एक से ज़्यादा शादियाँ
मौजूदा ज़माने का सबसे गर्म विषय एक से ज़्यादा शादियाँ करने का मसला है। जिसे बुनियाद बना कर पच्छिमी दुनिया ने औरतों को इस्लाम के ख़िलाफ़ ख़ूब इस्तेमाल किया है और मुसलमान औरतों को भी यह यक़ीन दिलाने की कोशिश की है कि एक से ज़्यादा शादियों का क़ानून औरतों के साथ नाइंसाफ़ी है और उनकी तहक़ीर व तौहीन का बेहतरीन ज़रिया है गोया औरत अपने शौहर की मुकम्मल मुहब्बत की भी हक़दार नही हो सकती है और उसे शौहर की आमदनी की तरह उसकी मुहब्बत को भी मुख़्तलिफ़ हिस्सों में तक़सीम करना पड़ेगा और आख़िर में जिस क़दर हिस्सा अपनी क़िस्मत में लिखा होगा उसी पर इक्तेफ़ा करना पड़ेगा।
औरत का मेज़ाज हस्सास होता है लिहाज़ा उस पर इस तरह की हर तक़रीर का बा क़ायदा तौर पर असर अंदाज़ हो सकती है और यही वजह है कि मुसलमान मुफ़क्केरीन ने इस्लाम और पच्छिमी सभ्यता को एक साथ करने के लिये और अपने गुमान के अनुसार इस्लाम को बदनामी से बचाने के लिये तरह तरह की ताविलें की हैं और नतीजे के तौर पर यह ज़ाहिर करना चाहा है कि इस्लाम ने यह क़ानून सिर्फ़ मर्दों की तसकीने क़ल्ब के लिये बना दिया है वर्ना इस पर अमल करना मुमकिन नही है और न इस्लाम यह चाहता है कि कोई मुसलमान इस क़ानून पर अमल करे और इसी तरह औरतों के जज़्बात को मजरूह बनाये। उन बेचारे मुफ़क्केरीन ने यह सोचने की भी ज़हमत नही की है कि इस तरह क़ुरआन के अल्फ़ाज़ की तावील तो की जा सकती है और क़ुरआने मजीद को मग़रिब नवाज़ क़ानून साबित किया जा सकता है लेकिन इस्लाम के संस्थापकों और बड़ों को सीरत का क्या होगा। जिन्होने अमली तौर पर इस क़ानून पर अमल किया है और एक समय में कई शादियाँ की हैं जबकि उनके ज़ाहिरी इक़्तेसादी हालात भी ऐसे नही थे जैसे आज कल के बे शुमार मुसलमानों के हैं और उनके किरदार में किसी क़दर अदालत और इँसाफ़ क्यो न फ़र्ज़ कर लिया जाये औरत की फ़ितरत का तब्दील होना मुमकिन नही है और उसे यह अहसास बहरहाल रहेगा कि मेरे शौहर की तवज्जो या मुहब्बत मेरे अलावा दूसरी औरतों से भी मुतअल्लिक़ है।
मसले के तफ़सीलात में जाने के लिये बड़ा समय चाहिये मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि इस्लाम के ख़िलाफ़ यह मोर्चा उन लोगों ने खोला है जिनके यहाँ औरत से मुहब्बत का कोई विभाग ही नही है और उनके निज़ाम में शौहर या बीवी की अपनाईय का कोई तसव्वुर ही नही है। यह और बात है कि उनकी शादी को लव मैरेज से ताबीर किया जाता है लेकिन शादी का यह अंदाज़ ख़ुद इस बात की अलामत है कि इंसान ने अपनी मुहब्बत के मुख़्तलिफ़ केन्द्र बनाएँ हैं और आख़िर में इस जिन्सी क़ाफ़ेले को एक ही केन्द्र पर ठहरा दिया है और इन हालात में उस ख़ालिस मुहब्बत का कोई तसव्वुर ही नही हो सकता है जिसका इस्लाम से मुतालेबा किया जा रहा है।
