अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

हदीस की महत्वत्ता

1 सारे वोट 05.0 / 5

हदीस शास्त्र महत्वपूर्ण शास्त्रों में से एक है। मशहूर व प्रसिध्द और सही हदीसों में एक हदीसे सक़लैन है।

 

(जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम(स) ने अल्लाह की किताब और अपने अहले बैत को एक यादगार और क़यामत तक के लिये अपनी नबूवत की बक़ा के तौर पर छोड़ा है।)

 

जिसने हदीस के ऐतेबार को हमारे लिये साफ़ कर दिया है क्योकि अहले बैत की विशेषताओं में एक विशेष चीज़ उनके कथन हैं और यह जो जनाब रय शहरी साहब ने कहा कि दारुल हदीस भी

 

दारुल क़ुरआन है वास्तव में ऐसा ही है क्योकि यह दोनो एक दूसरे से अलग नही हो सकते। लय यफ़तरेक़ा हत्ता यरेदा अलय्यल हौज़।

 

इस बुनियाद पर क़यामत तक अहले बैत (अ) की बरकतें और दुनिया में उनका वुजूद ख़त्में नुबूवत की बक़ा की ज़िम्मेदार हैं।

 

इसकी एक साफ़ और आम सी निशानी अहले बैत (अ) के कथन हैं जो आज भी लोगों के पास मौजूद हैं इससे ज़्यादा इँसान को और क्या चाहिये?

 

इन ही बातों के कारण पैग़म्बरे अकरम (स) (जिन पर यह क़ुरआन उतरा है) ने हदीस के सही और मोतबर होने को क़ुरआन के बराबर क़रार दिया है।

 

 

 

हदीस की पहचान होने की आवश्यकता

 

हमें हदीस को पहचानना चाहिये आज को दौर में हमारे बहुत से बड़े उलामा जो विभिन्न शास्त्रों में महारत रखते हैं, हदीस के बारे में जानकारी नही रखते सिवाए फ़िक़ह की हदीसों के,

 

वह भी इस लिये कि फ़िक़्ह में दलील लाते समय उनकी ज़रुरत पड़ती है लोग सवाल करते हैं फ़क़ीह को उनके सवालों के जवाब देना पड़ता है अत: वह किताबों को देखने पर मजबूर होत हैं।

 

हदीस की तरफ़ उनका ध्यान देना अस्ल में फ़िक्ह की तरफ़ ध्यान देना होता है। लाखों हदीसों की ख़ज़ाना जो हमारा पास मौजूद है उनमें से फ़िक़ही हदीसों की संख्या कितनी है?

 

फ़िक़ह की हदीसों की संख्या बहुत सीमित है जबकि हदीसों की बड़ी संख्या विभिन्न शास्त्रों और शिष्टाचार (यह कभी मुसतहब होता है और कभी उससे भी बढ़ कर होता है)

 

के बारे हैं और आईम्म ए मासूमीन (अ) के बारे में हैं। शास्त्रों की हदीसें (तौहीद, क़यामत, इमामत, नबूवत, इंसानी मसायल, जब्र व इख़्तियार) ऐसे महत्वपूर्ण विषय हैं

 

जो एक इस्लामी स्कालर के ज़हन पर सही असर डाल सकते हैं। जो इन नूरानी कथनों की फ़ज़ा में इस्लामी शिष्टाचार को हासिल करने की कोशिश कर सकता है

 

या उन्ही आदाब व अहकाम के मसायल में जो मैंने बयान किये अहले बैत (अ) की हदीसों का ख़ज़ाना, ज़िन्दगी के अहकाम व आदाब, समाजी रहन सहन के तौर तरीक़े.

