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तयम्मुम

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तयम्मुम (2) (690) अगर किसी इंसान के पास पानी हो, लेकिन वह वक़्त की तंगी के वजह से तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ने लगे और नमाज़ के दौरान जो पानी उसके पास था वह ज़ाय हो जाये और अगर उसका फ़रीज़ा तयम्मुम हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि बाद की नमाज़ों के लिए दोबारा तयम्मुम करे।

(691) अगर किसी के पास इतना वक़्त हो कि वह वुज़ू या ग़ुस्ल कर के नमाज़ को उस के मुस्तहब अफ़आ़ल जैसे, इक़ामत और क़ुनूत, के बग़ैर पढ़ सकता हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल या वुज़ू करे और नमाज़ को उसके मुस्तहब अफ़आ़ल के बग़ैर पढ़े। बल्कि अगर सूराह पढ़ने के लिए भी वक़्त न बचता हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल या वुज़ू करे और हम्द के बाद कोई सूरह पढ़े बग़ैर नमाज़ पढ़े।


वह चीज़ें जिन पर तयम्मुम करना सही है

(692) मिट्टी, रेत, ढेले और रोड़ी या पथ्थर पर तयम्मुम करना सही है। लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि अगर मिट्टी मयस्सर हो तो किसी दूसरी चीज़ पर तयम्मुम न किया जाये और अगर मिट्टी न हो तो रेत या ढ़ेले पर और रेत और ढेला भी न हो तो फिर रोड़ी या पथ्थर पर तयम्मुम किया जाये।

(693) जपसम और चूने के पत्थर पर तयम्मुम करना सही है। वह गरदो ग़ुबार जो क़ालीन, कपड़े और उन जैसी दूसरी चीज़ों पर जमा हो जाता है, अगर उर्फ़े आम में उसे नर्म मिट्टी शुमार किया जाता हो तो उस पर भी तयम्मुम करना सही है। जबकि एहतियाते मुस्तहब यह है कि इख़्तियार की हालत में उस पर तयम्मुम न करे। इसी तरह एहतियाते मुस्तहब की बिना पर इख़्तियार की हालत में पक्के चप्सम, चूने, पक्की हुई ईंट और दूसरे मादनी पत्थर मसलन अक़ीक़ वग़ैरा पर तयम्मुम न करे।

(694) अगर किसी इंसान को मिट्टी, रेत, ढले या पत्थर न मिल सकें तो ज़रुरी है कि तर मिट्टी पर तयम्मुम करे और तर मिट्टी भी न मिले तो ज़रूरी है कि क़ालीन, दरी या लिबास और उन जैसी दूसरी चीज़ों के ऊपर या अंदर मौजूद उस थोड़े से गरदो ग़ुबार पर तयम्मुम करे जो ऊर्फ़ में मिट्टी शुमार न होता हो। अगर इन में से कोई चीज़ भी न मिल पा रही हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि तयम्मुम के बग़ैर नमाज़ पढ़े, लेकिन वाजिब है कि बाद में उस नमाज़ की क़ज़ा पढ़े।

(695) अगर कोई इंसान क़ालीन, दरी और या इन जैसी दूसरी चीज़ों को झाड़ कर मिट्टी मोहिय्या कर सकता हो तो उस का गर्द आलूद चीज़ पर तयम्मुम करना बातिल है। इसी तरह अगर मिट्टी को ख़ुश्क कर के उस से सूखी मिटटी हासिल कर सकता हो तो तर मिट्टी पर तयम्मुम करना बातिल है।

(696) जिस इंसान के पास पानी न हो लेकिन बर्फ़ हो और वह उसे पिघला सकता हो तो ज़रूरी है कि वह उसे पिघला कर पानी बनाये और उससे वुज़ू या ग़ुस्ल करे। लेकिन अगर ऐसा करना मुमकिन न हो और उसके पास कोई ऐसी चीज़ भी न हो जिस पर तयम्मुम करना सही हो तो उसे चाहिए कि दूसरे वक़्त में नमाज़ की क़ज़ा करे। लेकिन बेहतर यह है कि बर्फ़ से वुज़ू या ग़ुस्ल के आज़ा को तर करे और अगर ऐसा करना भी मुमकिन न हो तो बर्फ़ पर तयम्मुम कर के वक़्त पर भी नमाज़ पढ़े।

(697) अगर मिट्टी और रेत में कोई ऐसी चीज़ मिली हो जिस पर तयम्मुम करना सही न हो जैसे सूखी हुई घास या इसी तरह की कोई और चीज़ तो उस पर तयम्मुम नहीं कर सकता। लेकिन अगर वह चीज़ इतनी कम हो कि उस मिट्टी या रेत में न होने के बराबर समझ़ा जा सके तो उस मट्टी पर तयम्मुम करना सही है।

(698) अगर एक इंसान के पास कोई ऐसी चीज़ न हो जिस पर तयम्मुम किया जा सके, तो अगर उसका ख़रीदना या किसी दूसरे तरीक़े से हासिल करना मुमकिन हो तो ज़रूरी है कि उस चीज़ को हासिल करे।

