्य की मानसिकता व शरीर पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है। अलबत्ता इस आयत में सदाचारिता और इच्छाओं पर नियंत्रण को रोज़े का सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव बताया गया है। इस आयत में ईश्वर कह रहा है, “या अय्युहल लज़ीना आमनू कुतिबा अलैकुमुस्सियामु कमा कुतिबा अलल लज़ीना मिन क़ब्लेकुम लअल्लकुम तत्तक़ून” अर्थात हे ईमान लाने वालो! तुम पर रोज़ा अनिवार्य किया गया है जिस प्रकार तुमसे पहले वालों पर अनिवार्य किया गया था ताकि सदाचारी बन जाओ।
इस आयत में आगे के भाग में रोज़े के समय का उल्लेख किया गया है और इसी प्रकार उन लोगों को रोज़ा न रखने की छूट दी गयी है जो बीमार, अक्षम या रोज़ा रखना उनके लिए बहुत कठिन है। सूरे बक़रह की आयत क्रमांक 185 में पवित्र रमज़ान को इसलिए महत्वपूर्ण बता गया है क्योंकि इसी महीने पैग़म्बरे इस्लाम पर क़ुरआन उतरा है। बाद की आयत में ईश्वर बहुत ही आकर्षक अंदाज़ में अपने बंदों को आशावान बनाते हुए कहता है, व इज़ा सअलका एबादी अन्नी फ़इन्नी क़रीबुन ओजीबु दावतद्दाइ इज़ा दआने फ़लयस्तजीबू ली वलयूमिनू बी अलल्लहुम यरशुदून अर्थात जब मेरे बदें तुमसे मेरे बारे में पूछे तो कह दो कि हम बहुत निकट हैं, प्रार्थना करने वालों की प्रार्थना का जवाब देता हूं तो उन्हें मेरा निमंत्रण स्वीकार करना चाहिए और मुझ पर आस्था रखें ताकि मार्गदर्शन पा सकें। यह सूरे बक़रह की आयत क्रमांक 186 है।
सूरे बक़रह की एक अतिमहत्वपूर्ण आयत आयतल कुरसी के नाम से प्रसिद्ध है। पैग़म्बरे इस्लाम के कथन में आयतल कुरसी को क़ुरआन की चोटी कहा गया है और सबसे उसे पढ़ने, उसकी शरण लेने तथा शिफ़ा चाहने की अनुशंसा की गयी है।
पैग़म्बरे इस्लाम ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से कहा, क़ुरआन सबसे अच्छा कथन है और सूरे बक़रह सब सूरों का सरदार है और सूरे बक़रह में आयतल कुरसी सारी आयतों से ज़्यादा मूल्यवान है।
अल्लाहु ला इलाहा हुवल हय्युल क़य्यूम। ला तअख़ुज़ुहू सिनतुंव वला नौम। लहू मा फ़िस्समावाति वमा फ़िल अर्ज़। मन ज़ल्लज़ी यशफ़उ इन्दहू इल्ला बेइज़्निह, यअलमु मा बैना अयदीहिम वमा ख़लफ़हुम, वला युहीतूना बेशयइम मिन इलमेही इल्ला बेमा शाआ, वसेआ कुरसिय्युहुस समावाते वलअर्ज़, वला यऊदुहू हिफ़्ज़ुहुमा व हुवल अलीयुल अज़ीम। अर्थात अनन्य ईश्वर के सिवा कोई पूज्य नहीं है। जिसका स्वयं अस्तित्व है और दूसरी चीज़ों का अस्तित्व उस पर निर्भर है। उसे कभी भी नींद या औंघायी नहीं आती अर्थात वह सृष्टि के संचालन की ओर से लापरवाह नहीं है। जो कुछ आसमान और धरती पर है, सब उसी का है। कौन है जो उसके आदेश के बिना सिफ़ारिश कर सके? जो कुछ बंदों के सामने और उनके पीछे है उसे जानता है, अतीत और भविष्य का ज्ञान उसके सामने एक जैसा है। कोई भी उसके ज्ञान से अवगत नहीं होता मगर यह कि जितनी मात्रा में वह चाहे। उसका शासन ज़मीन और आकाशों पर छाया हुआ है जिसके संचालन से वह नहीं ऊबता। महानता व वैभव उसी से विशेष है। यह सूरे बक़रह की आयत क्रमांक 255 है।
पवित्र क़ुरआन के व्याख्याकारों के अनुसार आयतल कुरसी का महत्व उसके गहरे अर्थ के कारण है। इस आयत में ईश्वर की अनन्यता, ज़मीन व आसमान में स्वच्छंद शासन और सृष्टि के स्रोत जैसी विशेषताओं का उल्लेख है। इसलिए ईश्वर को क़य्यूम कहा जाता है। क़य्यूम का अर्थ होता है जिसका अस्तित्व आत्म निर्भर हो। इस आयत में धर्म के चयन में मनुष्य की स्वतंत्रता पर बल दिया गया है और इस महत्वपूर्ण बिन्दु पर भी बल दिया गया है कि धर्म में ज़बरदस्ती नहीं है इसलिए किसी को ज़बरदस्ती धर्म स्वीकार नहीं कराया जा सकता।