 

इंसानों के आपसी संबंध, राजा का प्रजा से संबंध और इंसान का प्राकृति से संबंध के बारे में मासूमीन (अ) की हदीसें बहुत ज़्यादा हैं। उन हदीसों में इस क़दर ज़्यादा मतलब बयान हुए हैं

 

कि अगर इँसान उनमें विचार करना चाहे तो उसका ज़हन जवाब दे जाता है लेकिन अफ़सोस कि कोई उनके महत्व को नही समझता। केवल ख़ुतबा व वायज़ीन ही

 

उनका अध्ययन करते हैं लेकिन इल्मी माहौल और हमारे हौज़ ए इल्मिया (दीनी मदरसों में) में हदीस की तरफ़ ज़्यादा ध्यान नही दिया जाता, मैं उनकी बुराई नही कर रहा हूँ

 

(क्योकि फ़ोक़हा के लिये लाज़िम है कि वह माहिर हों, एक माहिर फक़ीह को फ़िक़ह के उसूल व क़ानूनों में विचार करने की ज़रुरत होती है जिसमें बहुत समय लगता है

 

इसलिये उनसे इस बात की आशा नही करनी चाहिये कि एक धर्मशास्त्र का ज्ञानी हदीस शास्ज्ञ का ज्ञानी भी हो) हम अपने उमूमी हौज़ ए इल्मिया की निंदा करते हैं कि

 

हम फ़िक्ह व उसूले फ़िक़ह पर इस क़दर पैसा ख़र्च करते हैं मगर हदीस को अनदेखा कर देते है।

    
समाज में हदीस के विध्वानों की कमी
हमें हदीस के विध्वानों की आवश्यकता है और ज़रूरी नही है कि हदीस शास्त्र का माहिर विध्वान धर्म शास्त्र और उसके उसूलों का भी माहिर हो केवल वह हदीस में महारत रखता हो क्यो कि

 

ख़ुद हदीस शास्त्र में बहुत से पहलू और विभिन्न कोण हैं इंसान जब उनमें विचार करता है तो देखता है कि यह एक बहुत फैला हुआ अध्याय है।

 

अकसर इसका नतीजा ज़्यादा का़बिले बयान होता है यहाँ तक कि फ़िक़ह से भी ज़्यादा क्योकि फ़िक़्ह और धर्म शास्त्र तौज़ीहुल मसायल की शक्ल में लोगों में बाँटा जाता है।

 

अत: एक बात तो यह कि हम हदीस में महारत के लिये जितना भी हो सके सरमाया ख़र्च करें हाँ यह उस सूरत में होना चाहिये कि जब हमें उसके बदले में प्रगति दिखाई दे।

 

आप लोगों जब इस विषय को चुना है तो यह ख़्याल रहना चाहिये कि यह बहुत बड़ा और अहम विषय है जिसके ज़रिये इंसान हदीसों की पहचान हासिल कर सकता है

 

मैं बहुत से ऐसे लोगों को जानता हूँ जिन्होने हदीसों की पहचान न होने के कारण बहुत सी बड़ी और सामने की ग़लतियाँ की हैं।

 

चालिस के दहे में पवित्र शहर मशहद में एक बहुत बड़े आलिम (जिनका मैं नाम नही लेना चाहता ख़ुदा उन पर रहमत नाज़िल करे)

 

इमामत के एक मसले में वह मुश्किल में पड़े हुए थे जिसके बारे में मैंने उन से बहस की थी।

 

उनका घर हमारे घर के नज़दीक था, एक दिन दोपहर के समय मैं अपने घर जा रहा था मेरे हाथ में तरबूज़ और रोटी थी, मेरे हाथ भरे हुए थे वह मेरे पास आये

 

और कहने लगे ऐ फ़लाँ मैं तुम से एक ज़रुरी बात करना चाहता हूँ बहुत देर तक उन्होने मुझे तेज़ धूप में सामान के साथ रोके रखा मैं कहा इजाज़त दें मैं सामान को

 

घर में रख कर वापस आता हूँ, मैं गया घर में सामान रख कर वापस आया, उसके बाद लगभग एक घंटे वह मुझ से वहीं खड़े होकर बातें करते रहे वह कह रहे थे

 

कि जिस मतलब के ऊपर मैंने आप से बात की थी अब मैं समझा कि वह ग़लत थी फिर उसके बारे में बताने लगे।

 

मैंने उनसे कहा आप कहाँ से समझे कि आप की बात ग़लत थी उन्होने जवाब दिया कि किताब बिहारुल अनवार एक समुन्दर है यह शख़्स वह थे जो बिहारुल

 

