ख़लीफ़ा के फ़िदक छीनने का लक्ष्य व मक़सद
इतिहास की किताबों में फ़िदक की ज़मीनों के छीने जाने के कारणों के बारे में विभिन्न बातें बयान हुई हैं:
एक तो यह कि वह इस काम के ज़रिये से चाहते थे कि अहले बैत अलैहिमुस सलाम की माली व आर्थिक स्थिति को कमज़ोर कर दें और हक़ के लिये उठने वाली आवाज़ को हज़रत फ़ातेमा (अलैहस सलाम) के घर से बुलंद होती थी, उसे सीमित और ख़ामोश कर दें। इस लिये इस फ़िदक के बाग़ों से होने वाली आमदनी, अब्दुल्लाह बिन हम्माद अंसारी की रिवायत के अनुसार चौबीस हज़ार दीनार और दूसरी रिवायतों के अनुसार सत्तर हज़ार दीनार तक बयान हुई है। इतनी बड़ी सख्या में आमदनी का प्राप्त होना सक़ीफ़ा में बनने वाली हुकूमत के विरोधियों का सबसे बड़ा आर्थिक स्रोत बन सकता था।
इब्ने अबिल हदीद मोतज़ली ने भी अली बिन तक़ी से बयान किया है कि फ़िदक बहुत क़ीमती व महत्वपूर्ण था जिसमें आज के कूफ़ा शहर के बराबर खजूर के बाग़ थे। अबू बक्र व उमर फ़ातेमा (स) को उससे वंचित करके अली (अ) को कमज़ोर करना चाहते थे ताकि उनकी ख़िलाफ़त के सामने कोई समस्या खड़ी न हो सके। और इसी कारणवश अहले बैत (अ) व बनी हाशिम को ख़ुम्स के माल से भी वंचित किया गया। ज़ाहिर सी बात है कि जिन लोगों के पास माल व दौलत न हो उनकी हिम्मतें कमज़ोर होने लगती हैं और वह स्वयं को कम समझने लगते हैं और किसी पद की प्राप्ती का मोह त्याग कर अपनी रोज़ी रोटी के चक्कर में लग जाते हैं।
फ़िदक को छीनने के बारे में जो दूसरी दलीलें बयान की गई हैं उन में से एक इमाम मोतज़ली का यह कथन है, शरहे इब्ने अबिल हदीद भाग 16 पेज 284 में वह लिखते हैं कि मैंने पश्चिमी बग़दाद के एक उच्च शिक्षा संस्थान के एक शिक्षक से जिनका नाम अली बिन फ़ारक़ी था, पूछा: क्या फ़ातेमा सलामुल्लाहे अलैहा ने फ़िदक के बारे में कोई दावा किया था और क्या उनका दावा सच्चा था?
उन्होने कहा: हां, इमाम मोतज़ली ने पूछा तो फिर क्यों अबू बक्र ने उन्हे फ़िदक नही दिया जबकि उन्हे मालूम था कि फ़ातेमा सच बोल रही हैं।
उन्होने मुस्कुराते हुए जवाब दिया कि अगर उस दिन अबू बक्र ने फ़ातेमा के दावे को स्वीकार कर लिया होता और फ़िदक उन्हे दे दिया होता तो वह दूसरे दिन आकर कहतीं कि ख़िलाफ़त मेरे शौहर का हक़ है इस तरह से वह अबू बक्र की ख़िलाफ़त की चूंलें हिला देतीं और वह बेबस व लाचार हो जाते। इस लिये फ़ातेमा इस क़दर सच्ची व सत्यवादी थीं कि उनके किसी दावे को साबित करने के लिये किसी दलील और गवाह की आवश्यकता नही होती।
इमाम मोतज़ली इस शिक्षक की बात को बयान करने के बाद लिखते हैं कि و ھذا کلام صحیح यह बात वास्तविकता पर आधारित है। इस बात से मालूम होता है कि फ़िदक का छीन लेना और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (सलामुल्लाह अलैहा) व अमीरुल मोमिनीन (अलैहिस सलाम) से ग़ैर अक़ली बहस के पीछे क्या लक्ष्य था।
फ़िदक के बारे में अबू बक्र ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) की जिस हदीस (हम गिरोहे अंबिया मीरास नही छोड़ते) को पेश किया, क्या वह हदीस सही है?
