क़यामत के लिये ज़खीरा
क़यामत के लिये ज़खीरा
आज जबकि हमारे पास फ़ुरसत है हमें क़यामत के लिये ज़खीरे की फ़िक्र में होना चाहिये। अमीरुल मोमिनीन (अलैहिस्सलाम) फ़रमाते हैं कि अगर वह चीज़ें जो मुर्दों ने देखी हैं तुम भी देख सकते तो यक़ीनन तुम्हारी दूसरी हालत होती और तुम अपने कामों का जायज़ा लेते।[13]
एक दूसरी हदीस में फ़रमाते हैं कि दुनिया अमल की जगह है हिसाब की नही और आख़िरत हिसाब की जगह है अमल की नही।[14] (न अपने आमाल में किसी नेकी का इज़ाफ़ा कर सकते हैं न ही किसी गुनाह को मिटा सकते हैं)
इसी वजह से और इस दलील के साथ कि मुर्दे उस दुनिया में कोई अमल नही कर सकते, कोई ज़िक्र नही कर सकते जिससे उनकी नेकी में इज़ाफ़ा हो जाये, वह तुम्हारी ज़िन्दगी पर हसरत करेंगें, जबकि हमारी हालत उनसे अलग है और हम ग़लतियों को दूर कर सकते हैं।
एक लफ़्ज़ में जो नमाज़ें पढ़ी हैं, रोज़े रखे हैं, अपने घर वालों और साथियों के साथ जो अच्छे अख़लाक़ और सुलूक के साथ पेश आये हैं और हर नेक काम जो अंजाम दिये हैं, सबकी सिला अल्लाह तअला के हाथ में है, लेकिन इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) के लिये काम और ज़हमत इन सबसे अलग है और ख़ुद हज़रत इन सब का देखेगें और उसका सिला देंगें। ख़ुश कीमत वह है जिसने इमाम हुसैन (अलैहिस्लाम) के लिये ज़्यादा ज़हमतें बर्दाश्त की हैं।
शायद किसी के ज़हन में यह बात आये कि क्या ऐसा हो सकता है? तो हम यह कह सकते है कि अल्लाह तअला इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) के लिये औरों से कुछ ज़्यादा का क़ायल है और वह किसी के लिये भी ऐसा नही है यहाँ तक कि चौदह मासूमीन के लिये भी नही। जैसे जैसे बहुत से अमल बहुत सी जगह पर मकरूह है मगर इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) के लिये मुसतहब, फ़ज़ीलत और सवाब में शुमार किया गया है जैसे बहुत सी हदीसों के मुताबिक़ बग़ैर जूते या चप्प्ल के नंगे पाव चलना मकरूह है चाहे जगह साफ़ सुथरी हो और दूसरे यह कि वह लोग जिनका लिबास मख़सूस है जैसे अहले क़लम कि उनका लिबास अबा या रिदा है, उनके लिये उसके बग़ैर बाहर निकलना मकरूह है यह दोनो चीज़ें पूरे साल मकरूह हैं लेकिन अब्दुल्लाह इब्ने सेनान की सही हदीस के मुताबिक़,
आज जबकि हमारे पास फ़ुरसत है हमें क़यामत के लिये ज़खीरे की फ़िक्र में होना चाहिये। अमीरुल मोमिनीन (अलैहिस्सलाम) फ़रमाते हैं कि अगर वह चीज़ें जो मुर्दों ने देखी हैं तुम भी देख सकते तो यक़ीनन तुम्हारी दूसरी हालत होती और तुम अपने कामों का जायज़ा लेते।[13]
एक दूसरी हदीस में फ़रमाते हैं कि दुनिया अमल की जगह है हिसाब की नही और आख़िरत हिसाब की जगह है अमल की नही।[14] (न अपने आमाल में किसी नेकी का इज़ाफ़ा कर सकते हैं न ही किसी गुनाह को मिटा सकते हैं)
इसी वजह से और इस दलील के साथ कि मुर्दे उस दुनिया में कोई अमल नही कर सकते, कोई ज़िक्र नही कर सकते जिससे उनकी नेकी में इज़ाफ़ा हो जाये, वह तुम्हारी ज़िन्दगी पर हसरत करेंगें, जबकि हमारी हालत उनसे अलग है और हम ग़लतियों को दूर कर सकते हैं।
एक लफ़्ज़ में जो नमाज़ें पढ़ी हैं, रोज़े रखे हैं, अपने घर वालों और साथियों के साथ जो अच्छे अख़लाक़ और सुलूक के साथ पेश आये हैं और हर नेक काम जो अंजाम दिये हैं, सबकी सिला अल्लाह तअला के हाथ में है, लेकिन इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) के लिये काम और ज़हमत इन सबसे अलग है और ख़ुद हज़रत इन सब का देखेगें और उसका सिला देंगें। ख़ुश कीमत वह है जिसने इमाम हुसैन (अलैहिस्लाम) के लिये ज़्यादा ज़हमतें बर्दाश्त की हैं।
शायद किसी के ज़हन में यह बात आये कि क्या ऐसा हो सकता है? तो हम यह कह सकते है कि अल्लाह तअला इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) के लिये औरों से कुछ ज़्यादा का क़ायल है और वह किसी के लिये भी ऐसा नही है यहाँ तक कि चौदह मासूमीन के लिये भी नही। जैसे जैसे बहुत से अमल बहुत सी जगह पर मकरूह है मगर इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) के लिये मुसतहब, फ़ज़ीलत और सवाब में शुमार किया गया है जैसे बहुत सी हदीसों के मुताबिक़ बग़ैर जूते या चप्प्ल के नंगे पाव चलना मकरूह है चाहे जगह साफ़ सुथरी हो और दूसरे यह कि वह लोग जिनका लिबास मख़सूस है जैसे अहले क़लम कि उनका लिबास अबा या रिदा है, उनके लिये उसके बग़ैर बाहर निकलना मकरूह है यह दोनो चीज़ें पूरे साल मकरूह हैं लेकिन अब्दुल्लाह इब्ने सेनान की सही हदीस के मुताबिक़,