अनवार और अल्लामा मजलिसी को बुरा कहते थे और इसी वजह से जो भी हदीस उनकी समझ में नही आती थी उसे ग़लत कहते थे। (हो सकता है ग़लत हो)

 

अत: अल्लामा मजलिसी और बिहारुल अनवार से उन्हे दुश्मनी हो गई थी। बिहारुल अनवार हमारी हदीस का एक ऐसे स्रोत है। (अच्छे स्रोत में से एक है।

 

हमारे पास हदीस के ढ़ेरों स्रोत मौजूद हैं अत: हमें हदीस और हदीस शास्त्र पर ज़्यादा दिक़्क़त करने की आवश्यकता है।

 

 

 

हदीस शास्त्र के बारे में

 

हाँ, जैसा कि जनाबे रय शहरी साहब ने कहा कि यह आम तौर पर पढ़ाया जाने वाले हदीस शास्त्र, हदीस शास्त्र और उसके मूल ग्रंथ से भिन्न है।

 

हदीस की आरम्भिक चीज़ें, उसका विभिन्न भागों में बटना, हदीस का इतिहास आदि हदीस शास्त्र का अंग हैं।

 

हदीस शास्त्र के विषय पर बहुत सी किताबें लिखी गई हैं, क़ुरआन शास्त्र भी इसी तरह हैं, क़ुरआन शास्त्र पर जो किताबें लिखी गई हैं वह क़ुरआन के मूल ग्रंथ का ज्ञान नही है

 

बल्कि क़ुरआन के बारे में ज्ञान हैं कि क़ुरआन कब नाज़िल हुआ, किस तरह से जमा किया गया, नासिख़ व मंसूख़ का क्या मतलब है,

 

क़राअत किसे कहते हैं, क़ुरआन का रसमुल ख़त क्या है, यह वह चीज़ें हैं जो क़ुरआनी शास्त्र से अलग हैं जिनमें तफ़सीर (व्याख्या) के ज़रिये दाख़िल हुआ जा सकता है,

 

इल्में तफ़सीर भी इसी तरह से है आरम्भिक इल्म के अलावा (जो परिभाषा के ऐतेबार से हदीस शास्त्र है) हमको हदीस के मैदान में क़दम रखना चाहिये,

 

हदीस को समझना और याद करना चाहिये इस तरह कि जब कोई हदीस हमारी नज़र से गुज़रे तो हम उससे इस क़दर मानूस हो चुके हों कि फ़ौरन कह दें कि यह हदीस सही है या नही।

 

और यह भी एक हक़ीक़त है कि हमारी हदीस में तहरीफ़ (किसी लेख में शब्दों का उलट फेर) हुई है।

 

अहादिसे दख़ीला (जाली और गढ़ी हुई हदीसें) के बारे में शियों ने भी लिखा है और सुन्नियों ने भी।

 

इब्ने जौज़ी की मशहूर किताब है अल अख़बारुद दख़ीला, अगरचे मेरे दृष्टिकोण से उसने अपने रुख को सामने रखा है

 

और बहुत सी ऐसी हदीसों को जिनके जाली होने पर कोई दलील नही है उनको भी उसने जाली हदीसों में शामिल कर दिया है

 

और उनके जाली होने की जो दलील बयान की है वह बहुत सी जगहों पर सही नही हैं लेकिन यह बात सही है कि

 

शियों और सुन्नियों दोनों के यहाँ जाली और गढ़ी हुई हदीस पाई जाती हैं इस के अलावा बहुत सी ऐसी हदीसें हैं

 

(जिनको आपने देखा होगा) जिनमें आईम्म ए मासूमीन (अ) की तरफ़ से विस्तार किया गया है आपने फ़रमाया: हमारी हदीसों को ख़राब किया गया है।

 

अब हमें क्या करना चाहिये? यह एक अहम मसला है कभी ऐसा भी होता है

 

कि एक गढ़ी हुई और जाली हदीस किसी गिरोह या जमाअत के हाथ पड़ जाती है और वह उनके दरमियान एक ग़लत अक़ीदे के पलने का कारण बन जाती है।

 

इस तरह की गुमराह करने वाली हदीसों की संख्या कम नही है।

    

