महान ईश्वर सर्वज्ञाता है
जो लोग यह मानते हैं कि मनुष्य का हर काम ईश्वर के आदेश से होता है और मनुष्य में अपना कोई इरादा नहीं होता और वह अपने इरादे से कोई काम नहीं कर सकता उनका कहना है कि
मनुष्य का इरादा आंतिरक रूचियों व रुझानों से बनता है और यह आंतरिक रूचियां और रुझान का पैदा होना स्वंय मनुष्य के बस में नहीं है
और न ही जब उसमें बाहरी कारकों के कारण उबाल आता है तो उस पर मनुष्य का बस होता है इसलिए इसमें अधिकार व चयन की गुंजाइश नहीं बचती।
उनका यह कहना है कि जब इरादा पैदा करने वाले कारक मनुष्य के बस में नहीं हैं तो फिर इरादे को उस के अधिकार के अंतर्गत आने वाला विषय कैसे कहा जा सकता है।
इस शंका के उत्तर में यह कहना चाहिए कि रुझान या रूचि पैदा होना इरादे और फैसले की भूमिका प्रशस्त करता है
किसी काम के इरादे को बनाता नहीं जिसे रूचि व रूझान का ऐसा परिणाम समझा जाए जो मनुष्य से प्रतिरोध या विरोध की क्षमता ही छीन ले।
अर्थात शंका करने वालों ने जो यह कहा है कि इरादे का आधार रूचि व रूझान होता है, सही नहीं है रूचि व रूझान और बाहरी कारक इरादे की भूमिका प्रशस्त करते हैं।
इरादे को अनिवार्य नहीं बनाते अर्थात यह सही नहीं है कि कहा जाए जब भी रूझान व रूचि होती है इरादा भी बन जाता है।
इरादा किसी भी प्रकार से रूचि व रूझान का अनिवार्य परिणाम नहीं है बल्कि उसके लिए परिस्थितियां अनुकूल करता है इसीलिए देखा गया है कि कभी- कभी रूचियां होती हैं,
परिस्थितियां होती हैं रूझान भी होता किंतु मनुष्य फैसला नहीं लेता अर्थात इरादा नहीं करता क्योंकि वास्तविकता है यह है कि इरादे
के लिए केवल रूचि व रुझान ही पर्याप्त नहीं होता बल्कि इस के बाद मनुष्य चिंतन-मनन करता है सोच-विचार करता है
उसके बाद यदि सही समझता है तो फिर इरादा और फैसला करता है। इस प्रकार से यह कहना सही नहीं है कि
मनुष्य परिस्थितियों और रूचियों के आगे इरादा करने पर विवश होता है बल्कि वह स्वतंत्र होता है इसी लिए कभी- कभी परिस्थितियों और रूचियों के विपरीत भी इरादा करता है और निर्णय लेता है।
मनुष्य में इरादे व संकल्प की शक्ति में विश्वास रखने वालों पर जो शंकाए की जाती हैं उनमें से एक यह भी है कि वे कहते हैं कि ज्ञान- विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में
प्रमाणित विषयों के आधार पर अब यह सिद्ध हो चुका है कि जेनेटिक कारक तथा विशेष प्रकार के आहारों और दवाओं के कारण हार्मोन्ज़ के स्राव तथा
समाजिक व मनुष्य के आसपास के वातावरण जैसे बहुत से कारक मनुष्य में किसी काम के इरादे को बनाने में प्रभावी होते हैं
और मनुष्य के व्यवहारों में अंतर भी इन्हीं कारकों के कारण होता है और धार्मिक शिक्षाओं में भी इस विषय की पुष्टि की गयी है इस लिए यह कहना सही नहीं है
कि मनुष्य अपने इरादे में पूर्ण रूप से स्वतंत्र होता है।
इस शंका को अधिक स्पष्ट करते हुए हम कहेंगे कि शंका करने वालों का यह कहना है कि मनुष्य जिस समाज में रहता है
उसकी विशेष परिस्थितियां और उसका अपना परिवार और जेनेटिक विशेषताएं उसके इरादों को प्रभावित करती हैं उदाहरण स्वरूप पश्चिम में रहने वाला व्यक्ति बहुत से ऐसे काम करने
का इरादा करता है जिसके बारे में पूरब में रहने वाला व्यक्ति सोच भी नहीं सकता। इसी प्रकार घर परिवार भी मनुष्य के इरादे में प्रभावित होते हैं