(699) मिट्टी की दीवार पर तयम्मुम करना सही है और एहतियाते मुस्तहब यह है कि ख़ुश्क ज़मीन या मिट्टी के होते हुए तर ज़मीन पर या तर मिट्टी पर तयम्मुम न किया जाये।

(700) जिस चीज़ पर इंसान तयम्मुम करे उस का पाक होना ज़रूरी है और अगर उसके पास कोई ऐसी पाक चीज़ न हो जिस पर तयम्मुम करना सही हो तो उस पर नमाज़ वाजिब नही है। लेकिन उसकी क़ज़ा बजा लाना ज़रूरी है और बेहतर यह है कि वक़्त पर भी नमाज़ पढ़े।

(701) अगर इंसान को किसी चीज़ के बारे में यक़ीन हो कि इस पर तयम्मुम करना सही है और वह उस पर तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ले और बाद में उसे पता चले कि उस चीज़ पर तयम्मुम करना सही नही था तो ज़रूरी है कि जो नमाज़ें उस तयम्मुम के साथ पढ़ी हैं उसे दोबारा पढ़े।

(702) जिस चीज़ पर तयम्मुम किया जाये वह ग़स्बी न हो, बस अगर कोई ग़स्बी मिट्टी पर तयम्मुम करे तो उसका तयम्मुम बातिल है।

(703) ग़स्ब की हुई फ़िज़ा में तयम्मुम करना बातिल नही है। अगर कोई इंसान अपनी ज़मीन में अपने हाथ मिट्टी पर मारे और फिर बिला इजाज़त दूसरे की ज़मीन में दाख़िल हो जाये और हाथों को पेशानी पर फेरे तो उसका तयम्मुम सही होगा अगरचे वह गुनाह का मुर्तकिब हुआ है।

(704) अगर कोई इंसान भूले से या ग़फ़लत की बिना पर किसी ग़स्बी चीज़ पर तयम्मुम कर ले तो उसका तयम्मुम सही है। लेकिन अगर वह ख़ुद किसी चीज़ को ग़स्ब करे और फिर भूल जाये कि यह ग़स्ब की हुई है, तो उस चीज़ पर तयम्मुम के सही होने में इशकाल है।

(705) अगर कोई इंसान ग़स्बी जगह में महबूस हो और उस जगह का पानी और मिट्टी दोनों ग़स्बी हों तो ज़रूरी है कि तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़े।

(706) जिस चीज़ पर तयम्मुम किया जाये एहतियाते लाज़िल की बिना पर उस पर गरदो ग़ुबार का मौजूद होना ज़रूरी है जो कि हाथों पर लग जाये और उस पर हाथ मारने के बाद हाथों को इतना न झाड़े कि उनसे सारी गर्द गिर जाये।

(707) गढ़े वाली ज़मीन, रास्ते की मिट्टी और ऐसी शूर ज़मीन पर जिस पर नमक की तह न जमी हो तयम्मुम करना मकरूह है और अगर उस पर नमक की तह जम गई हो तो फिर उस पर तयम्मुम करना सही नही है।


वुज़ू या ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करने का तरीक़ा

(708) वुज़ू या ग़ुस्ल के बदले किये जाने वाले तयम्मुम में चार चाज़ें वाजिब हैं:

(1) नियत

(2) दोनों हथेलियों को एक साथ ऐसी चीज़ पर मारना या रखना जिस पर तयम्मुम करना सही हो। और एहतियाते लाज़िम यह है कि दोनों हाथों को एक साथ ज़मीन पर मारा या रखा जाये।

(3) पूरी पेशानी पर दोनों हथेलियों को फ़ेरना और इसी तरह एहतियाते लाज़िम की बिना पर उस मक़ाम से जहाँ सर के बाल उगते हैं भवों और नाक के ऊपर तक पेशानी के दोनों तरफ़ हथेलियों को फेरना और एहतियाते मुस्तहब यह है कि भवों पर भी हाथों को फेरा जायें।

(4) बायीं हथेली को दाहिनी हाथेली की पुश्त पर और उस के बाद दाहिनी हथेली को बायीं हाथेली की तमाम पुश्त पर फेरना।

(709) एहतियाते मुस्तहब यह है कि तयम्मुम चाहे वुज़ू के बदले हो या ग़ुस्ल के बदले इस तरतीब से किया जायेः दोनों हाथों को एक दफ़ा ज़मीन पर मारे जाये और पेशानी और हाथों की पुश्त पर फेरा जाये और एक दफ़ा फिर ज़मीन पर मार कर उनसे हाथों की पुश्त का मसा किया जाये।

तयम्मुम के अहकाम

(710)
अगर एक इंसान पेशानी या हाथों की पुश्त के ज़रा से हिस्से का भी मसह न करे तो उस का तयम्मुम बातिल है। चाहे उसने ऐसा जान बूझ कर किया हो या भूल या मसला न जानने की बिना पर। लेकिन बाल की खाल निकालने की भी ज़रूरत नही है। अगर यह कहा जा सके कि तमाम पेशानी और हाथों का मसा हो गया है तो इतना ही काफ़ी है।