हदीस की छानबीन
हमारी ज़िम्मेदारियों में से एक ज़िम्मेदारी यह है कि हम हदीस के बारे में तहक़ीक़ और छानबीन करें।

 

हमें हदीसों की शुध्दी करना चाहिये, हदीसों में जो कमी पाई जाती है शायद वह एक से ज़्यादा हों, नक़्ल बे मअना से लेकर ख़ुद हदीस के नक़्ल करने वालों से जुड़ी हुई

 

तमाम बातों को देखना चाहिये कि किताबों की तहरीफ़ (उलट फेर) किताबों की सनद का मोतबर न होना, हदीस लेते समय के तरीक़े में कमी का होना,

 

आदि यह वह काम जो जान बूझ कर किये गये हैं या हदीस के बारे में हद से आगे बढ़ जाने वाली बातों में सुधार करना चाहिये।

 

आईम्म ए मासूमीन (अ) के सहाबियों में से बहुत से लोग ऐसे थे जो आपसे इश्क व मुहब्बत की वजह से कुछ चीज़ों को ग़लत समझते थे।

 

मशहूर रावी मुहम्मह बिन सनान के बारे में मशहूर है कि उसके दोस्त कहते थे कि ‘कादा अय यतीर’ क़रीब था कि वह उड़ने लगते।

 

पुराने उलामा की परिभाषा में ‘तैरान’ ग़ुलू (हद से ज़्यादा बढ़ा देना) को कहते हैं।

 

‘फ़क़ससना जनाहैय’ हमने उसके पर काट दिये ताकि वह ग़ुलू न कर सके, यह बात कौन लोग कहते थे?

 

बुज़ुर्ग व मोतबर सहाबी जैसे युनुस बिन अब्दुर्रहमान, अगर हम मुहम्मद बिन सेनान की हदीसों को फ़िक़ह में क़बूल कर लेते हैं तो इख़्तिलाफ़ यह पैदा होता है

 

कि यह सिक़ह थे या ग़ैरे सिक़ह, बस यह बात ज़ईफ़ (मोतबर नही हैं) हैं। अगर तहक़ीक़ करें और रेजाली इज्तेहाद की बुनियाद पर इल नतीजे पर पहुच जाएँ कि यह सिक़ह हैं तो

 

उनकी फ़िक़ही हदीसों को क़बूल किया जा सकता है लेकिन उनकी ऐतेक़ादी हदीस के बारे में अहतियात से काम लिया जाए।

 

अगर कोई इस तरह अहले बैत (अ) का चाहने वाले कि आपकी बातों को ग़लत अर्थ दे और उसमें ग़ुलू पाया जाता हो तो ऐसी हदीसों को क़बूल करने में वह इस ख़ास वादी में

 

(अहले बैत (अ) के व्यक्तित्व से जुड़ी हुई हदीस में) अहतियात करना चाहिये।

 

इसके मुक़ाबले में अली बिन अबी हमज़ा बतायनी हैं जिन पर इख़्तिलाफ़ पाया जाता है कि सिक़ह (मोतबर) हैं या नही, कुछ लोग उनको मोतबर समझते हैं,

 

कुछ उनको मोतबर नही समझते, अगर हम मान लें कि वह मोतबर हैं। (जैसा कि बहुत से बुज़ुर्ग उनको सिक़ह मानते हैं जबकि मैं उनकों मोतबर नही मानता।)

 

तो फ़िक़ह (धर्म शास्त्र) में उनको मोतबर माना जा सकता है मगर अक़ायद में उन्हे मोतबर नही माना जा सकता क्योकि वह वाक़िफ़ी मज़हब के हैं और अहले बैत (अ) के दुश्मन हैं।

 

उसकी बातों को अहले बैत (अ) के बारे में क़बूल नही किया जा सकता। इन बातों की तरफ़ ध्यान देना चाहिये और सही हदीस को ग़लत हदीसों मेंसे पहचान लेना चाहिये।

 

इस समय हमारे अहम कामों में से एक काम यह है कि हम हदीस की छानबीन करें। मैं हमेंशा किताब बिहारुल अनवार की प्रसशा करता हूँ मेरी नज़र के अनुसार यह

