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वो सूरतें जहाँ तयम्मुम वाजिब है

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सात सूरतें ऐसी हैं जिन में वुज़ू और ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करना चाहिए।



तयम्मुम की पहली सूरत



वुज़ू या ग़ुस्ल के लिए ज़रूरी मिक़दार में पानी मोहिय्या करना मुमकिन न हो।


(655) अगर इंसान आबादी में हो तो ज़रुरी है कि वुज़ू और ग़ुस्ल के लिए पानी को इस हद तक तलाश करे कि उसके मिलने से नाउम्मीद हो जाये और अगर बयाबान में हो तो ज़रुरी है कि रास्तों में या अपने ठहरने की ज़गह पर या उसके आस पास वाली जगहों पर पानी तलाश करे। अगर वहाँ की ज़मीन ऊँची नीची हो या दरख़तों के ज़्यादा होने की वजह से रास्ता चलने में परेशानी हो, तो एहतियाते लाज़िम यह है कि चारों तरफ़ इतनी दूरी तक पानी तलाश करे जितने फ़ासले पर कमान से फ़ेका हुआ तीर जाता है।[1] लेकिन अगर रास्ता व ज़मीन हमवार हो तो हर तरफ़ दो तीर के फ़ासले के बराबर पानी की तलाश में जाये।



(656) अगर ज़मीन ऐसी हो कि वह कुछ तरफ़ से हमवार हो और कुछ तरफ़ से ना हमवार तो जो तरफ़ हमवार हो उस में दो तीरों के फ़ासले के बराबर और जो तरफ़ ना हमवार हो उस में एक तीर के फ़सले के बराबर पानी तलाश करे।



(657) जिस तरफ़ पानी के न मिलने का यक़ीन हो उस तरफ़ तलाश करना ज़रूरी नहीं है।



(658) अगर किसी इंसान की नमाज़ का वक़्त तंग न हो और पानी हासिल करने के लिए उसके पास वक़्त हो और उसे यक़ीन या इत्मिनान हो कि जितनी दूरी तक पानी तलाश करना ज़रूरी है उससे ज़्यादा दूरी पर पानी मौजूद है, तो उसे चाहिए कि पानी हासिल करने के लिए वहाँ जाये। लेकिन अगर वहाँ जाना परेशानी का सबब हो या पानी बहुत ज़्यादा दूरी पर हो तो वहाँ जाना लाज़िम नही है और अगर सिर्फ़ पानी के मौजूद होने का गुमान हो तो फिर वहाँ जाना भी ज़रूरी नहीं है।



(659) यह ज़रूरी नहीं है कि इंसान ख़ुद पानी की तलाश में जाये बल्कि वह किसी और एसे इंसान को भेज सकता है जिस के कहने पर उसे इत्मिनान हो और इस सूरत में अगर एक इंसान कई इंसानों की तरफ़ से जाये तो काफ़ी है।



(660) अगर इस बात का एहतेमाल हो कि किसी इंसान के लिए अपने सफ़र के सामान में या पडाव डालने की जगह पर या क़ाफ़िले में पानी मौजूद है तो ज़रूरी है कि इस क़दर जुस्तुजू करे कि उसे पानी के न होने का इत्मिनान हो जाये या उस के मिलने से नाउम्मीद हो जाये।



(661) अगर एक इंसान नमाज़ के वक़्त से पहले पानी तलाश करे और हासिल न कर पाये और नमाज़ के वक़्त वहीं रहे तो अगर पानी मिलनें का एहतेमाल हो तो एहतियात मुस्तहब यह है कि पानी की तलाश में दोबारा जाये।



(662) अगर कोई इंसान नमाज़ का वक़्त दाख़िल होने के बाद पानी तलाश करे और पानी हासिल न कर पाये और बाद वाली नमाज़ के वक़्त तक उसी ज़गह रहे, तो अगर पानी मिलने का एहतेमाल हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि दोबारा पानी की तालाश में जाये।



(663) अगर किसी इंसान की नमाज़ का वक़्त तंग हो या उसे चोर डाँकू और दरिंदे का ख़ौफ़ हो या पानी की तलाश इतनी कठिन हो कि वह उस परेशानी को बर्दाश्त न कर सके तो इस हालत में पानी की तलाश ज़रूरी नहीं है।



(994) अगर कोई इंसान पानी तलाश न करे यहाँ तक कि नमाज़ का वक़्त तंग हो जाये जबकि अगर वह पानी तलाश करता तो उसे पानी मिल सकता था, तो ऐसा करने पर वह गुनाह का मुरतकिब तो हुआ लेकिन तयम्मुम के साथ उसकी नमाज़ सही है।