इसके अलावा इस्लाम ने तो बीवी के अलावा किसी से मुहब्बत को जायज़ भी नही रखा है और बीवियों का संख्या भी सीमित रखी है और निकाह के लिये शर्तें भी बयान कर दी हैं। पच्छिमी समाज में तो आज भी यह क़ानून आम है कि हर मर्द की बीवी एक ही होगी चाहे उसकी महबूबाएँ जितनी भी हों। सवाल यह पैदा होता है कि क्या यह महबूबा मुहब्बत के अलावा किसी और रिश्ते से पैदा होती है? और अगर मुहब्बत से ही पैदा होती है तो क्या यह मुहब्बत की तक़सीम के अलावा कोई और चीज़ है? सच्ची बात तो यह है कि शादी शुदा ज़िन्दगी की ज़िम्मेदारियों और घरेलू ज़िन्दगी से फ़रायज़ से फ़रार करने के लिये पच्छिमी समाज ने अय्याशी का नया रास्ता निकाला है और औरत को बाज़ार में बिकने वाली चीज़ बना दिया है और यह ग़रीब आज भी ख़ुश है कि पच्छिमी दुनिया ने हमें हर तरह की आज़ादी दी है और इस्लाम ने हमें पाबंद बना दिया है।
यह सही है कि अगर किसी बच्चे को दरिया के किनारे मौजों का तमाशा करते हुए अगर वह छलाँग लगाने का इरादा करे और उसे छोड़ दिया जाएं तो यक़ीनन वह ख़ुश होगा कि आपने उसकी ख़्वाहिश का ऐहतेराम किया है और उसके जज़्बात पर पाबंदी नही लगाई है चाहे उसके बाद वह डूब कर मर ही क्यों न जाये लेकिन अगर उसे रोक दिया जाये तो वह यक़ीनन नाराज़ हो जायेगा चाहे उसमें जिन्दगी की राज़ ही क्यो न हो। पच्छिमी औरत की सूरते हाल इस मसले में बिल्कुल ऐसी ही है कि उसे आज़ादी की ख़्वाहिश है और वह हर तरह से अपनी आज़ादी को इस्तेमाल करना चाहती है और करती है लेकिन जब मुख़्तलिफ़ बीमारियों में घिर कर दुनिया के लिये ना क़ाबिले तवज्जो हो जाती है और कोई उससे मुहब्बत का इज़हार करने वाला नही मिलता है तो उसे अपनी आज़ादी के नुक़सानात का अंदाज़ा होता है लेकिन उस समय मौक़ा हाथ से निकल चुका होता है और इंसान के पास अफ़सोस करने के अलावा कोई चारा नही होता।
कई शादियों के मसले पर अच्छी तरह से सोच विचार किया जाये तो यह एक बुनियादी मसला है जो दुनिया के बेशुमार मसलों को हल है और अदुभुत बात यह है कि दुनिया की बढ़ती हुई आबादी और खाने की कमी को देख कर बच्चे कम होने और बर्थ कंटरोल करने का ध्यान तो सारे लोगों के दिल में पैदा हुआ लेकिन औरतों के ज़्यादा होने और मर्दों की संख्या कम होने से पैदा होने वाली मुश्किल का हल तलाश करने का ख़्याल किसी के ज़हन में नही आया।
दुनिया की आबादी की संख्या के अनुसार अगर यह बात सही है कि औरतों की आबादी मर्दों से कहीं ज़्यादा है तो एक बुनियादी सवाल यह पैदा होता है कि इस बढ़ती हुई आबादी का अंजाम क्या होगा। इसके लिये एक रास्ता यहा है कि उसे घुट घुट कर मरने दिया जाये और उसके जिन्सी जज़्बात की तसकीन का कोई इंतेज़ाम न किया जाये। यह काम जाबेराना राजनिती तो कर सकती है लेकिन करीमाना शरीयत
नही कर सकती है और दूसरा रास्ता यह है कि उसे अय्याशियों के लिये आज़ाद कर दिया जाये और उसे किसी से भी अपनी जिन्सी तसकीन का इख़्तियार दे दिया जाये।