 

किताब शिया किताबों के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण किताब है और अल्लामा मजलिसी हमारे बहुत बुज़ुर्ग उलामा में से हैं। यह बात मैं पहले भी कहीं कह चुका हूँ कि

 

सबसे पहले तफ़सीलुल आयात लिखने वाले वही है। सबसे पहले अगर किसी ने तफ़सीले नहजुल बलाग़ा लिखी है तो वह अल्लामा मजलिसी हैं।

 

अगर किसी ने सबसे पहले तफ़सीलुल आयात लिखी और उसकों अलग अलग भागों में बाटा है तो वह अल्लामा मजलिसी ही हैं।

 

आप जिस बाब (अध्याय) में भी जाएँ हर बाब (अध्याय) अपनी जगह पर मिलेगा। उनसे पहले यह काम किसी ने नही किया है यह बहुत बड़ा काम है।

 

इसकी शुरुवात अल्लामा मजलिसी ने की है। अल्लामा मजलिसी की शख़्सियत बहुत बड़ी है।

 

हदीसों के साथ आपके बयानात (चाहे वह बिहारुल अनवार में हों या मिरातुल उक़ूल और मिलाजुल अख़यार में) बहुत ठोस, गहरे और मज़बूत हैं।

 

आप बहुत बुज़ुर्ग शख़्सीयत के मालिक हैं हाँलाकि इसी महत्वपूर्ण किताब में इसी बुज़ुर्गवार ने बहुत सी ऐसी हदीसों को जमा कर दिया है जिनको देख कर इंसान को यक़ीन नही आता कि

 

यह आईम्म ए मासूमीन (अ) ने कहीं होंगीं। उन्होने क्यों इस तरह की हदीसें नक़्ल की हैं?

 

वह एक दौर में हदीसों को जमा करने में लगे हुए थे, कई सदियों के बाद जब जब शियों की किताबें एक हाथ से दूसरे हाथ में जा रही थीं और कभी कभी उनको जलाया और बर्बाद किया जा रहा था।

 

जब सफ़वियों की हुकूमत आई तो पहले उन्होने फ़िक़ह (धर्म शास्त्र) और फिर फ़लसफ़ा (दर्शन) की तरफ़ ध्यान लगाया लेकिन हदीस की नम्बर नही आया।

 

अल्लामा मजलिसी ने आकर इस कमी को पूरा किया उन्होने शियों की मौजूदा हदीसों को अपनी शैख़ुल इस्लामी के दरबारी पद की ताक़त से जमा किया।

 

उन्होने बहुत से अहम कामों को अंजाम दिया लेकिन उनका लक्ष्य हदीसों को जमा करना था सिर्फ़ सही हदीसों को नही। आज यह काम हमें करना चाहिये।

 

कभी ऐसा होता है कि किसी को कोई ग़लत हदीस मिल जाती है तो वह न यह देखता है कि यह हदीस अहले बैत (अ) के मक़सद के ख़िलाफ़ हैं और न

 

यह देखता है कि यह क़ुरआन विरोधी हदीस है। मैं एक बार मशहद में एक मजलिस में गया जहाँ मैं बैठा था वहाँ पर मशहद के मशहूर आलिम बैठे हुए थे

 

वह मिम्बर पर गये और एक यहूदी की दास्तान को नक़्ल करने लगे कि पैग़म्बरे अकरम (स) के ज़माने में मदीने में वह अमीरुल मोमिनीन (अ) का दोस्त था

 

और आपसे बहुत मुहब्बत करता था। जब वह यहूदी मर गया तो किसी ने ख़्वाब में देखा कि वह जन्नत में ऊँचे मक़ाम पर हैं उसने पूछा तुम किस से तरह यहाँ पहुचे?

 

उसने जवाब दिया कि हज़रत अली (अ) की मुहब्बत की वजह से, उस आलिम ने मुहब्बते अली (अ) को बयान करने के लिये एक झूठ गढ़ दिया।

 

जब वह मिम्बर से नीचे आए तो मैंने पूछा कि आपने यह हदीस किस किताब में पढ़ी है तो थोड़ा सा परेशान होने के बाद एक फ़ारसी की किताब का नाम लिया।

 

मैंने कहा कि आपने इस रिवायत को कौन सी मोतबर किताब में पढ़ा है? क्या आपने उसकी सनद को देखा है? उसके मोतबर होने का यक़ीन कर चुके हैं?