(665) अगर कोई इंसान इस यक़ीन की बिना पर कि उसे पानी नही मिल सकता पानी की तलाश में न जाये और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ ले और बाद में उसे पता चले कि अगर तलाश करता तो पानी मिल सकता था तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर वुज़ू कर के नमाज़ को दोबारा पढ़े।



(666) अगर किसी इंसान को तलाश करने पर पानी न मिले और उससे मायूस हो कर तयम्मुम के साथ नमाज़ पढ़ले और नमाज़ पढ़ने के बाद व वक़्त ग़ुज़र से पहले उसे पता चले कि पानी तलाश करने के लिए उसके पास वक़्त था तो एहतियाते वाजिब यह है कि दोबारा नमाज़ पढ़े।



(667) जिस इंसान को यक़ीन हो कि नमाज़ का वक़्त तंग है अगर वह पानी तलाश किये बग़ैर तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ले और नमाज़ के बाद व वक़्त ग़ुज़रने से पहले उसे पता चले कि पानी तलाश करने के लिए उसके पास वक़्त था तो एहतियाते वाजिब यह है कि वह नमाज़ दोबारा पढ़े।



(668) अगर नमाज़ का वक़्त दाख़िल होने के बाद किसी इंसान का वुज़ू बाक़ी हो और उसे मालूम हो कि अगर उसने अपना वुज़ू बातिल कर दिया तो दोबारा वुज़ू करने के लिए पानी नही मिलेगा या वह वुज़ू नही कर पायेगा, तो इस सूरत में अगर वह अपना वुज़ू बरक़रार रख सकता हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसे अपना वुज़ू बातिल नही करना चाहिए। लेकिन ऐसा इंसान यह जानते हुए भी कि ग़ुस्ल न कर पायेगा अपनी बीवी से जिमाअ (संभोग) कर सकता है।



(669) अगर कोई इंसान नमाज़ के वक़्त से पहले बा वुज़ू हो और उसे मालूम हो कि अगर उस ने अपना वुज़ू बातिल कर दिया तो दोबारा वुज़ू करने के लिए पानी हासिल करना उसके लिए मुमकिन न होगा तो इस सूरत में अगर वह उपना वुज़ू बरक़रार रख सकता हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि उसे बातिल न करे।



(670) जब किसी के पास फ़क़त वुज़ू या ग़ुस्ल के लिए पानी हो और वह जानता हो कि उसे गिरा देने की सूरत में, और पानी नही मिल सकेगा, तो अगर नमाज़ का वक़्त हो गया हो तो उस पानी को गिराना हराम है और एहतियाते वाजिब यह है कि उस पानी को नमाज़ के वक़्त से पहले भी न गिराये।



(671) अगर कोई इंसान यह जानते हुए कि उसे पानी न मिल सकेगा, नमाज़ का वक़्त हो जाने के बाद अपने वुज़ू को बातिल कर दे या जो पानी उसके पास हो उसे गिरा दे तो अगरचे उस ने (हुक्मे मस्ला के) ख़िलाफ़ काम किया है, मगर तयम्मुम के साथ उसकी नमाज़ सही होगी, लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस नमाज़ की क़ज़ा भी करे।







तयम्मुम की दूसरी सूरत
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(672) अगर कोई इंसान बुढ़ापे या कमज़ोरी की वज़ह से या चोर डाकू और जानवर वग़ैरा के ख़ौफ़ से या कुवें से पानी निकालने के वसाइल मयस्सर न होने की वहज से पानी हासिल न कर सकता हो तो उसे चाहिए कि तयम्मुम करे। और अगर पानी मुहिय्या करने या उसे इस्तेमाल करने में उसे इतनी तकलीफ़ उठानी पड़े जो नाक़ाबिले बरदाश्त हो, तो इस सूरत में भी यही हुक्म है। लेकिन आख़री सूरत में अगर तयम्मुम न करे और वुज़ू करे तो उस का वुज़ू सही होगा।

(673) अगर कुवें से पानी निकालने के लिए डोल और रस्सी वग़ैरा ज़रूरी हों और वह इंसान उन्हें ख़रीदने या किराये पर लेने के लिए मज़बूर हो तो चाहे उनकी क़ीमत आम भाव से कई गुना ज़्यादा ही क्यों न हो, उसे चाहिए कि उन्हें हासिल करे। और अगर पानी अपनी असली क़ीमत से महंगा बेचा जा रहा हो तो उसके लिए भी यही हुक्म है। लेकिन अगर उन चीज़ों के हासिल करने पर इतना ख़र्च होता हो कि उस की जेब इज़ाज़त न देती हो तो फिर उन चीज़ों का हासिल करना वाजिब नहीं है।

