ईदुल अज़हा, बंदगी और त्याग की ईद
ईदुल अज़हा उस ईश्वरीय दूत के अस्तित्व में ईमान तथा प्रेम की चरम सीमा दर्पण है जो अपने महान आध्यात्मिक विचारों के प्रकाश की छत्रछाया में एक कठिन परीक्षा में पड़े। हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने शंका व हिचकिचाहट की सीमाओं को पार करते हुए और अपनी इच्छाओं पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त करके विश्वास व ईमान के मैदान में क़दम रखे तथा प्रेम व श्रद्धा के सागर में डूबकर अपने अस्तित्व की पवित्रता व सुगंध बढ़ाई।
हिजरी क़मरी वर्ष के बारहवें महीने ज़िलहिज्जा की दस तारीख़ ईदुल अज़हा का दिन है। मनुष्य की विदित सजावट श्रंगार, प्रकृति पर आने वाला निखार और वातावरण में बसंत की अंगड़ाइयां भी ईद की शुभसूचना देती हैं किंतु ईद का एक और भी अर्थ है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम का एक कथन है कि हर वह दिन जिसमें मनुष्य पापों से दूषित न हो ईद का दिन होता है। क्योंकि पाप और बुराइयां ही मनुष्य की पथभ्रष्टता तथा मनुष्यों के बीच विवाद का कारण बनती हैं। इनसे मनुष्य की आंतरिक और बाहरी शांति समाप्त हो जाती है अर्थात यह ईद से मेल नहीं खातीं जो शांति व हर्ष का दिन है।
ज्ञान और तर्क की ओर मनुष्य की प्रगति हमेशा प्रसन्नता तथा उत्साह का कारण बनती है, विशेषकर उस समय जब मनुष्य कोई नई बात खोजने में सफल हो जाए तो एक विशेष उत्साह और उल्लास उसके अस्तित्व पर छा जाता है। इसी क्षण को ईद का नाम दिया जा सकता है। ज्ञानियों ने ईद का एक और भी अर्थ हमें बताया है। उनके अनुसार ईद का अर्थ अपने प्रियतम के चरणों में अपनी इच्छाओं की बलि चढ़ा देना है। इस अर्थ में ईद का प्रतीक ईदुल अज़हा के दिन की जाने वाली क़ुरबानी है जिसमें मनुष्य एक पशु को उपहार स्वरूप एक स्थान पर ले जाता है ताकि अपनी उपासना पूरी करने के लिए उसकी क़ुरबानी करे। महान ईरानी कवि मौलवी भी जब ईद के बारे में बात करते हैं कि बलि और क़ुरबानी पर ही बल देते हैं।
ईद की जितनी भी परिभाषाएं दी गई हैं उनमें यह बात संयुक्त रूप से दिखाई देती है कि ईद के अवसर पर मनुष्य अपने अस्तित्व के भीतर एक प्रकार के नएपन और शुभ बदलाव का आभास करता है।
आज मक्का की धरती मनुष्यों की विशुद्ध बंदगी की साक्षी बनी है। मेना का वह स्थान जहां लोग जाकर अपने पशुओं की क़ुरबानी करते हैं, साक्षी है कि श्रद्धालु किस तरह क़ुरबानी देने में एक दूसरे से आगे निकल जाने का प्रयास कर रहे है?! हर हाजी का यही प्रयास है कि क़ुरबानी के लिए बेहतरीन उपहार चुने। ईश्वर की खोज में निकले इन श्रद्धालुओं के चेहरों से ख़ुशी छलक रही है। उन्हेंइस बात की ख़ुशी है कि हज करने का अवसर मिला और पवित्र स्थानों पर बैठकर उन्होंने अपने और अपने ईश्वर के बारे में तनमयता से सोचा।
इस मनोदशा में उन्होंने अपनी आशाएं ईश्वर के सदैव बहने वाले कृपा व दया के सोते से बांधी है और यही दुआ उनकी ज़बान पर है कि मैं अपने चेहरे को ईश्वर की ओर उन्मुख करता हूं जो आकाशों और धरती का रचयिता है, मैं सत्य और इस्लाम से जुड़ जाने का इच्छुक हूं, मैं अनेकेश्वरवादियों में से नहीं हूं। निश्चित रूप से मेरी नमाज़, मेरी क़ुरबानी, मेरी मौत और ज़िन्दगी केवल ईश्वर के लिए है जो संसार वासियों का पालनहार है। हे पालनहार! मेरे पास जो कुछ है तुझ से मिला है और तेरे लिए है।
