हज़रत अली (अ) की वसीयत
इबरत हासिल करने की अहमियत और क़द्र व मंज़िलत उस वक़्त बेहतर तौर पर मालूम होती है जब हम देखते हैं हज़रत अमीरल मोमिनीन (अ) ने सिफ़्फ़ीन से वापसी के मौक़े पर ''हाज़िरीन'' में अपने फ़रज़ंदे अरजुमंद हज़रते इमामे हसन के नाम एक वसीयत नामा तहरीर फ़रमाया और उसमें ताकीद फ़रमाई: ''ऐ मेरे बेटे अगरचे मैने उतनी उमर नही पाई जितनी मुझसे पहले वालों की हुआ करती थी लेकिन मैंने उनके आमाल पर ग़ौर किया, उनकी बातों में फ़िक्र की है और उनके आसार में सैर व सयाहत की है, इस तरह कि गोया मैं उन्ही में से एक हो गया हूँ बल्कि उनके बारे में अपनी मालूमात की बिना पर इस तरह हो गया हूँ जैसे पहले से आख़िर तक मैं उनके साथ रहा हूँ।''
इस गराँ बहा वसीयत नामे के मुक़द्दस जुम्लों से ये वाज़ेह हो जाता है कि इबरत हासिल करने और गुज़िश्तेगान की तारीख़, उनके आसार और उनकी बातों में ग़ौर व फ़िक्र के ज़रिये इंसान अपने अंदर इतने तजरुबों को समो सकता है कि गोया वह गुज़िश्ता लोगों के साथ मुख़्तलिफ़ ज़मानों में रहा हो। इसी लिये कहा गया है कि इबरत हासिल करने से इंसान की उमर बड़ जाती है क्योंकि मुम्किन है इंसान की ज़ाहिरी उमर साठ या सत्तर साल हो लेकिन जब वह तारीख़ से इबरत हासिल कर लेता है तो उसकी हक़ीक़ी उमर में बे पनाह इज़ाफ़ा हो जाता है। वह जिस क़द्ग तारीख़ से इबरत हासिल करता है, उतना ही उमर में इज़ाफ़ा हो जाता है जिसकी वजह से उसकी हक़ीक़ी उमर ज़ाहिरी उमर के बर ख़िलाफ़ साठ सत्तर हज़ार साल हो जाती है, इस लिये कि अब वह अकेला इंसान नही रह जाता बल्कि हज़ारों साल की तारीख़ और उसमें मौजूद इंसानों के तजुरबात को अपने अंदर समो लेता है।