(674) अगर कोई इंसान मज़बूर हो कि पानी हासिल करने के लिए क़र्ज़ ले तो क़र्ज़ लेना ज़रूरी है। लेकिन जिस इंसान को इल्म हो या गुमान हो कि वह अपने क़र्ज़े की अदायगी नही कर सकता, उस के लिए क़र्ज़ लेना वाजिब नही है।

(675) अगर कुवाँ खोदने में कोई कठिनाई न हो तो ऐसे इंसान को चाहिए कि पानी हासिल करने के लिए कुवाँ खोदे।

(676) अगर कोई इंसान बग़ैर एहसान रखे कुछ पानी दे तो उसे क़ुबूल कर लेना चाहिए।







तयम्मुम की तीसरी सूरत




(677) अगर किसी इंसान को पानी इस्तेमाल करने से अपनी जान पर बन जाने या बदन में कोई ऐब या मर्ज़ पैदा होने या मौजूदा मर्ज़ के बढ़ जाने या शदीद हो जाने या इलाज मुआलेजा में दुशवारी पैदा होने का ख़ौफ़ हो तो उसे चाहिए कि तयम्मुम करे। लेकिन अगर पानी के नुक़्सान को किसी तरीक़े से दूर कर सकता हो, मसलन यह कि पानी को गरम करने से नुक़्सान दूर हो सकता हो, तो पानी गरम कर के वज़ु करे और अगर ग़ुस्ल ज़रूरी हो तो ग़ुस्ल करे।

(678) ज़रूरी नहीं कि किसी इंसान को यक़ीन ही हो कि पानी उसके लिए नुक़्सान दे है। बल्कि अगर नुक़्सान का एहतेमाल भी हो और यह एहतेमाल आम लोगों की नज़रों में सही हो और इस एहतेमाल की वजह से वह ख़ौफ़ ज़दा हो जाये तो तयम्मुम करना ज़रूरी है।

(679) अगर कोई इंसान आँखों के दर्द में मुबतला हो और उसके लिए पानी नुक़्सान दे हो तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे।

(680) अगर कोई इंसान नुक़्सान के यक़ीन या ख़ौफ़ की वजह से तयम्मुम करे और उसे नमाज़ से पहले इस बात का पता चल जाये कि पानी उस के लिए नुक़्सानदेह नही है तो उसका तयम्मुम बातिल है और इस बात का पता नमाज़ के बाद चले तो वुज़ू या ग़ुस्ल कर के दोबारा नमाज़ पढ़ना ज़रूरी है।

(681) अगर किसी को यक़ीन हो कि पानी उसके लिए नुक़्सान दे नही है और वह ग़ुस्ल या वुज़ू कर ले और बाद में उसे पता चले कि पानी उसके लिए नुक़्सान दे था तो उस का वुज़ू और ग़ुस्ल दोनों बातिल हैं।



तयम्मुम की चौथी सूरत



(682) अगर किसी इंसान को यह ख़ौफ़ हो कि पानी से वुज़ू या ग़ुस्ल कर लेने के बाद वह प्यास की वज़ह से बेताब हो जायेगा तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे और इस वजह से तयम्मुम के जायज़ होने की तीन सूरतें हैं।

(1) अगर पानी वुज़ू या ग़ुस्ल करने में ख़र्च कर देने की वजह से इस बात का अंदेशा हो कि उसे फ़ौरी तौर पर या बाद में ऐसी प्यास लगेगी जो उसकी हलाकत या बामारी का सबब बनेगी या जिस का बर्दाश्त करना उसके लिए सख़्त तकलीफ़ का बाइस होगा।

(2) उसे ख़ौफ़ हो कि जिन लोगों की हिफ़ाज़त करना उस पर बाज़िब है वह कहीं प्यास से हलाक या बीमार न हो जाये।

(3) अपने अलावा किसी दूसरे की ख़ातिर चाहे वह इंसान हो या हैवान, डरता हो और उसकी हलाकत या बीमारी या बेताबी उसे गरां गुज़रती हो चाहे मोहतरम नुफ़ूस में से हो या ग़ैर मोहतरम नुफ़ूस में से, इन तीनों सूरतों के अलावा किसी और सूरत में पानी होते हुए तयम्मुम करना जायज़ नही है।