(711) यह यक़ीन करने के लिए कि हाथ की तमाम पुश्त पर मसा कर लिया है कलाई से कुछ ऊपर वाले हिस्से का भी मसा कर लेना चाहिए, लेकिन उंगलियों के दरमियान मसा करना ज़रूरी नहीं है।

(712) एहतियात की बिना पर, पेशानी और हाथों की पुश्त का मसा ऊपर से नीचे की तरफ़ करना चाहिए और इसके तमाम कामों को मुत्तसिल (निरन्तर) तौर पर अंजाम देना चाहिए और अगर उन कामों के बीच इतना फ़ासिला हो जाये कि लोग यह न कहें कि तयम्मुम कर रहा है तो तयम्मुम बातिल है।

(713) नियत करते वक़्त लाज़िम नही कि इस बात को मुऐय्यन करे कि उसका तयम्मुम ग़ुस्ल के बदले है या वुज़ू के बदले, लेकिन अगर किसी के लिए दो तयम्मुम करना ज़रूरी हों तो लाज़िम है कि उन में से हर एक को मुऐय्यन करे। और अगर उस पर एक तयम्मुम बाजिब हो और नियत करे कि मैं इस वक़्त अपना वज़ीफ़ा अंजाम दे रहा हूँ तो अगरचे वह मुऐय्यन करने में ग़लती करे (कि तयम्मुम ग़ुस्ल के बदले है या वुज़ू के बदले) इस का तयम्मुम सही है।

(714) एहतियाते मुस्तहब की बिना पर तयम्मुम में पेशानी, हाथों की हथेलियों और हाथों की पुश्त का इमकान की हालत में पाक होना ज़रूरी है।

(715) इंसान को चाहिए कि हाथ पर मसा करते वक़्त अगर हाथ में कोई अंगूठी हो तो उसे उतार दे और अगर पेशानी या हाथों की पुश्त या हथेलियों पर कोई चीज़ चिपकी हुई हो तो उसको हटा देना चाहिए।

(716) अगर किसी इंसान की पेशानी या हाथों की पुश्त पर ज़ख़्म हो और उस पर कपड़ा या पट्टी वग़ैरा बंधी हो, जिस को खोला न जासकता हो तो ज़रूरी है कि उस के ऊपर हाथ फेरे और अगर हथेली ज़ख़्मी हो और उस पर कपड़ा या पट्टी वग़ैरा बंधी हो जिसे खोला न जासता हो तो जरूरी है कि कपड़े या पट्टी वग़ैरा समेत हाथ उस चीज़ पर मारे जिस पर तयम्मुम करना सही हो और फिर पेशानी और हाथों की पुश्त पर फेरे।

(717) अगर किसी इंसान की पेशानी और हाथों की पुश्त पर बाल हों तो कोई हरज नही लेकिन अगर किसी के सर के बाल पेशानी पर आ गिरे हों तो ज़रूरी है कि उहें पीछे हटा दे।

(718) अगर किसी को एहतेमाल हो कि उसकी पेशानी या हथेलियों या हाथों की पुश्त पर कोई रुकावट है और उसका यह एहतेमाल लोगों की नज़रों में सही हो, तो ज़रूरी है कि छान बीन करे यहाँ तक कि उसे यक़ीन या इत्मिनान हो जाये कि रुकावट मौजूद नही है।

(719) अगर किसी इंसान का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो और वह ख़ुद तयम्मुम न कर सकता हो तो ज़रूरी है कि किसी दूसरे इंसान से मदद ले ताकि वह मददगार उसके हाथों को उस चीज़ पर मारे जिस पर तयम्मुम करना सही हो और फिर उसके हाथों को उसकी पेशानी और दोनों हाथों की पुश्त पर रख दे ताकि इमकान की सूरत में वह ख़ुद अपनी हथेलियों की पेशानी और हाथों की पुश्त पर फेर सके। और अगर ऐसा करना मुमकिन न हो तो नाइब के लिए ज़रूरी है कि अपने हाथों को उस चीज़ पर मारे जिस पर तयम्मुम करना सही हो और फिर उसकी पेशानी और हाथों की पुश्त पर फेरे। एहतियाते लाज़िम यह है कि इन दोनों सूरतों में दोनों शख़्स तयम्मुम की नियत करें। लेकिन पहली सूरत में ख़ुद मुकल्लफ़ की नियत काफी है।

(720) अगर कोई इंसान तयम्मुम करते वक़्त किसी हिस्से के बारे में शक करे कि इसका तयम्मुम किया है या नही तो अगर उस हिस्से का मौक़ा ग़ुज़र चुका हो तो उसे अपने शक की परवाह नही करनी चाहिए लेकिन अगर मोक़ा न ग़ुज़रा हो तो ज़रूरी है कि उस हिस्से का तयम्मुम करे।