यह बात सिर्फ़ क़ानून की हद तक तो कई शादी वाले मसले से जुदा है लेकिन अमली तौर पर उसी की दूसरी शक्ल है कि हर इंसान के पास एक औरत बीवी के नाम से होगी और एक किसी और नाम से होगी और दोनो में सुलूक, बर्ताव और मुहब्बत का फ़र्क़ रहेगा कि एक उसकी मुहब्बत का केन्द्र बन कर रहेगी और दूसरी उसकी ख़्वाहिश का। इँसाफ़ से विचार किया जाये कि क्या यह दूसरी औरत की तौहीन नही है कि उसे औरत के आदर व ऐहतेराम से महरुम करके सिर्फ़ जिन्सी तसकीन तक सीमित कर दिया जाये और क्या इस सूरत में यह इमकान नही पाया जाता है और ऐसे अनुभव सामने नही हैं कि इज़ाफ़ी औरत ही मुहब्बत का असली केन्द्र बन जाये और जिसे केन्द्र बनाया था उसकी केन्द्रता का ख़ात्मा हो जाये।
कुछ लोगों ने इसका हल यह निकालने की कोशिश की है कि औरतों की आबादी यक़ीनन ज़्यादा है लेकिन जो औरतें माली तौर पर मुतमईन होती हैं उन्हे शादी की ज़रुरत नही होती है और इस तरह दोनो का औसत बराबर हो जाता है और कई शादियों की कोई ज़रुरत नही रह जाती। लेकिन यह तसव्वुर इंतेहाई जाहिलाना और बेक़ूफ़ाना है और यह जान बूझ कर आँखें बंद कर लेने की तरह है। इसलिये कि शौहर की ज़रुरत सिर्फ़ माली बुनियादों पर होती है और जब माली हालात अच्छे होते हैं तो शौहर की ज़रुरत नही रह जाती है हालाकि मसला इसके बिल्कुल विपरीत है। परेशान औरत किसी समय हालात से मजबूर होकर शौहर की ज़रुरत के अहसास से ग़ाफ़िल हो सकती है लेकिन मुतमईन औरत के पास तो इसके अलावा कोई मसला ही नही है वह इस बुनियादी मसले से किस तरह से ग़ाफ़िल हो सकती है।
इस मसले की दूसरा रुख यह भी है कि मर्दो और औरतों की आबादी के इस तनासुब से इंकार कर दिया जाये और दोनो की संख्या को बराबर मान लिया जाये लेकिन एक मुश्किल बहरहाल पैदा होगी कि फ़सादात और आफ़ात में आम तौर पर मर्दों ही की आबादी में कमी पैदा होती है और इस तरह यह तनासुब हर समय ख़तरे में रहता है और फिर कुछ मर्दों में इतनी ताक़त नही होती कि वह औरत की ज़िन्दगी को बोझ उठा सकें। यह और बात है कि ख़्वाहिश उनके दिल में भी पैदा होती है इसलिये कि जज़्बात माली हालात की पैदावार नही होते हैं उनकी बुनियाद दूसरे हालात से बिल्कुल अलग हैं और उनकी दुनिया का क़यास इस दुनिया पर नही किया जा सकता है। ऐसी सूरत में इस मसले का एक ही हल रह जाता है कि जो पैसे वाले लोग हैं उन्हे कई शादियों के लिये तैयार किया जाये और जो ग़रीब और फ़कीर लोगो हैं और मुस्तक़िल ख़र्च बरदाश्त नही कर सकते हैं उनके लिये ग़ैर मुस्तक़िल इंतेज़ाम किया जाये और यह सब कुछ क़ानून के दायरे में हो। पच्छिमी दुनिया की तरह ला क़ानूनियत का शिकार न हो कि दुनिया की हर ज़बान में क़ानूनी रिश्ते को शादी के नाम दिया जाता है और ग़ैर क़ानूनी रिश्ते को अय्याशी कहा जाता है। इस्लाम हर मसले को इंसानियत, शराफ़त और क़ानून की रौशनी में हल करना चाहता है और पच्छिमी दुनिया क़ानून और ला क़ानूनियत में किसी तरह का फ़र्क़ नही मानती। हैरत की बात है जो लोग सारी दुनिया में अपनी क़ानून परस्ती का ढिढोंरा पीटते हैं वह जिन्सी मसले में इस क़दर बेहिस हो जाते हैं कि यहाँ किसी क़ानून का अहसास नही रह जाता है और मुख़्तलिफ़ तरह के ज़लील तरीन तरीक़े भी बर्दाश्त कर लेते हैं जो इस बात की अलामत है कि पच्छिम एक जिन्स ज़दा माहौल है जिसने इंसानियत ऐहतेराम छोड़ दिया है और वह अपनी ज़िन्सीयत ही इंसानियत के ऐहतेराम और आदर की नाम दे कर अपने बुराईयों को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं।