 

और यह रिवायत किस दलील की बुनियाद पर सही है? चुप हो गये कि क्या जवाब दें एक शख़्स ने उन का बचाव करने की ख़ातिर कुछ बातें कहीं, मेरा मिज़ाज बिगड़ गया।

 

मेरी जेब में क़ुरआन था उसको खोल कर मैंने यह आयत पढ़ी:

 

.........

 

मैंने कहा अगर इस रिवायत की सनद भी सही हो फिर भी यह हदीस इस आयत के मुख़ालिफ़ है ......... लिहाज़ा इसे दीवार पर मार देना चाहिये।

 

क्या यह यहूदी जो अमीरुल मोंमिनीन (अ) से मुहब्बत करता था इस्लाम पर ईमान भी रखता था या नही? अगर ईमान ले आया था तो यहूदी नही था मुसलमान था

 

और बहुत अच्छा मुसलमान था लेकिन अगर ईमान नही लाया था (और आप का भी यही दावा है) तो उसकी जगह जहन्नम है जन्नत के ऊचे दर्चे नहीं।

 

यह शख़्स मिम्बर पर जाकर क़ुरआन की मुख़ालिफ़ हदीसों को पढ़ने में बिल्कुल भी शर्म महसूस नही करता था, अपने सही मक़सद को बयान करने के लिये

 

(उनका मक़सद अली (अ) की मुहब्बत को अहमियत देना था।) लेकिन क्या उसको इस तरीक़े से साबित करना चाहिये? क्या यह सही है कि

 

हम इस तरह सही हक़ीक़त से ग़लत बचाव करने के तरीक़े को अपनाएँ? हदीसों से इस तरह का सुलूक किया है इस बुनियाद पर हमारे मुहिम कामों में से

 

एक काम हदीस की तहक़ीक़ और उनकी छानबीन करना है।


हदीस की तहक़ीक़ और छानबीन में प्रचुरता से काम लेना

 

तीसरी बात जो मैं कहना चाहता हूँ वह यह है कि हदीस की छानबीन और तहक़ीक़ में प्रचुरता और इफ़रात से काम नही लेना चाहिये।

 

बहुत से लोग जब हदीसों की तहक़ीक़ करते हैं तो अकसर उसको ख़राब कर देते हैं।

 

जबकि हम हदीस को उसके विषय और उसके कुरआन के अनुसार सही होने और सनद के ऐतेबार से सही कर सकते हैं।

 

हमारे पास हदीसों की शुध्दि करने के बहुत से रास्ते हैं। कुछ उलामा ने असहाबे इजमा (इमाम (अ) के मोतबर सहाबियों का एक गिरोह, अकसर उलामा उनकी

 

मुरसल हदीसों को भी सही मानते हैं उनकी संख्या 18 है।) के मसले की बहुत ज़्यादा आलोचना की है और उसके मोतबर होने के बारे में भी क़ायल नही हैं जब कि ऐसा नही है

 

जैसा कि वह सोचते हैं। यह बात सही है कि हदीस की दलालत फ़िक़ह (धर्म शास्त्र) में दूसरे अध्याय से विभिन्न है।

 

(इस दलालत का अर्थ यह है कि इंसान उनके अनुसार अमल कर सकता है लेकिन यहाँ अमल का वूजूद ही संभव नही है।

 

लेकिन यह बात की इंसान को पूरी तरह से विश्वास प्राप्त हो जाएँ कि यह कथन किसी मासूम इमाम का कथन है, बहुत महत्व रखता है।

 

यह विश्वास कहाँ से हासिल हो सकता है? सनद के रास्ते से, सनद बहुत अच्छा रास्ता है, जबकि हम हमेशा सनद पर ऐतेराज नही कर सकते।

 