(721) अगर किसी इंसान को बायें हाथ का मसा करने के बाद शक हो कि आया उसने तयम्मुम दुरुस्त किया है या नहीं तो उसका तयम्मुम सही है। लेकिन अगर उसका शक बायें हाथ के मसे के बारे में हो तो उसके लिए ज़रूरी है कि उसका मसा करे सिवाये इसके कि लोग यह कहें कि तयम्मुम से फ़ारिग़ हो चुका है मसलन उस इंसान ने कोई ऐसा काम किया हो जिस के लिए तहारत शर्त है या तसलसुल ख़त्म हो गया है।

(722) जिस इंसान का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो अगर वह नमाज़ के पूरे वक़्त में उज़्र के ख़त्म होने से मायूस हो जाये तो तयम्मुम कर सकता है और अगर उसने किसी दूसरे वाजिब या मुस्तहब काम के लिए तयम्मुम किया हो और नमाज़ के वक़्त तक उसका उज़्र बाक़ी हो (जिस की वजह से उस का वज़ीफ़ा तयम्मुम है) तो उसी तयम्मुम के साथ नमाज़ पढ़ सकता है।

(723) जिस इंसान का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो अगर उसे इल्म हो कि आख़िरी वक़्त तक उस का उज़्र बाक़ी रहेगा या वह उज़्र के ख़त्म होने से मायूस हो तो वक़्त में गुंजाइश होते हुए भी वह तयम्मुम के साथ नमाज़ पढ़ सकता है। लेकिन अगर वह जानता हो कि आख़िरी वक़्त तक उसका उज़्र दूर हो जायेगा तो ज़रूरी है कि इंतिज़ार करे और वुज़ू या ग़ुस्ल कर के नमाज़ पढ़े। बल्कि अगर वह आख़िर वक़्त तक उज़्र के ख़त्म होने से मायूस न हो तो मायूस होने से पहले तयम्मुम कर के नमाज़ नहीं पढ़ सकता।

(724) अगर कोई इंसान वुज़ू या ग़ुस्ल न कर सकता हो और उसे यक़ीन हो कि उसका उज़्र दूर होने वाला नहीं है या दूर होने से मायूस हो तो वह अपनी क़ज़ा नमाज़ें तयम्मुम के साथ पढ़ सकता है। लेकिन अगर बाद में उज़्र ख़त्म हो जाये तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि वह नमाज़ें वुज़ू या ग़ुस्ल कर के दोबारा पढ़े। लेकिन अगर उसे उज़्र के दूर होने से मायूसी न हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर क़ज़ा नमाज़ों के लिए तयम्मुम नहीं कर सकता।

(725) जो इंसान वुज़ू या ग़ुस्ल न कर सकता हो उसके लिए जायज़ है कि वह उन मुस्तहब नमाज़ों को जिन का वक़्त मुऐय्यन है, जैसे दिन रात की नवाफ़िल नमाज़ें, तयम्मुम कर के पढ़े। लेकिन अगर मायूस न हो कि आख़िरी वक़्त तक उस का उज़्र दूर हो जायगा तो एहतियाते लाज़िम यह है कि वह नमाज़ें उनके अव्वले वक़्त में न पढ़े।

(726) जिस इंसान ने एहतियातन ग़ुस्ले जबीरा और तयम्मुम किया हो अगर वह ग़ुस्ल और तयम्मुम के बाद नमाज़ पढ़े और नमाज़े के बाद उससे हदसे असग़र सादिर हो जाये मसलन पेशाब करे, तो बाद की नमाज़ों के लिए ज़रूरी है कि वुज़ू करे। और अगर हदस नमाज़ से पहले सादिर हो जाये तो ज़रूरी है कि उस नमाज़ के लिए भी वुज़ू करे।

(727) अगर कोई इंसान पानी न मिलने की वजह से या किसी दूसरे उज़्र की बिना पर तयम्मुम करे तो उज़्र के ख़त्म हो जाने के बाद उस का तयम्मुम बातिल हो जाता है।

(728) जो चीज़ें वुज़ू को बातिल करती हैं वह वुज़ू के बदले किये हुए तयम्मुम को भी बातिल करती हैं। जो चीज़ें ग़ुस्ल को बातिल करती हैं वह ग़ुस्ल के बदले किये हुए तयम्मुम को भी बातिल कर देती हैं।

(729) अगर कोई इंसान ग़ुस्ल न कर सकता हो और चंद ग़ुस्ल उस पर वाजिब हों तो उसके लिए जायज़ है कि उन तमाम ग़ुस्लों के बदले एक तयम्मुम कर सकता है। लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि उन ग़ुस्लों में से हर एक के बदले एक तयम्मुम करे।

(730) जो इंसान ग़ुस्ल न कर सकता हो अगर वह ऐसा काम अंजाम देना चाहे जिस के लिए गुस्ल वाजिब हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करे और जो इंसान वुज़ू न कर सकता हो अगर वह कोई ऐसा काम करना चाहे जिस के लिए वुज़ू वाजिब हो तो ज़रूरी है कि वुज़ू के बदले तयम्मुम करे।

(731) अगर कोई इंसान ग़ुस्ले जनाबत के बदले तयम्मुम करे तो नमाज़ के लिए वुज़ू करना ज़रूरी नहीं है। लेकिन अगर दूसरे ग़ुस्लों के बदले तयम्मुम करे तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि वुज़ू भी करे और अगर वह वुज़ू न कर सकता हो तो वुज़ू के बदले एक और तयम्मुम करे।