बहरहाल क़ुरआने मजीद ने इस मसले पर इस तरह रौशनी डाली है:
و ان خفتم الا تقسطوا فی الیتامی فانکحوا ما طاب لکم من النساء مثنی و ثلاث و ربع فان خفتم الا تعدلوا فواحدہ او ما ملکت ایمانکم ذلک ادنی الا تعدلوا (سورہ نساء ۳)
और अगर तुम्हे यह डर है कि यतीमों के बारे में न्याय न कर सकोगे तो जो औरतें तुम्हे अच्छी लगें उनसे निकाह करो दो तीन चार से और अगर डर हो कि उनमें भी इँसाफ़ न कर सकोगे तो फिर एक या जो तुम्हारी कनीज़ें हैं। आयते शरीफ़ा से साफ़ ज़ाहिर होता है कि समाज के ज़हन में एक तसव्वुर था कि यतीमों के साथ निकाह करने में इस सुलूक की रक्षा करना मुश्किल हो जाता है जिसका अध्धयन उनके बारे में किया गया है तो क़ुरआने ने साफ़ वाज़ेह कर दिया है कि अगर यतीमों के बारे में इंसाफ़ मुश्किल है और उसके ख़त्म हो जाने का ख़तरा और डर हो तो ग़ैर यतीमों से शादी करो और इस मसले में तुम्हे चार तक आज़ादी दे दी गई है कि अगर इंसाफ़ कर सको तो चार शादी तक कर सकते हो। हाँ अगर यहाँ भी इंसाफ़ न कर पाने का डर हो तो फिर एक ही पर इक्तेफ़ा करो और बाक़ी कनीज़ों से फ़ायदा उठाओ।
इसमे कोई शक नही है कि कई शादियों में इँसाफ़ करने की शर्त हवस के ख़ात्मे और क़ानून की बरतरी की बेहतरीन अलामत है और इस तरह औरत के आदर और सम्मान की पूर्ण रुप से सुरक्षा हो सकती है लेकिन इस सिलसिले में यह बात नज़र अंदाज़ नही होनी चाहिये कि इंसाफ़ वह तसव्वुर बिल्कुल बे बुनियाद है जो हमारे समाज में रायज हो गया है और जिसके पेशे नज़र कई शादी करने को एक ना क़ाबिले अमल फ़ारमूला क़रार दे दिया गया है। कहा जाता है कि इंसाफ़ मुकम्मल मसावात है और मुकम्मल मसावात बहरहाल मुमकिन नही है। इसलिये कि नई औरत की बात और होती है और पुरानी औरत की बात और। लिहाज़ा दोनो के साथ एक जैसा सुलूक मुम्किन नही है हाँलाकि यह तसव्वुर भी जाहेलाना है। इंसाफ़ के मायना सिर्फ़ यह है कि हर हक़दार को उसका हक़ दिया जाये जिसे शरीयत की ज़बान में
वाजेबात की पाबंदी और हराम से परहेज़ से ताबीर किया जाता है इससे ज़्यादा इंसाफ़ का कोई मफ़हूम नही है लिहाज़ा अगर इस्लाम ने चार औरतों में हर औरत की एक रात क़रार दी है तो उससे ज़्यादा का मुतालेबा करना नाइंसाफ़ी है। घर में रात न गु़ज़ारना नाइँसाफ़ी नही है। इसी तरह अगर इस्लाम ने फ़ितरत के ख़िलाफ़ और नई और पुरानी बीवी को एक जैसा क़रार दिया है तो उनके दरमियान में फ़र्क़ करना इंसाफ़ के ख़िलाफ़ है लेकिन अगर उसी ने फ़ितरत के पेशे नज़र शादी के शुरुवाती सात दिन नई बीवी के लिये नियुक्त कर दिये हैं तो इस सिलसिले में पुरानी बीवी का मुदाख़ेलत करना ना इंसाफ़ी है। शौहर का इम्तेयाज़ी बर्ताव करना ना इंसाफ़ी नही है और हक़ीक़त यह है कि समाज ने शौहर के सारे इख़्तियारात छीन लिये हैं लिहाज़ा उसका