तबर्रा कितना सहीह कितना ग़लत?
जब लानत मलामत और अपमानित करने का द्वार खुलता है, तो उसका उत्तर भी मिलता है, अगर आप किसी के विश्वासों और आस्थाओं का मज़ाक़ उड़ाएंगे तो वह भी आपके साथ वैसा ही करेगा, क्या यह सहीह है कि हमारी नासमझी या हमारे ग़लत कार्यों के कारण अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम की तौहीन और अनका अपमान किया जाए? अगर हम मुसलमान होने का दावा करते हैं और अपने आपको शिया कहते हैं तो ज़रूरी है कि हम अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम के सारे आदेशों का पालन करें न यह कि एक हदीस को ले लें उसी के बारे में बात करें, मिंबरों पर बोले लेकिन उसके बारे में न ग़ौर करें और न ही दूसरी हदीसों को देखें।
अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम की पवित्र जीवनी और उनकी शैली में जो चीज़ हमको सबसे अधिक दिखाई देती है वह अहले सुन्नत के साथ उनका सौहार्द है और मेल मिलाप के साथ जीवन व्यतीत करना है और मुसलमानों के बीच एकता का माहौल बनाए रखना है। मुसलमानों के बीच एकता एक ऐसा विषय है जो हमेशा से ही बहुत संवेदनशील रहा है और आज के युग में इसका महत्व और अधिक बढ़ गया है क्योंकि आज इस्लाम दुश्मन शक्तियां शिया और सुन्नियों के बीच गंभीर और संवेदनशील मुद्दों को उठाकर इस एकता को समाप्त करके इस्लाम को हानि पहुँचाना चाहते हैं। सुन्नी और शियों के बीच एकता का अर्थ यह नहीं है हम एक दूसरे के अक़ीदों और विश्वासों को अपना लें बल्कि एकता का अर्थ यह है कि हम एक दूसरे को सम्मान दें। एक दूसरे के अधिकारों का सम्मान करें और एक दूसरे के साथ सौहार्द के साथ जीवन व्यतीत करें और शत्रु के आक्रमण के समय दोनों एक साथ इस्लाम के दो शक्तिशाली बाज़ू बनकर उसके सामने डट जाएं।
हमारे मासूम इमामों की हमेशा यह शैली व रविश रही है कि उन्होंने कभी किसी का दिल नहीं दुखाया अगर हम उनके शैली पर जीवन व्यतीत करें तो इस समय इस्लामी दुनिया के बहुत से मसअले हल हो सकते हैं, इस लेख में हम आपके सामने कुछ हदीसों को पेश कर रहे हैं जो हमको दिखाती है कि एक शिया को कैसा होना चाहिए और हमारे मासूमीन अलैहिमुस्सलाम हमको किस प्रकार का देखना चाहते है
1. दूसरे की आस्थाओं का मज़ाक़ उड़ाना मना है। जनाबे शेख़ सदूक़ ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "अल एतेक़ादात" में एक रिवायत बयान की है जो इस प्रकार हैः एक व्यक्ति इमाम जाफ़र सादिक़ अ. के पास आता है और आप से कहता हैः मस्जिद में एक व्यक्ति सबके सामने आपके शत्रुओं को बुरा भला कहता है। इमाम सादिक़ (अ) ने फ़रमायाः उसको क्या हो गया है? अल्लाह उस पर लानत करे, क्योंकि वह हमको अपमान के स्थान पर ले जा रहा है। फ़िर आपने फ़रमायाः
مَا لَهُ- لَعَنَهُ اللَّهُ- یَعْرِضُ بِنَا
"जब अपमान और मज़ाक़ का द्वार खुलता है तो बिना जवाब के नहीं रहता है अगर आप किसी की आस्थाओं का विश्वासों का मज़ाक़ उड़ाएंगे तो वह भी ऐसा ही करेगा। क्या यह अच्छा है कि हमारी नासमझी और बुरे कार्यों के कारण अहलेबैत और मासूमीन अलैहिमुस्सलाम को बुरा भला कहा जाए? इस रिवायत में ध्यान देने वाली बात यह है कि इमाम सादिक़ (अ) ने यह नहीं फ़रमाया कि उसने ग़लत कार्य किया है बल्कि न केवल यह कि आप उससे क्रोधित हुए बल्कि फ़रमाया उसको क्या हो गया है? (यानी क्या उसको अपने इस कार्य का नतीजा पता है?) और इससे बढ़कर यह कि आपने उस व्यक्ति पर लानत की है और यह आपके क्रोध की इन्तेहा को दिखाता है। यह बुरा भला कहना चाहे किसी भी प्रकार का हो और चाहे किसी भी सूरत में ही क्यों न हो ग़लत है चाहे आपकी नियत यह हो कि इस प्रकार किसी को सहीह रास्ता दिखाएं और उसके लिये ऐसे शब्दों का प्रयोग करें जिसको सामने वाला ग़लत समझता हो तो आपका इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग करना सहीह नहीं है।