(732) अगर कोई इंसान ग़ुस्ल ज़नाबत के बदले तयम्मुम करे और बाद में उसे किसी ऐसी सूरत से दोचार होना पडे जो वुज़ू को बातिल कर देती हो, और बाद की नमाज़ों के लिए ग़ुस्ल भी न कर सकता हो, तो ज़रूरी है कि वुज़ू करे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि तयम्मुम भी करे। और अगर वुज़ू न कर सकता हो तो ज़रूरी है कि उसके बदले तयम्मुम करे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस तयम्मुम को मा फ़ी ज़्ज़िम्मह का निय्य्त से बजा लाये (यानी जो कुछ मेरे ज़िम्मे है उसे अंजाम दे रहा हूँ)।

(733) अगर किसी इंसान को कोई काम करने के लिए, मसलन नमाज़ पढ़ने के लिए वुज़ू या ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करने की ज़रूरत हो, तो अगर वह पहले तयम्मुम में वुज़ू के बदले तयम्मुम या ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम की नियत करे और दूसरा तयम्मुम अपने वज़ीफ़े को अंजाम देने की नियत से करे तो काफ़ी है।

(734) जिस इंसान का फ़रीज़ा तयम्मुम हो अगर वह किसी काम के लिए तयम्मुम करे तो जब तक उस का तयम्मुम और उज़्र बाक़ी है वह उन तमाम कामों को कर सकता है जो वुज़ू या ग़ुस्ल कर के करने चाहियें। लेकिन अगर उसका उज़्र वक़्त की तंगी हो या उसने पानी होते हुए नमाज़े मय्यत या सोने के लिए तयम्मुम किया हो तो वह फ़क़त उन कामों का अंजाम दे सकता है जिन के लिए उसने तयम्मुम किया हो।

(735) चंद सूरतों ऐसी हैं जिनमें बेहतर यह है कि जो नमाजें इंसान ने तयम्मुम के साथ पढी हों उन की क़ज़ा करे:

1- पानी के इस्तेमाल से डरता हो और उसने जान बूझ कर अपने आप को जुनुब कर लिया हो और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।

2- यह जानते हुए या गुमान करते हुए कि उसे पानी न मिल सकेगा अपने आपको जान बूझ कर जुनुब कर लिया हो और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।

3- आख़िर वक़्त तक पानी की तलाश में न जाये और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़े और बाद में उसे पता चले कि अगर तलाश करता तो उस पानी मिल सकता था।

4- जान बूझ कर नमाज़ पढ़ने में देर की हो और आख़िरी वक़्त में तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।

5- यह जानते हुए या गुमान करते हुए कि पानी मिलेगा जो पानी उसके पास था उसे गिरा दिया हो और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।


तयम्मुम (1) सात सूरतें ऐसी हैं जिन में वुज़ू और ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करना चाहिए।
तयम्मुम की पहली सूरत

वुज़ू या ग़ुस्ल के लिए ज़रूरी मिक़दार में पानी मोहिय्या करना मुमकिन न हो।

(655) अगर इंसान आबादी में हो तो ज़रुरी है कि वुज़ू और ग़ुस्ल के लिए पानी को इस हद तक तलाश करे कि उसके मिलने से नाउम्मीद हो जाये और अगर बयाबान में हो तो ज़रुरी है कि रास्तों में या अपने ठहरने की ज़गह पर या उसके आस पास वाली जगहों पर पानी तलाश करे। अगर वहाँ की ज़मीन ऊँची नीची हो या दरख़तों के ज़्यादा होने की वजह से रास्ता चलने में परेशानी हो, तो एहतियाते लाज़िम यह है कि चारों तरफ़ इतनी दूरी तक पानी तलाश करे जितने फ़ासले पर कमान से फ़ेका हुआ तीर जाता है।[1] लेकिन अगर रास्ता व ज़मीन हमवार हो तो हर तरफ़ दो तीर के फ़ासले के बराबर पानी की तलाश में जाये।

(656) अगर ज़मीन ऐसी हो कि वह कुछ तरफ़ से हमवार हो और कुछ तरफ़ से ना हमवार तो जो तरफ़ हमवार हो उस में दो तीरों के फ़ासले के बराबर और जो तरफ़ ना हमवार हो उस में एक तीर के फ़सले के बराबर पानी तलाश करे।

(657) जिस तरफ़ पानी के न मिलने का यक़ीन हो उस तरफ़ तलाश करना ज़रूरी नहीं है।

(658) अगर किसी इंसान की नमाज़ का वक़्त तंग न हो और पानी हासिल करने के लिए उसके पास वक़्त हो और उसे यक़ीन या इत्मिनान हो कि जितनी दूरी तक पानी तलाश करना ज़रूरी है उससे ज़्यादा दूरी पर पानी मौजूद है, तो उसे चाहिए कि पानी हासिल करने के लिए वहाँ जाये। लेकिन अगर वहाँ जाना परेशानी का सबब हो या पानी बहुत ज़्यादा दूरी पर हो तो वहाँ जाना लाज़िम नही है और अगर सिर्फ़ पानी के मौजूद होने का गुमान हो तो फिर वहाँ जाना भी ज़रूरी नहीं है।