हर काम लोगों को ज़ुल्म नज़र आता है वर्ना ऐसे शौहर भी होते हैं जो क़ौमी या सियासी ज़रुरतों की बुनियाद पर मुद्दतों घर के अंदर दाख़िल नही होते हैं और बीवी इस बात पर ख़ुश रहती है कि मैं बहुत बड़े आदमी या मिनिस्टर की बीवी हूँ और उस समय उसे इस बात का ख़्याल तक नही आता है कि मेरा कोई हक़ पामाल हो रहा है लेकिन उसी बीवी को अगर यह बात मालूम हो जाये कि वह दूसरी बीवी के घर रात गुज़ारता है तो एक मिनट के लिये बर्दाश्त करने को तैयार न होगी जो सिर्फ़ एक जज़्बाती फ़ैसला है और उसका इंसानी ज़िन्दगी के ज़रुरियात से कोई ताअल्लुक़ नही है। ज़रुरत का ख़्याल रखा जाये तो अक्सर हालात में इंसानों के लिये कई शादियाँ करना ज़रुरत में शामिल है जिससे कोई मर्द या औरत इंकार नही कर सकती है। यह और बात है कि समाज से दोनो मजबूर है और कभी घुटन की गुज़ार कर लेते हैं और कभी बे राह रवी के रास्ते पर चल पड़ते हैं जिसे हर समाज बर्दाश्त कर लेता है और उसे माज़ूर क़रार देता है। जबकि क़ानून की पाबंदी और रिआयत में माज़ूर क़रार नही देता है।
इस सिलसिले में यह बात भी क़ाबिल तवज्जो है कि इस्लाम ने कई शादियों में इंसाफ़ को शर्त क़रार दिया है लेकिन इंसाफ़ और अदालत को इख़्तियारी नही रखा है बल्कि उसे ज़रुरी क़रार दिया है और हर मुसलमान से मुतालेबा किया है कि अपनी ज़िन्दगी में अदालत से काम ले और कोई काम ख़िलाफ़े अदालत न करे। अदालत के मायना वाजिबात की पाबंदी और हराम से परहेज़ के हैं और इस मसले में कोई इंसान आज़ाद नही है। हर इंसान के लिये वाजिबात की पाबंदी भी ज़रूरी है और हराम से परहेज़ भी। लिहाज़ा अदालत कोई इज़ाफ़ी शर्त नही है। इस्लामी मिज़ाज का तक़ाज़ा है कि हर मुसलमान को आदिल होना चाहिये और किसी मुसलमान को अदालत से
बाहर नही होना चाहिये। जिसका लाज़िमी असर यह होगा कि कई शा़दियों के क़ानून पर हर सच्चे मुसलमान के लिये क़ाबिले अमल बल्कि बड़ी हद तक वाजिबुल अमल है क्योकि इस्लाम ने बुनियादी मुतालेबा दो या तीन या चार का किया है और एक शादी को इस्तिस्नाई सूरत दी है जो कि सिर्फ़ अदालत के होने की सूरत में मुमकिन है और अगर मुसलमान वाक़ेई मुसलमान है यानी आदिल है तो उसके लिये क़ानून दो तीन या चार का ही है उसका क़ानून एक का नही है जिसकी मिसालें दीन के बुज़ुर्गों की ज़िन्दगी में हज़ारों की तादाद में मिल जायेगीं और आज भी दीन के रहबरों की अकसरियत इस क़ानून पर अमल कर रही है और उसे किसी तरह से अख़लाक़ व तहज़ीब और क़ानून और शरीयत के ख़िलाफ़ नही समझते हैं और न कोई उनके किरदार पर ऐतेराज़ करने की हिम्मत नही करता है ज़ेरे लब मुस्कुराते ज़रुर हैं कि यह अपने समाज के जाहिलाना निज़ाम की देन है और जिहालत का कम से कम मुज़ाहेरा इसी अंदाज़ से होता है।