इसी प्रकार बुरा भला कहने में किसी का सामने होना आवश्यक नहीं है बल्कि आज किसी दुनिया में हम अगर किसी सोशल साइट पर कोई अपमान जनक टिप्पणी करते हैं या फेसबुक पर कोई अपमानित करने वाला फोटो, वीडियों कमेंट या... करते हैं तो यह सभी आस्थाओं का मज़ाक़ उड़ाना ही है जिसके बारे में हमारे मासूमीन अलैहिमुस्सलाम ने मना किया है और ऐसा करने वालों पर लानत की है अब फ़ैसला हमारे हाथों में है कि हम मौलवियों के लिबास में इस्लाम को दुश्मनों (M.i6) की बात को मानते हुए इस प्रकार का कार्य करते हैं या फिर अपने इमाम का अनुसरण करते हुए इस प्रकार के कार्यों से बचते हैं और एक सौहार्दपूर्ण माहौल बनाए रखते हैं।
2. अच्छा व्यवहार वह व्यक्ति अपने आपको शिया और जाफ़री कहता है उसका कार्य अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम के आदेशों का पालन करना होना चाहिये न यह कि कुछ को माने और कुछ को न माने
(یومن ببعض و یکفر ببعض)
जनाबे शेख़ सदूक़ अपने किताब "अल महासिन" में लिखते हैं: इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) ने अपने इस सहाबी से फ़रमायाः मैने सुना है कि किसी ने अगर कोई तुम्हारे सामने अली (अ) को बुरा भला कहे और अगर तुम्हारे पास शक्ति होगी तो उससे विरुद्ध कड़ा रुख़ दिखाओगे? उस सहाबी ने कहाः हां, मेरी जान आप पर क़ुरबान हो जाए मेरे आक़ा, मैं और मेरा परिवार ऐसा ही है।(इस बात पर ध्यान दें) इमाम ने उस व्यक्ति से फ़रमायाः ऐसा न करे। अल्लाह की सौगंध बहुत बार ऐसा हुआ है कि कोई अली (अ) को बुरा भला कह रहा हो, जबकि मेरे और उसके बीच केवल एक खंबे का फ़ासला था।लेकिन मैं अपने आप को उस खंबे के पीछे छिपा लेता था और जब मेरी नमाज़ समाप्त हो जाती थी उसके पास से गुज़रता था और उसको सलाम करता था और उससे मुसाफ़ेहा करता था।
हमारा अपने आप से सवाल! हम किस कार्य को पसंद करेंगे?सहाबी के कार्य को या फिर उस इमाम अलैहिस्सलाम के कार्य को जिसका अनुसरण हम पर वाजिब है। बहुस संभव है कि सहाबी का कार्य उसके दिल को ठंडक पहुँचा दे, उसके क्रोध को कुछ कम कर दे, लेकिन हमारे इमाम इस व्यवहार को पसंद नहीं करते हैं।क्यों? क्योंकि इस व्यवहार से किसी को सहीह रास्ते पर नहीं लाया जा सकता है, बल्कि यह व्यवहार उस बुरा भला करने वालों को अड़ियल और हठधर्मि बनाता है। क्या यह बुरा है कि कोई अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम का चाहने वाला हो? अगरचे उनको अपना इमाम न मानता हो। अगर हमको यह करना है तो हमको अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम का रास्ता चुनना होगा क्योंकि हमारी शैली से न केवल यह कि कोई अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम का चाहने वाला नहीं हो सकता बल्कि अपने रवय्ये पर और अड़ियल हो जाएगा, अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम से दूर होगा।
3. अच्छे अनुयायी बनें ताकि हमारे इमाम ए मासूमीन अलैहिमुस्सलाम को अच्छे शब्दों में याद किया जाए।
जनाबे शेख़ सदूक़ की प्रसिद्ध किताब "मन ला यहज़ोरोहुल फ़क़ीह" जो कि शियों की चार प्रसिद्ध किताबों में से एक है यह रिवायत बयान हुई हैः इमाम सादिक़ (अ) ने अपने एक सहाबी से फ़रमायाः लोगों (अहले सुन्नत) के साथ उनके अख़लाक़ और अदब के साथ रहो, उनकी मस्जिदों में नमाज़ पढ़ो, उनके मरीज़ों को देखने जाओ, उनके जनाज़ों में शरीक हो, अगर उनके इमामे जमाअत या मोअज़्ज़िन हो जाओ तो अगर इन कार्यों को करोगे तो वह कहेंगे यह जाफ़री शिया है, अल्लाह जाफ़र पर रहम करे अपने अनुयायियों को कितना अच्छा प्रशिक्षण दिया है और अगर इन कार्यों को नहीं करोगे तो वह कहेंगे अल्लाह जाफ़र से बदला ले कितने बुरे अनुयायी छोड़े हैं। इस हदीस से कुछ नुक्ते समझ में आते हैं:
1. इमाम की सीख है कि सौहार्दपूर्ण और दुश्मनी से दूर जीवन व्यतीत करो।
2. इस हदीस से समझ में आता है कि शिया और सुन्नियों के बीच आना जाना और मेल मिलाप बना रहे, ऐसा न हो कि आप उनको और वह आपको अपना दुश्मन समझें।
3. मुलाक़ातों में अदब का ख़याल रखों, ऐसा न हो कि किसी का दिल दुखा दो।
4. जब हदीस में यह कहा गया है कि उनके मरीज़ों को देखने जाओ तो इसका अर्थ यह है कि लगातार उनका हालचाल पूछते रहों, ऐसा न हो कि जब तुम एकदम से उनके मरीज़ के बारे में पूछो तो वह सोचें कि इनको कैसे पता चला कि हमारे यहां कोई बीमार है, क्या यह हमारी जासूसी कर रहे हैं?