(659) यह ज़रूरी नहीं है कि इंसान ख़ुद पानी की तलाश में जाये बल्कि वह किसी और एसे इंसान को भेज सकता है जिस के कहने पर उसे इत्मिनान हो और इस सूरत में अगर एक इंसान कई इंसानों की तरफ़ से जाये तो काफ़ी है।

(660) अगर इस बात का एहतेमाल हो कि किसी इंसान के लिए अपने सफ़र के सामान में या पडाव डालने की जगह पर या क़ाफ़िले में पानी मौजूद है तो ज़रूरी है कि इस क़दर जुस्तुजू करे कि उसे पानी के न होने का इत्मिनान हो जाये या उस के मिलने से नाउम्मीद हो जाये।

(661) अगर एक इंसान नमाज़ के वक़्त से पहले पानी तलाश करे और हासिल न कर पाये और नमाज़ के वक़्त वहीं रहे तो अगर पानी मिलनें का एहतेमाल हो तो एहतियात मुस्तहब यह है कि पानी की तलाश में दोबारा जाये।

(662) अगर कोई इंसान नमाज़ का वक़्त दाख़िल होने के बाद पानी तलाश करे और पानी हासिल न कर पाये और बाद वाली नमाज़ के वक़्त तक उसी ज़गह रहे, तो अगर पानी मिलने का एहतेमाल हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि दोबारा पानी की तालाश में जाये।

(663) अगर किसी इंसान की नमाज़ का वक़्त तंग हो या उसे चोर डाँकू और दरिंदे का ख़ौफ़ हो या पानी की तलाश इतनी कठिन हो कि वह उस परेशानी को बर्दाश्त न कर सके तो इस हालत में पानी की तलाश ज़रूरी नहीं है।

(994) अगर कोई इंसान पानी तलाश न करे यहाँ तक कि नमाज़ का वक़्त तंग हो जाये जबकि अगर वह पानी तलाश करता तो उसे पानी मिल सकता था, तो ऐसा करने पर वह गुनाह का मुरतकिब तो हुआ लेकिन तयम्मुम के साथ उसकी नमाज़ सही है।

(665) अगर कोई इंसान इस यक़ीन की बिना पर कि उसे पानी नही मिल सकता पानी की तलाश में न जाये और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ ले और बाद में उसे पता चले कि अगर तलाश करता तो पानी मिल सकता था तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर वुज़ू कर के नमाज़ को दोबारा पढ़े।

(666) अगर किसी इंसान को तलाश करने पर पानी न मिले और उससे मायूस हो कर तयम्मुम के साथ नमाज़ पढ़ले और नमाज़ पढ़ने के बाद व वक़्त ग़ुज़र से पहले उसे पता चले कि पानी तलाश करने के लिए उसके पास वक़्त था तो एहतियाते वाजिब यह है कि दोबारा नमाज़ पढ़े।

(667) जिस इंसान को यक़ीन हो कि नमाज़ का वक़्त तंग है अगर वह पानी तलाश किये बग़ैर तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ले और नमाज़ के बाद व वक़्त ग़ुज़रने से पहले उसे पता चले कि पानी तलाश करने के लिए उसके पास वक़्त था तो एहतियाते वाजिब यह है कि वह नमाज़ दोबारा पढ़े।

(668) अगर नमाज़ का वक़्त दाख़िल होने के बाद किसी इंसान का वुज़ू बाक़ी हो और उसे मालूम हो कि अगर उसने अपना वुज़ू बातिल कर दिया तो दोबारा वुज़ू करने के लिए पानी नही मिलेगा या वह वुज़ू नही कर पायेगा, तो इस सूरत में अगर वह अपना वुज़ू बरक़रार रख सकता हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसे अपना वुज़ू बातिल नही करना चाहिए। लेकिन ऐसा इंसान यह जानते हुए भी कि ग़ुस्ल न कर पायेगा अपनी बीवी से जिमाअ (संभोग) कर सकता है।

(669) अगर कोई इंसान नमाज़ के वक़्त से पहले बा वुज़ू हो और उसे मालूम हो कि अगर उस ने अपना वुज़ू बातिल कर दिया तो दोबारा वुज़ू करने के लिए पानी हासिल करना उसके लिए मुमकिन न होगा तो इस सूरत में अगर वह उपना वुज़ू बरक़रार रख सकता हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि उसे बातिल न करे।

(670) जब किसी के पास फ़क़त वुज़ू या ग़ुस्ल के लिए पानी हो और वह जानता हो कि उसे गिरा देने की सूरत में, और पानी नही मिल सकेगा, तो अगर नमाज़ का वक़्त हो गया हो तो उस पानी को गिराना हराम है और एहतियाते वाजिब यह है कि उस पानी को नमाज़ के वक़्त से पहले भी न गिराये।