जिस सनद में असहाबे इजमा (इमाम (अ) के 18 वह सहाबी जिनकी मुरसल हदीस को भी अकसर उलामा सही (मोतबर) मानते हैं। वह रिवायत सही (मोतबर) है।

 

यह ख़ुद एक बड़ा अध्याय है या वह बुज़ुर्गान जिनके बारे में शेख़ तूसी कहते हैं कि जो भी उनसे नक़्ल करे वह सिक़ह (मोतबर) है

 

और अगर हदीस मुरसल भी हो तो उसका मुरसल होना सिक़ह की सनद के हुक्म में है, उसको क़बूल कर लेना चाहिये यह अच्छी बात है।

 

कुछ उलामा असहाबे इजमा की आलोचना करते हुए कहते हैं कि इसका मतलब यह है कि केवल यह बारह लोग सिक़ह और मोतबर हैं

 

जबकि ऐसा नही है अगर कोई कश्शी के कथन की तरफ़ ध्यान दे तो वह जान जायेगा कि यह फ़क़ीह (धर्म शास्त्र के ज्ञानी) हैं,

 

फ़क़ीह के मोतबर होने से क्या संबंध है? फ़क़ीह हैं यानी धर्म की पहचान रखते हैं यह जब किसी से हदीस नक़्ल करते हैं तो अगर वह शख़्स जिस से

 

यह हदीस नक़्ल कर रहे हैं अगर ज़ईफ़ (ग़ैर मोतबर) भी हो तो फिर भी वह हदीस सही है इसलिये कि अगर ग़लत होती यह उसको नक़्ल ही नही करते क्यो

 

कि यह अहले फ़िक़ह और अहले दीन हैं यह समझते हैं कि क्या नक़्ल कर रहे हैं अत: उनका यह कहना ऐतेबार रखता है।

 

इस बुनियाद पर असहाबे इजमा का नक़्ल करना वाक़ेयन हदीस को मोतबर कर देता है वह पुष्टी (तौसीक़) है और यह शुध्दि (तसहीह) है

 

यह दोनो चीज़े हैं लेकिन यह एक तकनीकी बहस है और हम इस बहस में दाख़िल होना नही चाहते।

 

इसलिये हमें हदीस की तहक़ीक़ और छानबीन में बहुत ज़्यादा दिक़्क़त और बारीकी से काम लेना चाहिये और इसमें किसी तरह की कोई ग़लती का शिकार नही होना चाहिये

 

लेकिन इसका यह मतलब भी नही है कि हदीस के एक भाग को अलग कर दें और कह दें कि यह मोतबर नही है। नही ऐसा नही है कि बल्कि हदीस की शुध्दी के लिये रास्ते मौजूद है।

    
आरम्भिक इस्तिम्बात से.....

कभी कभी इंसान हदीस के मतलब में बारीकी से विचार करके उसे आसानी से समझ लेता है।

 

जिस साल में मशहद की जेल में था मैंने कहा कि मुझे शेख़ सदूक की किताब अलख़ेसाल लाकर दे दो। मैं शेख़ सदूक़ की किताबों को बहुत पसंद करता हूँ उनकी किताबें बहुत महत्व रखती हैं

 

क्योकि उन्होने जिन विषयों पर भी किताबें लिखी हैं उनमें नये नये विचारों को को पेश किया है ऐसे जो उनसे पहले पेश नही हुए। उनकी सारी किताबें या अकसर किताबें जिस भी विषय पर लिखी गयीं हैं बहुत ही अच्छी किताबें हैं उन ही में से एक किताब अलख़ेसाल भी है। यह किताब लाकर मुझे दे दी गई। मैं जब इस किताब का अध्ययन कर रहा था तो मैंने कुछ बाते हदीसों के किनारों पर लिख दी थी एक दिन एक ऐसी ही हदीस मेंरी नज़रों से गुज़री, मैंने सोचा यह हदीस फ़ुज़ूल और झूठी है। हदीस यह थी:

 

.............

