क्या शियों का मानना है कि क़ुरआने करीम में तहरीफ़ (परिवर्तन) हुई है??
आसमानी किताबों में दो प्रकार की तहरीफ़ अर्थात परिवर्तन की सम्भावना है।1. शाब्दिक परिवर्तन2. उसके अर्थ में परिवर्तन।
शाब्दिक परिवर्तन का मतलब यह है कि आसमानी किताब की आयतों या शब्दों को कम या ज़्यादा कर दिया जाए।अर्थ में परिवर्तन यह है कि आसमानी किताब की आयतों और वाक्यों के ग़लत अर्थ बयान किए जाएं जिसे पारिभाषिक ज़बान में “तफ़सीर बिर् राए” कहा जाता है।
क़ुरआन में अर्थ परिवर्तन के बारे में शोधकर्ता अधिकतर शाब्दिक परिवर्तन के हवाले से चर्चा करते हैं और वह भी मात्रात्मक (Quantitative) हिसाब से चूंकि इस पर तो सारे मुसलमान सहमत हैं कि क़ुरआन मजीद में कोई आयत या सूरा नहीं बढ़ाया गया है और क़ुरआन में इस प्रकार का कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।
लेकिन सूरों और आयतों की मात्रा के बारे में कुछ लोगों का मानना है कि उसमें से कुछ सूरे, आयतें या कुछ शब्द कम हो गए हैं और चूँकि कुछ शिया (विशेष कर इमामत के बारे में) इस प्रकार के अर्थ परिवर्तन को स्वीकार करते हैं तो इस को शियों के विरोधियों विशेष कर वहाबियों ने शियों के विरूद्ध प्रमाणित ऐतराज़ के रूप में पेश किया है।
हालांकि शियों के बड़े उल्मा के निकट यह दृष्टिकोण सरासर ग़लत है और उन्होंने ने साफ़ और स्पष्ट शब्दों में बल देकर कहा है कि है कि क़ुरआने करीम हर प्रकार की तहरीफ़ (कमी और अधिकता) से सुरक्षित है।
शियों की बहुमत का दृष्टिकोण यह है कि शाब्दिक परिवर्तन तो क़ुरआन मजीद में किसी लिहाज़ से सम्भव ही नहीं है और हमारा मौजूदा क़ुरआन वही क़ुरआन है जो अल्लाह की ओर से वही द्वारा पैग़म्बरे इस्लाम स.अ. पर उतरा है इसलिए प्राचीन युग से ही शिया उल्मा. भाष्यकार और फ़ुक़्हा व मुतकल्लेमीन ने इसकी ताकीद की है
जैसेः शेख़ सदूक़ (र.ह), शेख़ मुफ़ीद (र.ह) ,सय्यद मुर्तज़ा (र.ह), शेख़ तूसी (र.ह), अमीनुल इस्लाम तबरसी, अल्लामा हिल्ली (र.ह) मोहक़्क़्के करकी, शेख़ बहाई, मुल्ला मोहसिन फ़ैज़ काशानी, शेख़ जाफ़र काशेफ़ुल ग़ेता, शेख़ मुहम्मद हुसैन काशेफ़ुल ग़ेता, अल्लामा मोहसिन अमीनी, इमाम शरफ़ुद्दीन आमुली, अल्लामा अमीनी, अल्लामा तबातबाई,
इमाम ख़ुमैनी (र.ह) आयतुल्लाह ख़ूई (र.ह)।अधिकतर शिया उल्माल ने साफ़ शब्दों में कहा है की है कि क़ुरआने करीम हर प्रकार के शाब्दिक परिवर्तन (कमी व अधिकता) से सुरक्षित है चूँकि सारे उल्मा के कथनों व दृष्टिकोणों को बयान करने का स्थान नहीं है इसलिए उदाहरण स्वरूप हम केवल शेख़ सदूक़ (र.ह) और इमाम ख़ुमैनी (र.ह) के कथनों को प्रस्तुत कर रहे हैः
1. शेख़ सदूक़ अपनी किताब “एतेक़ादात” में लिखते हैं:” हमारा विश्वास यह है कि रसूले इस्लाम स.अ. पर जो क़ुरआन उतरा था वही क़ुरआन है जो इस समय मुसलमानों के बीच प्रचलित है और जो इंसान भी हमारी ओर यह निस्बत देता है कि हम इस बात के मानने वाले हैं कि क़ुरआन मजीद, मौजूदा क़ुरआन से अधिक था तो वह झूठा है।
इमाम ख़ुमैनी (र.ह) ने इस बारे में फ़रमाया है:जो इंसान भी क़ुरआन मजीद के हिफ़्ज़ और किताबत के बारे में मुसलमानों के प्रयासों से अवगत है तो वह तहरीफ़ के ग़लत होने से भी अच्छी तरह से अवगत होगा और जिन रिवायतों से तहरीफ़ को सिद्ध किया जाता है वह रिवायतें या तो प्रमाण के हिसाब से कमज़ोर हैं और उन्हें दलील नहीं बनाया जा सकता या बिल्कुल नक़ली व गढ़ी हुई हैं और उनके नक़ली व गढ़े होने के स्पष्ट प्रमाण मौजूद हैं यद्धपि जो रिवायतें विश्वास करने योग्य हैं उनका मतलब यह है कि क़ुरआन मजीद में व्याख्या व तावील के हिसाब से परिवर्तन हुआ है न कि उसके शब्दों और इबारत में कोई तब्दीली हुई है।