(671) अगर कोई इंसान यह जानते हुए कि उसे पानी न मिल सकेगा, नमाज़ का वक़्त हो जाने के बाद अपने वुज़ू को बातिल कर दे या जो पानी उसके पास हो उसे गिरा दे तो अगरचे उस ने (हुक्मे मस्ला के) ख़िलाफ़ काम किया है, मगर तयम्मुम के साथ उसकी नमाज़ सही होगी, लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस नमाज़ की क़ज़ा भी करे।



तयम्मुम की दूसरी सूरत
:

(672) अगर कोई इंसान बुढ़ापे या कमज़ोरी की वज़ह से या चोर डाकू और जानवर वग़ैरा के ख़ौफ़ से या कुवें से पानी निकालने के वसाइल मयस्सर न होने की वहज से पानी हासिल न कर सकता हो तो उसे चाहिए कि तयम्मुम करे। और अगर पानी मुहिय्या करने या उसे इस्तेमाल करने में उसे इतनी तकलीफ़ उठानी पड़े जो नाक़ाबिले बरदाश्त हो, तो इस सूरत में भी यही हुक्म है। लेकिन आख़री सूरत में अगर तयम्मुम न करे और वुज़ू करे तो उस का वुज़ू सही होगा।
(673) अगर कुवें से पानी निकालने के लिए डोल और रस्सी वग़ैरा ज़रूरी हों और वह इंसान उन्हें ख़रीदने या किराये पर लेने के लिए मज़बूर हो तो चाहे उनकी क़ीमत आम भाव से कई गुना ज़्यादा ही क्यों न हो, उसे चाहिए कि उन्हें हासिल करे। और अगर पानी अपनी असली क़ीमत से महंगा बेचा जा रहा हो तो उसके लिए भी यही हुक्म है। लेकिन अगर उन चीज़ों के हासिल करने पर इतना ख़र्च होता हो कि उस की जेब इज़ाज़त न देती हो तो फिर उन चीज़ों का हासिल करना वाजिब नहीं है।
(674) अगर कोई इंसान मज़बूर हो कि पानी हासिल करने के लिए क़र्ज़ ले तो क़र्ज़ लेना ज़रूरी है। लेकिन जिस इंसान को इल्म हो या गुमान हो कि वह अपने क़र्ज़े की अदायगी नही कर सकता, उस के लिए क़र्ज़ लेना वाजिब नही है।
(675) अगर कुवाँ खोदने में कोई कठिनाई न हो तो ऐसे इंसान को चाहिए कि पानी हासिल करने के लिए कुवाँ खोदे।
(676) अगर कोई इंसान बग़ैर एहसान रखे कुछ पानी दे तो उसे क़ुबूल कर लेना चाहिए।



तयम्मुम की तीसरी सूरत


(677) अगर किसी इंसान को पानी इस्तेमाल करने से अपनी जान पर बन जाने या बदन में कोई ऐब या मर्ज़ पैदा होने या मौजूदा मर्ज़ के बढ़ जाने या शदीद हो जाने या इलाज मुआलेजा में दुशवारी पैदा होने का ख़ौफ़ हो तो उसे चाहिए कि तयम्मुम करे। लेकिन अगर पानी के नुक़्सान को किसी तरीक़े से दूर कर सकता हो, मसलन यह कि पानी को गरम करने से नुक़्सान दूर हो सकता हो, तो पानी गरम कर के वज़ु करे और अगर ग़ुस्ल ज़रूरी हो तो ग़ुस्ल करे।
(678) ज़रूरी नहीं कि किसी इंसान को यक़ीन ही हो कि पानी उसके लिए नुक़्सान दे है। बल्कि अगर नुक़्सान का एहतेमाल भी हो और यह एहतेमाल आम लोगों की नज़रों में सही हो और इस एहतेमाल की वजह से वह ख़ौफ़ ज़दा हो जाये तो तयम्मुम करना ज़रूरी है।
(679) अगर कोई इंसान आँखों के दर्द में मुबतला हो और उसके लिए पानी नुक़्सान दे हो तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे।
(680) अगर कोई इंसान नुक़्सान के यक़ीन या ख़ौफ़ की वजह से तयम्मुम करे और उसे नमाज़ से पहले इस बात का पता चल जाये कि पानी उस के लिए नुक़्सानदेह नही है तो उसका तयम्मुम बातिल है और इस बात का पता नमाज़ के बाद चले तो वुज़ू या ग़ुस्ल कर के दोबारा नमाज़ पढ़ना ज़रूरी है।
(681) अगर किसी को यक़ीन हो कि पानी उसके लिए नुक़्सान दे नही है और वह ग़ुस्ल या वुज़ू कर ले और बाद में उसे पता चले कि पानी उसके लिए नुक़्सान दे था तो उस का वुज़ू और ग़ुस्ल दोनों बातिल हैं।