(683) अगर किसी इंसान के पास उस पाक पानी के अलावा जो वुज़ू या ग़ुस्ल के लिए हो, इतना नजिस पानी भी हो जितने की उसे पीने के लिए ज़रूरत हो, तो ज़रूरी है कि पाक पानी पीने के लिए रख ले और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर पानी उसके साथियों के पीने के लिए दरकार हो तो वह पाक पानी से वुज़ू या ग़ुस्ल कर सकता है,चाहे उसके साथी प्यास बुझाने के लिए नजिस पानी पीने पर ही मज़बूर हों। बल्कि अगर वह लोग उस पानी के नजिस होने के बारे में न जानते हों या इसी तरह निज़ासत से परहेज़ न करते हों तो लाज़िम है कि पाक पानी को वुज़ू या ग़ुस्ल के लिए सर्फ़ करे, और इसी तरह अगर पानी अपने किसी जानवर या ना बालिग़ बच्चे को पिलाना चाहे तब भी ज़रूरी है कि उन्हें वह नजिस पानी पिलाये और पाक पानी से वुज़ू या ग़ुस्ल करे।



तयम्मुम की पाँचवीं सूरत



(684)अगर किसी इंसान का बदन या लिबास नजिस हो और उसके पास बस इतना ही पानी हो कि अगर उससे वुज़ू या ग़ुस्ल करे तो बदन या लिबास धोने के लिए न बचता हो, तो ज़रूरी है कि उस पानी से बदन या लिबास धोये और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर उसके पास कोई चीज़ ऐसी न हो जिस पर तयम्मुम करे सके, तो ज़रूरी है कि पानी वुज़ू या ग़ुस्ल के लिए इस्तेमाल करे और नजिस बदन या लिबास के साथ नमाज़ पढ़े।







तयम्मुम की छटी सूरत




(685) अगर किसी इंसान के पास ऐसे पानी या बरतन के अलावा, (जिसका इस्तेमाल करना हराम हो) कोई और पानी या बरतन न हो। मसलन जो पानी या बरतन उसके पास हो वह ग़स्बी हो और उसके अलावा उसके पास दूसरा कोई पानी या बरतन न हो तो उसे चाहिए कि वुज़ू और ग़ुस्ल के बजाये तयम्मुम करे।



]तयम्मुम की सातवीं सूरत





(686) अगर नमाज़ का वक़्त इतना कम रह गया हो कि वुज़ू या ग़ुस्ल करने पर सारी नमाज़ या उसका कुछ हिस्सा वक़्त के बाद पढ़े जाने का इमकान हो, तो इस सूरत में तयम्मुम करना ज़रूरी है।

(687) अगर कोई इंसान जान बूझ कर नमाज़ में इतनी देर करे कि वुज़ू या ग़ुस्ल का वक़्त बाक़ी न रहे तो वह गुनाह का मुर्तकिब होगा, लेकिन तयम्मुम के साथ उसकी नमाज़ सही है। अगरचे एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस नमाज़ की क़ज़ा भी बजा लाये।

(688) अगर किसी को शक हो कि अगर वुज़ू या ग़ुस्ल किया गया तो नमाज़ का वक़्त बाक़ी रहेगा या नहीं, तो ज़रूरी है कि वह तयम्मुम करे।

(689) अगर किसी इंसान ने वक़्त की तंगी की वज़ह से तयम्मुम किया हो और नमाज़ के बाद वुज़ू कर सकने के बावुज़ूद न किया हो, और जो पानी उसके पास हो वह बर्बाद हो गया हो, और इस सूरत में उसका फ़रीज़ा तयम्मुम हो, तो ज़रूरी है कि आइंदा नमाज़ों के लिए दोबारा तयम्मुम करे चाहे वह तयम्मुम जो उस ने किया था बातिल न हुआ हो।





(690) अगर किसी इंसान के पास पानी हो, लेकिन वह वक़्त की तंगी के वजह से तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ने लगे और नमाज़ के दौरान जो पानी उसके पास था वह ज़ाय हो जाये और अगर उसका फ़रीज़ा तयम्मुम हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि बाद की नमाज़ों के लिए दोबारा तयम्मुम करे।



(691) अगर किसी के पास इतना वक़्त हो कि वह वुज़ू या ग़ुस्ल कर के नमाज़ को उस के मुस्तहब अफ़आ़ल जैसे, इक़ामत और क़ुनूत, के बग़ैर पढ़ सकता हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल या वुज़ू करे और नमाज़ को उसके मुस्तहब अफ़आ़ल के बग़ैर पढ़े। बल्कि अगर सूराह पढ़ने के लिए भी वक़्त न बचता हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल या वुज़ू करे और हम्द के बाद कोई सूरह पढ़े बग़ैर नमाज़ पढ़े।


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[1] मजलिसी अव्वल (रo) ने मन ला यहज़ुरुहु अलफ़क़ीह किताब की शरह में तीर के फ़ासले को 200 क़दम मुऐय्यन किया है।

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