बाग़ी इच्छाओं को मार देना वस्तुतः नया जन्म लेने और सत्य तथा महान मूल्यों के मार्ग में जीवन व्यतीत करने का पर्याय है। हममें से हर एक का कोई न कोई हार्दिक केन्द्र होता है, किंतु यह संभव है कि कुछ लोगों को इसका आभास न हो। कुछ लोग सारी मेहनत इसी पर लगा देने हैं कि स्वयं को सुरक्षित रखें। इस सोच के साथ यदि कोई पैसे कमाना चाहता है तो वह केवल इस लिए मेहनत करता है कि पैसा ख़तरों से उसे बचा सकता है। हम में कुछ लोग एसे होते हैं जो स्वयं को दूसरों से बड़ा और श्रेष्ठ देखना चाहते हैं। एसे लोग संसार को दौड़ का मैदान समझते हैं और पैसा, ज्ञान तथा संसाधन इस लिए प्राप्त करते हैं कि दूसरों से बड़े दिखाई दें। कुछ लोग एसे होते हैं कि उनके लिए लोगों का प्रेम पात्र बनना सबसे अधिक महत्वपूर्ण विषय होता है। जबकि कुछ लोगों के जीवन का सार यह होता है कि उनका जीवन ईश्वरीय श्रद्धा का प्रतीक बने। वे अपना तन-मन-धन सब कुछ उस ईश्वर पर न्योछावर कर देते हैं जिसने मनुष्यों को अस्तित्व प्रदान किया है। एसा व्यक्ति किसी भी स्थिति में आंतरिक विरोधाभास जैसी समस्या से ग्रस्त नहीं होता। वह अपने जीवन का सर्व महान लक्ष्य यही मानता है कि स्वयं को भूल जाए और उसकी आंखों और मन के सामने केवल ईश्वर की ईश्वर रहे। वह अपनी शांति और संतोष को ईश्वरीय श्रद्धा में खोजता है। एक सच्चा मुसलमान अपनी महानता और बड़ाई तथा शांति व सुरक्षा इसी में देखता है कि ईश्वर उससे प्रसन्न रहे।
क़ुरआन में जिन कहानियों का उल्लेख है उनमें विशेष रूप से पैग़म्बरों की जीवनी की ओर जहां संकेत है वहीं ईश्वर की ओर से ली जाने वाली कड़ी परीक्षाओं के परिप्रेक्ष्य में ईश्वर से प्रेम ही सर्व विदित आयाम होता है। इन कहानियों में हम मनुष्यों की गर से आने वाली प्रतिक्रियाओं की भिन्नता का आभास कर सकते हैं। उदाहरण स्वरूप हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने ईश्वरीय परीक्षा के समय जो भावना दिखाई उसने उन्हें ख़लीलुल्लाह अर्थात ईश्वर का मित्र बना दिया। जबकि अपने ख़ज़ानों को लेकर क़ारून ने जो भावना दिखाई उसने उसे घमंड में डालकर हमेशा के लिए अपमानित कर दिया।
यदि हम इस यथार्थ को स्वीकार कर लें कि ईश्वर की ओर से मनुष्यों की परीक्षाएं किसी नदी की भांति मानव जीवन के मैदान पर निरंतर जारी रहती हैं तो हम जीवन के विभिन्न मोड़ को और अलग-अलग परिस्थितियों को इसी परीक्षा के रूप में देखेंगे। इस प्रकार यह परीक्षाएं एक ओर तो हमारे इस विश्वास को प्रबल बनाएंगी कि जीवन की यह कठिनाइयां हमें महान स्थान पर पहुंचाने के लिए हैं और दूसरी ओर मनुष्य को यह शिक्षा भी देंगी कि कठिनाइयों का सामना होने पर धैर्य और संयम से काम ले तथा इन तूफ़ानों से न घबराए।
हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को सपने में यह आदेश मिला कि अपने प्रिय पुत्र की ईश्वर के मार्ग में बलि चढ़ा दें। चूंकि यह आदेश कुछ विचित्र और असाधारण सा था अतः यह सपना हज़रत इब्राहीम को तीन बार दिखाया ताकि आदेश को निश्चित जानें। एक ओर ईश्वर की श्रद्धा और दूसरी ओर चांद जैसे बेटेका स्नेह और बीच में हज़रत इब्राहीम एसे संकट में फंसे हैं कि निर्णय करना बहुत कठिन है। अंततः उन्होंने अपनी इच्छाओं को मारा और ईश्वर के आदेश का पालन करने का दृढ़ संकल्प कर लिया। पहला क़दम यह था कि वे इस पूरी स्थिति से अपने सुपुत्र हज़रत इस्माईल को अवगत कराएं। अतः उन्होंने हज़रत इस्माईल से कहा कि मेरे बेटे मैंने सपने में देखा है कि तुम्हें ज़िबह करना है, तो तुम्हारा इस बारे में क्या विचार है।
बेटे ने जो ईश्वर के प्रति श्रद्धा की दृष्टि से अपने पिता के मार्ग के ही पथिक थे बड़े साहस के साथ उत्तर दिया कि पिता आपको जो आदेश दिया गया है उसका पालन कीजिए। इन्शा अल्लाह आम मुझे संयम रखने वालों में पाएंगे।