तयम्मुम की चौथी सूरत

(682) अगर किसी इंसान को यह ख़ौफ़ हो कि पानी से वुज़ू या ग़ुस्ल कर लेने के बाद वह प्यास की वज़ह से बेताब हो जायेगा तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे और इस वजह से तयम्मुम के जायज़ होने की तीन सूरतें हैं।
(1) अगर पानी वुज़ू या ग़ुस्ल करने में ख़र्च कर देने की वजह से इस बात का अंदेशा हो कि उसे फ़ौरी तौर पर या बाद में ऐसी प्यास लगेगी जो उसकी हलाकत या बामारी का सबब बनेगी या जिस का बर्दाश्त करना उसके लिए सख़्त तकलीफ़ का बाइस होगा।
(2) उसे ख़ौफ़ हो कि जिन लोगों की हिफ़ाज़त करना उस पर बाज़िब है वह कहीं प्यास से हलाक या बीमार न हो जाये।
(3) अपने अलावा किसी दूसरे की ख़ातिर चाहे वह इंसान हो या हैवान, डरता हो और उसकी हलाकत या बीमारी या बेताबी उसे गरां गुज़रती हो चाहे मोहतरम नुफ़ूस में से हो या ग़ैर मोहतरम नुफ़ूस में से, इन तीनों सूरतों के अलावा किसी और सूरत में पानी होते हुए तयम्मुम करना जायज़ नही है।
(683) अगर किसी इंसान के पास उस पाक पानी के अलावा जो वुज़ू या ग़ुस्ल के लिए हो, इतना नजिस पानी भी हो जितने की उसे पीने के लिए ज़रूरत हो, तो ज़रूरी है कि पाक पानी पीने के लिए रख ले और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर पानी उसके साथियों के पीने के लिए दरकार हो तो वह पाक पानी से वुज़ू या ग़ुस्ल कर सकता है,चाहे उसके साथी प्यास बुझाने के लिए नजिस पानी पीने पर ही मज़बूर हों। बल्कि अगर वह लोग उस पानी के नजिस होने के बारे में न जानते हों या इसी तरह निज़ासत से परहेज़ न करते हों तो लाज़िम है कि पाक पानी को वुज़ू या ग़ुस्ल के लिए सर्फ़ करे, और इसी तरह अगर पानी अपने किसी जानवर या ना बालिग़ बच्चे को पिलाना चाहे तब भी ज़रूरी है कि उन्हें वह नजिस पानी पिलाये और पाक पानी से वुज़ू या ग़ुस्ल करे।

तयम्मुम की पाँचवीं सूरत

(684)अगर किसी इंसान का बदन या लिबास नजिस हो और उसके पास बस इतना ही पानी हो कि अगर उससे वुज़ू या ग़ुस्ल करे तो बदन या लिबास धोने के लिए न बचता हो, तो ज़रूरी है कि उस पानी से बदन या लिबास धोये और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर उसके पास कोई चीज़ ऐसी न हो जिस पर तयम्मुम करे सके, तो ज़रूरी है कि पानी वुज़ू या ग़ुस्ल के लिए इस्तेमाल करे और नजिस बदन या लिबास के साथ नमाज़ पढ़े।



तयम्मुम की छटी सूरत


(685) अगर किसी इंसान के पास ऐसे पानी या बरतन के अलावा, (जिसका इस्तेमाल करना हराम हो) कोई और पानी या बरतन न हो। मसलन जो पानी या बरतन उसके पास हो वह ग़स्बी हो और उसके अलावा उसके पास दूसरा कोई पानी या बरतन न हो तो उसे चाहिए कि वुज़ू और ग़ुस्ल के बजाये तयम्मुम करे।

]तयम्मुम की सातवीं सूरत


(686) अगर नमाज़ का वक़्त इतना कम रह गया हो कि वुज़ू या ग़ुस्ल करने पर सारी नमाज़ या उसका कुछ हिस्सा वक़्त के बाद पढ़े जाने का इमकान हो, तो इस सूरत में तयम्मुम करना ज़रूरी है।
(687) अगर कोई इंसान जान बूझ कर नमाज़ में इतनी देर करे कि वुज़ू या ग़ुस्ल का वक़्त बाक़ी न रहे तो वह गुनाह का मुर्तकिब होगा, लेकिन तयम्मुम के साथ उसकी नमाज़ सही है। अगरचे एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस नमाज़ की क़ज़ा भी बजा लाये।
(688) अगर किसी को शक हो कि अगर वुज़ू या ग़ुस्ल किया गया तो नमाज़ का वक़्त बाक़ी रहेगा या नहीं, तो ज़रूरी है कि वह तयम्मुम करे।
(689) अगर किसी इंसान ने वक़्त की तंगी की वज़ह से तयम्मुम किया हो और नमाज़ के बाद वुज़ू कर सकने के बावुज़ूद न किया हो, और जो पानी उसके पास हो वह बर्बाद हो गया हो, और इस सूरत में उसका फ़रीज़ा तयम्मुम हो, तो ज़रूरी है कि आइंदा नमाज़ों के लिए दोबारा तयम्मुम करे चाहे वह तयम्मुम जो उस ने किया था बातिल न हुआ हो।


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[1] मजलिसी अव्वल (रo) ने मन ला यहज़ुरुहु अलफ़क़ीह किताब की शरह में तीर के फ़ासले को 200 क़दम मुऐय्यन किया है।

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