5. जनाज़े में शामिल होना दिखाता है कि आप मरने वाले के परिवार वालों का सम्मान करते हैं।
6. उनकी मस्जिदों में नमाज़ पढ़ो यह न कहो कि वह सुन्नियों की मस्जिद है इसलिये मैं वहां नहीं पढ़ूंगा, और इस प्रकार दोस्ती और मोहब्बत का माहौल बनाए रखो।
7. इस हदीस का सबसे हमत्वपूर्ण और संवेदशील नुक्ता जो आपने फ़रमाया है वह यह है कि अगर तुम उनके इमाम जमाअत हो जाओ, यह चीज़ हमको सिखाती है कि उनके साथ इस प्रकार से व्यवहार करो, उनसे इतना मिलजुल कर रहो कि वह तुमसे मोहब्बत करने लगे, और जब वह तुमसे मोहब्बत करने लगेंगे तो तुमको अपनी नमाज़ों के लिये इमाम बनाएंगे। अब प्रश्न यह है कि जो इन्सान उनके विश्वासों, उनकी आस्थाओं का मज़ाक़ उड़ाता होगा क्या वह उससे मोहब्बत करेंगे? और उसको अपना इमाम बनाएंगे?
8. अन्तिम बात यह है कि शिया अगर तुमने हमारे आदेशा का पालन किया तो तुमने हमारी इज़्ज़त रखी है और अगर नहीं किया तो हमको अपमानित किया है क्योंकि तुम हमसे जुड़े हुए हो।
4. हमारी इज़्ज़त बनो। ऐ अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम के चाहने वालों! अहले सुन्नत के साथ व्यवहार में तुम अली (अ) और उनके सहाबियों के जैसा व्यवहार क्यों नहीं करते हो? यह मेरा कहना नहीं है बल्कि हमारे छठे इमाम फ़रमा रहे हैं।
जनाबे शेख़ तबरसी की किताब "मिशकातुल अनवार" में रिवायत है कि इमाम सादिक़ (अ) ने शियों को संबोधित करके फ़रमायाः ऐ शियों! तुम हमसे जुड़े हो तो हमारे लिये इज्ज़त का कारण बनों ज़िल्लत का नहीं। तुम क्यों अली (अ) के साथियों जैसा बरताओ नहीं करते हो? यह लोग जब दूसरे मुसलमानों के साथ होते थे तो उनके मोअज़्ज़िन होते थे, उनकी अमानतों की सुरक्षा करते थे, तुम भी उनके मरीज़ों को देखने जाओ, उनके जनाज़ों में शरीक हो, उनकी मस्जिदों में नमाज़ पढ़ो। इज़्ज़त बनने का अर्थ यह है कि हमारा व्यवहार इतना अच्छा हो कि जब वह हमको देखें तो सवाल करें कि यह किसका मानने वाला है? और जब उनको यह उत्तर मिले कि अली (अ) का मानने वाला है तो उनके दिलों में अली (अ) के लिये मोहब्बत बढ़ जाए।
अंत में आइये हम और आप इस प्रकार की हदीसों को अपने जीवन में स्थान दें। क्या वास्तव में हम इस प्रकार की हदीसों को महत्व देते हैं? अगर हमारा उत्तर हां है, तो आज शिया और सुन्नियों के बीच क्यों इतना फ़ासला है, इन फ़ासलों को कम करने के लिये किसी न किसी को तो पहला क़दम उठाना ही पड़ेगा तो वह पहला क़दम हम क्यों न उठाएं।
Ref: *(पहली हदीस "अल एतेक़ादात, पेज 710 / दूसरी हदीस" अलमहासिन, जिल्द 1, पेज 206 / तीसरी हदीस "मन ला यहज़ोरोहुल फ़क़ीह, जिल्द 1, पेज 383 / चौथी हदीस "मिशकातुल अनवार, पेज 67)