इस समर्पण को देखकर शैतान चकरा गया। उसने इस परीक्षा को विफल बनाने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया। वह कभी पिता के पास, कभी बेटे के पास और कभी माता के पास जाता कि किसी तरह उन्हें इस कार्य से रोक दे। किंतु तीनों की ओर से उसे निराशा ही मिली। इतिहास में है कि शैतान हज़रत इब्राहीम के पीछे-पीछे चल पड़ा और जब मक्का नगर के बाहर प्रथम जमरह नामक स्थान पर वह हज़रत इब्राहीम के निकट पहुंचा तो हज़रत इब्राहीम ने उसे सात पत्थर मारकर दूर भगाया। द्वितीय जमरह नामक स्थान पर शैतान पुनः हज़रत इब्राहीम के निकट पहुंच गया। हज़रत इब्राहीम ने इस बार भी उसके साथ यही बर्ताव दोहराया। पत्थर मारकर शैतान को भगाने की यह क्रिया आज भी हज का एक भाग है। अंततः वह नाज़ुक समय आ गया। करुणामयी पिता ने अपने प्रिय पुत्र को धरती पर लिटा दिया तथा पूरी शक्ति से छुरी अपने बेटे की गरदन पर चला दी किंतु इस छुरी ने हज़रत इस्माईल के गले पर निशान तक न डाला, हज़रत इब्राहीम ने देखा तो उनके आश्चर्य की सीमा न रही। उन्होंने दूसरी और शक्ति से छुरी चलाई। आसमान के फ़रिश्ते भी इस दृष्य को आवाक होकर देख रहे थे। वे देख रहे थे कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्साम ईश्वर पर अपनी आस्था में डूबे हुए किस प्रकार त्याग व बलिदान का इतिहास रख रहे हैं। इसी बीच वातावरण में ईश्वर का यह वाक्य गूंजने लगा कि हे इब्राहीम तुमने अपने कर्तव्य का पालन कर दिखाया, ईश्वर चाहता है कि इस्माईल की बलि न चढ़ाई जाए। इसी बीच एक भेड़ भेज दी गई जिसे हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम अपने बेटे इस्माईल के स्थान पर ज़िबह कर दें।
यह बात स्पष्ट है कि ईश्वर के निकट मानव जीवन विशेष सम्मान और महत्व रखता है। ईश्वर एक मनुष्य की हत्या को पूरी मानवता के विरुद्ध किया जाने वाला अपराध मानता है अतः हज़रत इस्माईल को ज़िबह कर देने का आदेश केवल हज़रत इब्राहीम की परीक्षा लेने और यह दिखाने के लिए था कि वे श्रद्धा और समर्पण के उच्चतम स्थान पर हैं। इस महान परीक्षा से सभी मनुष्यों को यह पाठ मिलता है कि ईश्वर पर भरोसा करके और दृढ़ता कि विशेषता अपने भीतर उत्पन्न करके अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है। आज भी हाजी हज़रत इब्राहीम की इस क्रिया को दोहराते हैं और मेना में जाकर क़ुरबानी करवाते हैं ताकि ईश्वर के प्रति अपनी श्रद्धा और आस्था का प्रदर्शन करें।
हज़रत इब्राहीम ईश्वरीय श्रद्धा और बंदगी का प्रतीक समझे जाते हैं। क़ुरआन में उनका नाम 69 बार आया है। ईश्वर ने उन्हें विशेष स्थान प्रदान किया है और विभिन्न अवसरों पर उसने हज़रत इब्राहीम को याद किया है। उन्हें क़ुरआन में मुसलमानों का पिता, मानवता का संपूर्ण प्रतीक, समस्त मनुष्यों के लिए अनुकरणीय आदर्श, पूरे विश्व का अगुवा और ईश्वर का मित्र कहा गया है। क़ुरआन की आयतों के अध्ययन से पता चलता है कि ईश्वर की उपासना, उसकी सेवा में निष्ठा के फूल चढ़ाना, उससे गहरी श्रद्धा रखना, मूर्ति पूजा करने वालों और तारों को ईश्वर मान लेने वालों से तर्कों द्वारा संघर्ष करना ही हज़रत इब्राहीम के जीवन का लक्ष्य था। हज़रत इब्राहीम की महत्वपूर्ण विशेषताओं में यह भी है कि उनका धर्म और उनके द्वारा बताई गई जीवन शैली केवल उन्हें के काल के लोगों से विशेष नहीं है बल्कि यह हमेशा अपनाया जाने वाला मत है। क़ुरआन ने मुसमलानों की एक बड़ी विशेषता यह बताई है कि वे हज़रत इब्राहीम के मार्ग पर चलने वाले हैं।
(एरिब डाट आई आर के धन्यवाद के साथ