इस लिए यह नहीं कहा जा सकता कि मनुष्य इरादे में पूर्ण रूप से स्वतंत्र है। अर्थात मनुष्य के कार्य को पूर्ण रूप से स्वतंत्रता के साथ किये गये इरादे का परिणाम नहीं माना जा सकता।
इस शंका का निवारण यह है कि स्वतंत्र इरादे व इच्छा को स्वीकार करने का अर्थ यह नहीं है कि उस में यह तत्व प्रभावी नहीं होते बल्कि इस का अर्थ यह है कि
इन सारे तत्वों व कारकों की उपस्थिति के साथ, मनुष्य प्रतिरोध कर सकता है और विभिन्न प्रकार की भावनाओं व रूचियों के घेरे में किसी एक का चयन कर सकता है
और यही चयन कर सकने की शक्ति इस बात को सिद्ध करती है कि मनुष्य का अपना इरादा होता है।
अलबत्ता कभी- कभी इन कारकों में से कुछ कारण ऐसे भी होते हैं जो मनुष्य को अपने विरुद्ध निर्णय लेने से रोकते हैं
उदारहण स्वरूप लोभ और भविष्य की चिंता मनुष्य को दान से रोकती है या क्रोध व बदला की अत्यधिक तीव्र भावना मनुष्य को संयम से रोकती से रोकती है और
इसी लिए इन कारकों का विरोध करने के निर्णय लेने पर पारितोषिक और प्रतिफल भी अधिक मिलता है। इसी प्रकार क्रोध और भावनाओं के आवेग में किये जाने वाले अपराध का दंड,
पूर्ण रूप से शांत भाव व सोच विचार के साथ किये जाने वाले अपराध के दंड की तुलना में हल्का होता है। इस प्रकार से हम यह तो कह सकते हैं कि परिस्थितियां और कारक,
इरादों में प्रभावी होते हैं किंतु यह नहीं कहा जा सकता कि परिस्थितियां और कारक पूर्ण रूप से इरादे के पैदा होने का करण और उसका अपरिहार्य परिणाम होते हैं।
इरादे पर मनुष्य के अधिकार पर की जाने वाली एक शंका यह भी है कि कुछ लोग कहते हैं कि ईश्वर विश्व की हर वस्तु से यहां यहां तक कि मुनष्य के समस्त कार्यों से इस से पूर्व के
वह कोई काम करे, अवगत होता है और ईश्वर के ज्ञान में गलती नहीं हो सकती तो फिर सारी घटनाए ईश्वर के सदैव से रहने वाले ज्ञान के अनुसार घटित होती हैं
और इस के विपरीत कुछ नहीं हो सकता इस आधार पर मनुष्य के अधिकार व चयन का कोई प्रश्न ही नहीं है। अर्थात जब ईश्वर को समस्त घटनाओं और मनुष्य के समस्त इरादों का ज्ञान है
तो फिर इस का यह अर्थ हुआ कि मनुष्य उस से हट कर कुछ नहीं कर सकता इस लिए यह कहना सही नहीं है कि मनुष्य अपने इरादे में स्वतंत्र होता है।
इस शंका का उत्तर इस प्रकार से दिया जाता है कि यह सही है कि ईश्वर हर घटना का जिस प्रकार से वह घटित होती है ज्ञान रखता है
और मुनष्य का हर काम भी उसके अधिकार के दायरे में रहते हुए ईश्वर के ज्ञान में होता है किंतु इसका कदापि यह अर्थ नहीं है
कि ईश्वर मनुष्य को उस पर बाध्य करता है बल्कि मनुष्य के हर इरादे और हर काम का ईश्वर को ज्ञान होता है और उसे यह भी पता होता है कि
मनुष्य यह काम किस परिस्थिति में करेगा। अर्थात ईश्वर को केवल यही ज्ञान नहीं होता कि अमुख काम होने वाला है
बल्कि उसे यह भी ज्ञान है कि कौन मनुष्य किन परिस्थितियों में कौन सा इरादा करेगा और क्या काम करेगा किंतु इसका अर्थ कदापि यह नहीं है
कि मनुष्य अपने इरादे में स्वतंत्र नहीं है अर्थात ईश्वर का ज्ञान, मनुष्य की स्वतंत्रता नहीं छीनता। इस प्रकार से यह स्पष्ट है कि मनुष्य में इरादे नाम की भावना होती है
जो हर प्रकार से उसके अधिकार में होती है और बहुत से अन्य कारक उस पर प्रभाव डाल सकते हैं किंतु उसे अपरिहार्य नहीं बना सकते।
कुछ लोग मनुष्य को भाग्य व क़िस्मत के आगे विवश मानते हैं और उनका कहना है कि जो लिखा होता है वही होता है इस लिए मनुष्य के काम या उसके इरादे का कोई महत्व नहीं है।