यह बात कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने अपने बाद कोई मीरास नही छोड़ी, इसकी बुनियाद वह हदीस है जो अबू बक्र ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) से बयान की है जिस में आपने फ़रमाया:
نحن معاشر الانبیاء لا نورث ۔۔۔
हम नबियों का कोई वारिस नही होता (हमारा समूह अपने बाद कोई मीरास नही छोड़ता) हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) ने अबू बक्र की इस दलील के मुक़ाबले में फ़रमाया कि यह हदीस पवित्र क़ुरआन के मुख़ालिफ़ है। इस लिये क़ुरआने पाक में अल्लाह के नबी जनाबे ज़करिया (अ) का क़ौल ज़िक्र हुआ है:
فھب لی من لدنک ولیا یرثنی و یرث من آل یعقعوب ۔۔۔
मेरे अल्लाह मुझे औलाद अता कर जो मेरी और आले याक़ूब की वारिस हो। इस आयत से साफ़ पता चलता है कि ज़करिया ने अपने बाद मीरास छोड़ी।
दूसरी बात यह कि हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) पाप व ग़ल्तियों से पाक और ततहीर की आयत का मिसदाक़ थीं। इस लिये इस बात की कोई संभावना नही हो सकती कि आप क़ुरआने पाक की आयत व नबी (स) की सुन्नत को समझने में ग़लती करें या नबी (स) की तरफ़ कोई झूठी बात मंसूब करें। जबकि ख़ुदा वंदे आलम ने क़ुरआने मजीद में इरशाद फ़रमाया है कि जो अल्लाह व रसूल को तकलीफ़ पहुचायेगा वह दुनिया व आख़िरत में अल्लाह की लानत का पात्र बनेगा और उनके लिये ज़लील करने वाली सज़ा रखी गई है। और इसी तरह से अहले सुन्नत की किताबों में भी आया है कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया कि फ़ातेमा मेरे जिगर का टुकड़ा है जिसने उसे अज़ीयत दी उसने मुझे अज़ीयत दी।
एक दूसरे रुख़ से इस घटना को देखते हैं: यह कैसे संभव हो सकता है कि एक हदीस को पैग़म्बरे (स) फ़रमायें और उसे सिर्फ़ अबू बक्र व उमर व आयशा व हफ़सा सुनें बस?
क्या पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने नही फ़रमाया कि انا مدینۃ العلم و علی بابھا मैं शहरे इल्म हूं और अली उसका दरवाज़ा हैं तो कैसे मुम्किन हैं यह हदीस अली अलैहिस सलाम ने न सुनी हो? والسلام علی من اتبع الھدی
आं हज़रत (स) की वफ़ात और अबू बक्र के तख़्ते ख़िलाफ़त पर बैठने के बाद, फ़िदक को जनाबे फ़ातेमा ज़हरा (स) से लिया गया और ख़लीफ़ा के तौर पर उसे अपने पास रखा गया, फ़ातेमा ने अपनी चीज़ का मुतालेबा किया और कहा कि यह बाग़ पैग़म्बर (स) ने मुझे दिया था तो अबू बक्र ने उनके जवाब में उनसे गवाह लाने को कहा ताकि उसके ज़रिये फ़ातेमा साबित कर सकें कि यह उनकी मिल्कियत है।
जबकि इस्लाम का क़ानून है कि जो चीज़ जिस के पास होती है उससे गवाह नही मांगा जाता, क़ब्ज़ा उसकी चीज़ होने की दलील है अब जो उसके सामने उसे उसका नही होने का दावा कर रहा है उसे सुबूत देना चाहिये क्यों कि वह दावा कर रहा है। इस बात की दलील की फ़िदक हज़रत ज़हरा के पास था इस पवित्र आयत و آت ذالقربی حقہ में अता करने और देने का शब्द प्रयोग किया गया है और इसी तरह से اعطاء و اقطاع जैसे शब्द रिवायात में इस्तेमाल हुए हैं।