इमाम ख़ुमैनी (र.ह) के इस कथन में दो बिंदुओं पर ध्यान दिया गया है :एक तो क़ुरआने मजीद तहरीफ़ व परिवर्तन से सुरक्षित है और दूसरे परिवर्तन के स्वीकार करने वालों के दृष्टिकोण पर टिप्पणी की गई है।
परिवर्तन न होने का प्रमाण यह है कि मुसलमानों ने क़ुरआन मजीद के बारे में हमेशा विशेष ध्यान रखा है और कभी भी उसकी सुरक्षा के बारे में किसी भी प्रकार की कोशिश से लापरवाही नहीं की है यहाँ तक कि जब खुलफ़ा के युग में क़ुरआन मजीद के परिवर्तन का मुद्दा सामने आया और दूसरे ख़लीफ़ा ने “रजम” के नाम से एक आयत पेश की तो मुसलमानों ने स्वीकार नहीं किया क्यूँकि किसी ने भी उनके दृष्टिकोण का समर्थन नहीं किया।
तहरीफ़ का इंकार करने वालों ने इस प्रमाण को हमेशा महत्व की निगाह से देखा है सय्यद मुर्तज़ा (र.ह) फ़रमाते हैं
’’ان العنایۃ اشتدت والدواعی توفرت علیٰ نقلہ وحراستہ ۔۔۔۔۔۔فکیف یجوز ان یکون مغیراً او منقوصاًمع العنایۃ الصادقۃ والضبط الشدید
तहरीफ़ के ग़लत व असत्य होने के बारे में और भी प्रमाण हैं लेकिन इस स्थान पर उनको बयान करने का समय नहीं है।दूसरे यह कि (कमी द्वारा) तहरीफ़ को मानने वालों ने कुछ रिवायतों से विवेचन किया है जिनसे देखने में तहरीफ़ का पता चलता है, इसका जवाब यह है कि या तो इन रिवायतों के सोर्स का कोई एतेबार नहीं है इसलिए उनसे विवेचन नहीं किया जा सकता।
या उनका नक़ली व गढ़ा होना बिल्कुल स्पष्ट है और अगर मान भी लिया जाए कि इस बारे में कोई सही रिवायत मौजूद भी हो तो उसका स्पष्टीकरण सम्भव है कि उससे मतलब में तहरीफ़ मुराद है न कि शाब्दिक परिवर्तन।
अधिकांश शिया उल्मा व रिसर्चर के दृष्टिकोण के अनुसार क़ुरआन मजीद का हर कमी व अधिकता से सुरक्षित होना एक ऐसी वास्तविकता है जिसे कुछ उल्माए अहले सुन्नत ने भी स्वीकार किया है और उन्होंने शिया मज़हब के दामन को तहरीफ़ के आरोपों से पाक समझा है जैसा कि शेख़ रहमुतल्लाह हिन्दी ने अपनी प्रसिद्ध किताब ”इज़हारुल हक़ “में लिखा है:”अधिकांश शिया उल्मा के दृष्टिकोण के अनुसार क़ुरआने करीम हर प्रकार की तहराफ़ व परिवर्तन से सुरक्षित है और शिया हज़रात कमी द्वारा तहरीफ़ के दृष्टिकोण को असत्य व ग़लत समझते हैं।
“जामेअतुल अज़हर के उस्ताद शेख़ मोहम्मद मदनी इस बारे में कहते हैं:”इमामिया समुदाय कदापि क़ुरआन मजीद की आयतों या सूरों में तहरीफ़ का विश्वास नहीं रखता है यद्धपि इस बारे में उनकी हदीस की किताबों में कुछ रिवायतें ज़रूर नक़्ल हुई हैं, बिल्कुल उसी तरह जैसे हमारे (अहले सुन्नत) यहाँ भी इस प्रकार की रिवायते मौजूद हैं और शिया व सुन्नी दोनों मज़हबों के उल्मा व रिसर्चर उन्हें ग़लत समझते हैं, जो इंसान भी स्यूती की किताब अल इतक़ान को पढ़े उसे इस प्रकार की रिवायतें मिल जाएंगी जो हमारी निगाह में विश्वासपात्र और मान्य नहीं हैं, शियों के बड़े उल्मा भी क़ुरआन की तहरीफ़ और कमी से सम्बंधित रिवायतों को ग़लत मानते हैं।
“उस्ताद मदनी ने यह भी स्पष्ट किया है कि अगर कोई शिया या सुन्नी इन ग़लत और कमज़ोर रिवायतों के आधार पर क़ुरआन की तहरीफ़ को माने तो उसके निजी दृष्टिकोण को उस धर्म का अक़ीदा नहीं कहा जा सकता है जैसा कि मिस्र के एक विद्धान ने ”अलफ़ुरक़ान “नामक किताब लिखी और इसमें क़ुरआन में कमी से सम्बंधित रिवायतें जमा की हैं लेकिन अल अज़हर युनिवर्सिटी ने इस किताब को निराधार सिद्ध करने के बाद हुकूमत से इस किताब पर पाबंदी लगाने और कापी ज़ब्त करने की मांग की और मिस्री हुकूमत ने उस पर पाबंदी लगा दी।इस आधार पर जो वहाबी शियों पर तहरीफ़ का आरोप लगाते हैं और तहरीप़ व परिवर्तन के ग़लत साबित करने से सम्बंधित इतने स्पष्ट कथनों के इंकार करने वाले हैं उसे इंसाफ़ से दूरी, उनकी हटधर्मी और गुमराही के अतिरिक्त कुछ और नहीं कहा जा सकता है।