 

इमाम हसन व इमाम हुसैन (अ) के पास दो बाज़ू पर बाँधने वाले तावीज़ थे जो जिबरईल (अ) के परों पर लिखी गई थी

 

इंसान जब उस हदीस के ज़ाहिर पर नज़र डालता है तो वह समझता है कि जिबरईल (अ) जो (पैग़म्बर (स) के घर में आते जाते रहते थे)

 

एक परिन्दे की तरह थे और उड़ते समय उनके छोटे छोटे पंख झड़ जाया करते थे और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) उन परों को उठा कर रख देती थी

 

ताकि वह ख़राब न हों और इमाम हसन व इमाम हुसैंन (अ) के लिये उनसे बाज़ू पर बाँधने वाले तावीज़ बनाये थे। उस ज़माने में सन् 1349 हिजरी शम्सी में मैंने उन हदीसों के बारे

 

में बहुत उलटा सीधा ख़्याल किया था मगर बाद में जब किताब ख़ेसाल का अध्ययन किया और इस हदीस पर पहुचा तो समझा कि वास्तव

 

में इस हदीस का विषय कितना अच्छा है इसकी ज़बान कितनी साहित्यिक है। चूँकि हम उसको एक आम ज़बान समझ रहे थे इस लिये उसका मतलब ग़लत समझ रहे थे

 

जबकि उसका मतलब यह हो सकता है कि जिबरईल (अ) के पंख इमाम हसन व इमाम हुसैन (अ) के हाथों पर हैं और उनकी उड़ान जिबरईल की उड़ान है जिस समय वह बच्चे थे।

 

इसलिये कि इमामत के ज़माने में तो जिबरईल उनके पैरों की धूल भी नही हैं। यह भी बयान का एक हुनर और तरीक़ा है। कितना अच्छा बयान है।

 

क़ुरआने मजीद में इतने व्यंजना (किनाए) साहित्यिक और अच्छे अंदाज़ में बयान हुए हैं जैसे ...... इसका क्या मतलब है? क्या ख़ुदा तख़्त पर बैठा हुआ है।

 

हम्बली इससे यही मुराद लेते हैं? अदबी व्यंजन और मुहावरों में उसका यही मतलब समझ में आता है।

 

कभी कभी इंसान हदीस के मतलब में बहुत गहरे और अच्छे मअना को हासिल करता है।

 

आईम्मा (अ) कलाम के इमाम माने जाते थे। ....... उनका कलाम मधुर, उनकी कथन शैली सरल और प्रवाह होती थी।

 

अगर इंसान उसको आम नज़र से देखे तो बात का अर्थ ही बदल जायेगा। इमाम ख़ुमैनी के शेयर में ............. अगर इससे आम मअना मुराद

 

लिया जाये तो मालूम होगा कि किसी की आँख़ें ऐसी थीं कि आप उसकी आँख़ों को देख कर बीमार हो गये। क्या शेयर का वास्तविक अर्थ यही है?

 

अगर इंसान शेयरी शौक और सलीक़े की बुनियाद पर इन शेयरों को पढ़ेगा तो उनके मअना यह नही हैं। हाँ अगर अवामी नज़र से देखें तो इसके मअना यही हैं कि

 

इमाम ख़ुमैंनी ने किसी को आँख को देखा और ग़ुस्से से बीमार हो गये। इसलिये इन लोगों के फ़सीह व बलीग़ कथन के मतलब को इस तरह से नही समझा जा सकता।

 

अंत में ख़ुदा वंदे आलम से उम्मीद करता हूँ कि वह आपको इंशा अल्लाह कामयाब करे। आप लोग जवान और सलाहियत वाले हैं।

 

आप लोगों को उस्ताद भी बहुत अच्छे मिले हैं। काश कि हमारे ज़माने में भी ऐसे उस्ताद होते और हम उन से फ़ायदा उठा सकते।

 

मगर अफ़सोस कि ऐसा नही हो सका। आपके मुख़लिस और मेहनती प्रिसिंपल जनाब रय शहरी साहब इस सिलसिले को आगे बढ़ा रहे हैं।

 

मैं आपके और उनके वुजूद की बरकतों पर ख़ुदा वंदे आलम का शुक्र अदा करता हूँ।

 

वस सलामो अलैकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातुहु

आपका कमेंन्टस

यूज़र कमेंन्टस

कमेन्ट्स नही है
*
*

अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क