इन सब के बावजूद हज़रत ज़हरा (स) ने अपनी बात को साबित करने के लिये मजबूरन सुबूत पेश किया और अली (अ) व उम्मे ऐमन ने गवाही दी कि फ़िदक आपकी संपत्ति है, लेकिन अबू बक्र ने यह जवाब दिया कि एक मर्द और एक औरत की गवाही पर्याप्त नही है बल्कि दो मर्द या एक मर्द और दो औरतें होनी चाहियें।
अलबत्ता हज़रत ज़हरा (स) के ज़हन में यह बात थी लेकिन चूंकि यह इख़्तेलाफ़ अदालत व न्याय पालिका वाला इख़्तेलाफ़ नही था क्योंकि इस मसले में अबू बक्र ख़ुद जज व प्रतिद्धन्द्धि की हैसियत रखते थे अगर वास्तविक न्यायपालिका का मसला बनाना था तो जज या क़ाज़ी किसी तीसरे को होना चाहिये थे। इस लिये इस झगड़े में एक गवाह काफ़ी था जो दावे करने के दावे को साबित कर सके और बात साबित हो जाये।
इसके बावजूद हज़रत ज़हरा (स) ने दूसरी बार में अली अलैहिस सलाम, उम्मे ऐमन और इमाम हसन व इमाम हुसैन को गवाह के तौर पर पेश किया। लेकिन ख़लीफ़ा ने फिर भी स्वीकार नही किया और दलील यह दी कि अली शौहर हैं और हसन व हुसैन औलाद हैं इस लिये वह लोग उनका पक्ष लेंगे और उनके हक़ में गवाही देंगे।
और असमा बिन्ते उमैस की गवाही इस लिये क़बूल नही की गई कि वह जाफ़र बिन अबी तालिब की बीवी हैं इस लिये वह बनी हाशिम के हक़ में गवाही देंगी और उम्मे ऐमन की गवाही इस लिये स्वीकार नही की गई कि वह अरब नही हैं और वह अपनी बात को ढंग से बयान नही कर सकतीं।
सवाल यह पैदा होता है कि क्या फ़ातेमा, अली, हसन व हुसैन जो सूर ए अहज़ाब की 33वीं आयत की रौशनी में और उस रिवायत की बुनियाद पर जो उसकी शाने नुज़ूल के बारे में बयान हुई है जिसके अनुसार हर तरह का पाप व गंदगी उन सब से दूर है, क्या उन सब का कथन स्वीकार्य नही है? सूर ए अहज़ाब की आयत 33 में इरशाद हुआ है: انما یرید اللہ لیذھب عنکم الرجس اھل البیت و یطھرکم تطھیرا۔ अल्लाह का इरादा है कि ऐ अहले बैत तुम्हे हर तरह के रिज्स से दूर रखे। आश्चर्य है कि किस तरह से इनका कथन अबू बक्र के लिये भरोसे का पात्र नही है? यह ऐसी बात है, जो इब्ने अबिल हदीद की बात की रौशनी में जो उन्होने उस्ताद अली बिन फ़ारक़ी से पूछी, समझी जा सकती है। इस घटना पर आगे भी बहस जारी है।
यह बात कि असमा बिन्ते उमैस, जाफ़र बिन अबी तालिब की बीवी हैं लिहाज़ा बनी हाशिम का पक्ष लेंगी, इस लिये उनकी गवाही स्वीकार्य नही है। बड़ी आश्चर्य जनक बात है और इसका उत्तर भी साफ़ है। इसलिये कि अदालत व न्यायपालिका में यह कहीं भी शर्त नही रखी गई है कि इंसान का दुश्मन किसी बात की गवाही दे बल्कि शर्त यह रखी गई है कि गवाही देने वाली आदिल होना चाहिये। क्या पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने असमा के बारे में नही फ़रमाया कि असमा अहले बहिश्त हैं? क्या नबी (स) का यह कथन असमा जैसी महान नारी की अदालत के लिये पर्याप्त नही है? और यह कि उम्मे ऐमन अरब नही हैं अजम हैं तो क्या गवाही क़बूल करने के लिये कहीं यह शर्त हैं कि वह अरब हो या फ़सीह व बलीग़ हो या यह उसका यह कहना काफ़ी है कि फ़लां की बात सही है?।
क्या वह उम्मे ऐमन जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बचपन से आपके घर में थीं और हिजाज़ व मक्के वालों के बीच रह रहीं थीं और साठ साल से ज़्यादा समय वह हिजाज़ में गुज़ार चुकी थीं, क्या अब भी वह अरबी भाषा नही बोल सकती थीं।