इस्लाम ने कई शादियों के ना मुम्किन होने की सूरत में भी कनीज़ों की इजाज़त दी है क्योकि उसे मालूम है कि फ़ितरी तक़ाज़े सही तौर पर एक औरत से पूरे होने मुश्किल हैं लिहाज़ा अगर नाइंसाफ़ी का ख़तरा है और दामने आदालत के हाथ से छूट जाने का ख़तरा है तो इंसान बीवी के साथ संबंध बना सकता है। अगर किसी समाज में कनीज़ों का वुजूद हो और उनसे संबंध मुम्किन हो तो इस मसले में एक सवाल ख़ुद बख़ुद पैदा होता है कि इस्लाम ने इस अहसास का सुबूत देते हुए कि एक औरत से पुर सुकून ज़िन्दगी गुज़ारना इंतेहाई मुश्किल काम है। पहले कई शादियों का इजाज़त दी और फिर उसके नामुम्किन होने की सूरत में दूसरी बीवी की कमी कनीज़ से पूरी की तो अगर किसी समाज में कनीज़ों का वुजूद ने हो या इस क़दर कम हो कि हर इंसान की ज़रुरत का इंतेज़ाम न हो सके तो उस कनीज़ का बदल का क्या होगा और इस ज़रुरत का इलाज किस तरह होगा। जिस की तरफ़ कुरआने मजीद ने एक बीवी के साथ कनीज़ के इज़ाफ़े से इशारा किया है।
यही वह जगह है जहाँ से मुतआ के मसले की शुरुवात होती है और इंसान यह सोचने पर मजबूर होता है कि अगर इस्लाम ने मुकम्मल जिन्सी हयात की तसकीन का सामान किया है और कनीज़ों का सिलसिला बंद कर दिया है और कई शादियों के क़ानून में न्याय और इंसाफ़ की शर्त लगा दी है तो उसे दूसरा रास्ता बहरहाल खोलना पड़ेगा ताकि इंसान अय्याशी और बदकारी से बचा रहे। यह और बात है कि ज़हनी तौर पर अय्याशी और बदकारी के दिलदादा लोग मुतआ को भी अय्याशी का नाम दे देते हैं और यह मुतआ की मुख़ालेफ़त की बेना पर नही है बल्कि अय्याशी के जायज़ होने की बेना पर है कि जब इस्लाम में मुतआ जायज़ है और वह भी एक तरह की अय्याशी है तो मुतआ की क्या ज़रुरत है सीधे सीधे अय्याशी ही क्यो न की जाएँ और यह दर हक़ीक़त मुतआ की मुश्किलों का ऐतेराफ़ है और इस बात का इक़रार है कि मुतआ अय्याशी नही है इसमें क़ानून, क़ायदे की रिआयत ज़रुरी है और अय्याशी उन तमाम क़ानूनों से आज़ाद और बे परवाह होती है।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने अपने शासन काल में और ख़िलाफ़तों के शुरुवाती दौर में मुतआ का रिवाज क़ुरआने मजीद के इसी क़ानून की अमली तशरीह था जबकि उस दौर में कनीज़ों का वुजूद था और उनसे फ़ायदा उठाया जाना मुम्किन था तो यह इस्लामी फ़ोकहा को सोचना चाहिये कि जब उस दौर में सरकारे दो आलम ने अल्लाह के हुक्म की पैरवी में मुतआ को हलाल और रायज कर दिया था तो कनीज़ों के ख़ात्में के बाद इस क़ानून को किस तरह हराम किया जा सकता है। यह तो अय्याशी का खुला हुआ रास्ता होगा कि मुसलमान उसके अलावा किसी और रास्ते पर न जायेगा और लगातार हराम काम करता रहेगा। जैसा कि अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ) ने फ़रमाया था कि अगर मुतआ हराम न कर दिया गया होता तो बद बख़्त और शक़ी इंसान के अलावा कोई ज़ेना न करता। गोया आप इस बात की तरफ़ इशारा कर रहे थे कि मुतआ पर पाबंदी लगाने वाले ने मुतआ का रास्ता बंद नही किया है बल्कि अय्याशी और बदकारी का रास्ता खोला है और उसका उसे क़यामत के दिन जवाब देना पड़ेगा।
इस्लाम अपने क़वानीन में इंतेहाई हकीमाना तरीक़ा इख़्तियार करता है और उससे मुँह मोड़ने वाले को शक़ी और बद बख़्त जैसे शब्दों से याद करता है।