यह बात भी पूछने लायक़ है कि अली अलैहिस सलाम जिन्हे पैग़म्बरे अकरम (स) اقضی الامۃ و صدیق اکبر (बेहतरीन न्याय करने वाला व महान सत्य निष्ठ) जानते थे और उनके बारे में फ़रमाया है कि अगर हक़ अली के साथ हैं और अली हक़ के साथ हैं और हक़ कभी भी अली से अलग नही हो सकता और उन्हे मोमिनों का सर परस्त और उनकी जानों से ज़्यादा उन पर हक़ रखने वाला बताया है, उनकी गवाही फ़िदक जैसे एक बाग़ के लिये स्वीकार्य नही हो?। वह अली जिसका कहना है कि अगर सारा संसार मेरे हवाले कर दिया जाये तो मुझ से कहा जाये कि मैं ना हक़ किसी चूंटी के मुंह से जौ का एक दाना छीन लूं तो मैं कभी भी ऐसा नही करूंगा। आपके जीवन का इतिहास आपके इस कथन पर गवाह है तो क्या आप इस मसले में झूठी गवाही दे सकते थे? हरगिज़ ऐसा नही हो सकता था।
इन सारी बातों से क़तए नज़र अबू बक्र ने नबी की बेटी सिद्दिक़ ए ताहिरा हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा और अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम के दावे को रद्द कर दिया मगर जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी के दावे को स्वीकार कर लिया ऐसा क्यों?
यह घटना इस प्रकार है कि अबू बक्र की ख़िलाफ़त के ज़माने में बहरैन से कुछ माल मदीने लाया गया, जाबिर बिन अब्दुल्लाहे अंसारी जो अबू बक्र के दरबार में मौजूद थे उन्होने कहा कि अल्लाह के नबी (स) ने अपनी वफ़ात से पहले मुझ से फ़रमाया था कि बहरैन से कुछ माल आने वाला है और मैं उस में इतना हिस्सा तुम्हे दूंगा।
अबू बक्र ने बग़ैर इसके कि उनसे गवाह लाने को कहें सिर्फ़ उनके कहने के साथ ही जितना उन्होने कहा था उन्हे दे दिया। (कवाकिब अद दरारी फ़ी शरहिल बुख़ारी भाग 10 पेज 125, फ़तहुल बारी फ़ी शरहिल बुख़ारी, भाग 4, पेज 375, उमदतुल क़ारी फ़ी शरहिल बुख़ारी 12।
इब्ने अबिल हदीद अपनी किताब शरहे नहजुल बलाग़ा के पेज नंबर 274 पर लिखते हैं कि हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) अबू बक्र के पास गई और उनसे कहा: मेरे बाबा ने फ़िदक मुझे अता किया था, अली व उम्मे ऐमन इस बात के गवाह हैं। अबू बक्र ने कहा कि बेशक तुम सच के सिवा कुछ भी अपने बाबा की तरफ़ निस्बत नही दोगी। मैं उसे तुम्हे लौटा दूंगा। उससे बाद उन्होने खाल का एक टुकड़ा मंगाया और फ़ातेमा के लिये फ़िदक को लिख दिया। आप वापस जा रही थीं कि रास्ते में उमर मिले। उमर ने पूछा ऐ फ़ातेमा कहां से आ रही हो? उन्होने कहा कि अबू बक्र के पास से आ रही हूं मैंने उनसे कहा कि अल्लाब के नबी (स) ने फ़िदक मुझे दे दिया था और अली व उम्मे ऐमन इस बात के गवाह हैं तो उन्होने फ़िदक मेरे नाम लिख कर दिया है।
उमर ने उस लिखे हुए प्रमाण को आपसे लिया और अबू बक्र के पास आये और कहा कि तुमने फ़िदक को फ़ातेमा के हवाले कर दिया व प्रमाण भी लिख कर दे दिया? अबू बक्र ने कहा, हां तो उमर ने कहा कि अली अपने फ़ायदे में गवाही दे रहे हैं और उम्मे ऐमन एक औरत है। उसके बाद उसने उस लिखे हुए प्रमाण पर थूक दिया और लिखे हुए को साफ़ कर दिया और उस प्रमाण पत्र को फाड़ कर फेंक दिया।